भाग -49
तुमने यही बात बहनों को समझाई। उनसे बिना हिचक कहा, 'पहले की तरह नौकरी मैं ही करूंगी। यह दिन भर बाहर कोई और काम-धंधा करेगा। हम दोनों पति-पत्नी हैं, इसलिए रहना तो एक ही जगह होगा।'
दोनों मुझे ही नौकरी पर रखने के पक्ष में थीं, लेकिन मेरे इंकार, और तुम्हारी बातों से अंततः वो मान गईं। इसके बाद हफ्ते भर में यहां सारी व्यवस्था करके दोनों अमरीका रवाना हो गईं, भाई के पास। यहां की सारी फैक्ट्रियों की ज़िम्मेदारी उसी आदमी को सौंपी जो पहले इन दोनों के अमरीका जाने पर, डेली रमानी हाऊस दिन में एक बार जरूर आता था। घर के तमाम हिस्सों में ताला लगा दिया गया।
उनके जाने के बाद हमारी ज़िंदगी भी एकदम बदल गई। अब हमारे पास काम तो कम था, लेकिन काम के घंटे चौबीस हो गए थे। घर की रखवाली करनी थी। वह आदमी दिन भर में किसी भी समय आ जाता था, इसलिए हमेशा एलर्ट रहना पड़ता था। दोनों बहनों के जाने के बाद मैं एक हफ्ते तक कहीं नहीं गया। खूब आराम किया, इतना कि ऊबने लगा, तब मैं बाहर निकला।
इस बीच कई बार मन में आया कि तुमको लेकर कहीं घूमने जाऊं। लेकिन समस्या यह थी कि तुम्हारा घर पर रहना जरूरी था। क्योंकि चेक करने आने वाले आदमी के अलावा रमानी बहनों का फ़ोन किसी भी समय आ जाता था। बात करने में कोई समस्या ना आए, इसलिए दोनों जाते-जाते एक बढ़िया मोबाइल भी तुमको दे गई थीं। तुम पिंजड़े में कैद होकर रह गई थी। मैं कहीं आस-पास ही चलने को कहता, लेकिन तुम तब भी तैयार नहीं होती। लेकिन तुम भी आखिर कब तक पिंजरे में रहती, कुछ दिन बाद देर शाम को साथ निकलने लगी। जितनी देर बाहर रहते उतनी देर अपने उस साथी को रखवाली की जिम्मेदारी देता जिसके लिए तुम हर बार यही कहती थी कि, 'उसकी नज़रें अच्छी नहीं हैं ।' लेकिन मैं उसे सालों से जानता था, चरित्र, ईमानदारी के मामले में खुद से ज्यादा मैं उस पर विश्वाश करता था, इसलिए हर बार तुमसे यही कहता कि, 'वह ऐसा नहीं है, बहुत भला आदमी है।' आगे जब उसने कई बार निस्वार्थ मदद की, तब तुम्हें मेरी बात पर यकीन हुआ, और बोली, 'सही में वो अच्छा आदमी है, उसकीआँखों की बनावट ही ऐसी है कि वहम हो जाता है।'
कई दिन तक बरसों की अपनी थकान उतारने के बाद जब मैं काम-धाम के लिए बाहर निकला तो सबसे पहले होटल वाले उसी भले मानुष के पास पहुंचा। उन्हें प्रणाम कर अपनी हालत बताई तो वह बड़ी सज्जनता के साथ बोले, 'अगर नौकरी करना चाहो तो मैं दे सकता हूं। जगह नहीं होगी तो भी बना दूंगा। लेकिन कई बार अपना काम-धंधा करने की बात तुम कह चुके हो, इसलिए जो बताओ वो मदद करने के लिए तैयार हूँ।'
उनकी इस भलमनसाहत पर मैंने हाथ जोड़ कर आभार जताते हुए कहा, 'थोड़ी बहुत पूंजी इकट्ठा की है। आप मुझे, मेरे हिसाब का कोई धंधा कराने में मदद कीजिए।' उन्हें अपनी कुल पूंजी भी बता दी। कहते हैं ना कि, धरती कभी वीरों से खाली नहीं रहती। अच्छे आदमी हर जगह, हर समय रहते हैं। तो उस भले आदमी ने मेरी पूंजी के हिसाब से ही मुझे एक जगह चाय, समोसा, पकौड़ी की दुकान खुलवा दी। आखिर में पूंजी कुछ कम पड़ी तो उन्होंने थोड़े पैसे उधार भी दिए। एक कारीगर भी दिया। साथ ही यह भी कहा कि, 'इससे जितनी जल्दी हो सके, सारा काम सीख लो।'
शुरू के दिनों में दुकान कुछ सुस्त चली, लेकिन फिर धीरे-धीरे रफ्तार पकड़ने लगी। हम-दोनों का अपना काम करने का सपना पूरा होने लगा। हम-दोनों खुश जरूर थे, लेकिन मेरे मन में कोई ज़्यादा उत्साह नहीं था। क्योंकि हम अपनी ट्रक के सहारे, अपना बड़ा बिजनेस खड़ा करने का चूर-चूर हुआ सपना भुला नहीं पा रहे थे। जिसे रमानी बहनों ने बड़ी निर्ममता से चूर-चूर किया था। और जीते रहने की अनिवार्य कोशिशों को करते रहने के कारण मेरा विलेन-किंग बनने का सपना भी डूब रहा था। मैं बड़े से कड़ाहे में, खौलते तेल में जब समोसे, पकौड़ियां तलने के लिए डालता तो मुझे लगता जैसे मैं विलेन-किंग बनने के अपने सपने को खौलते तेल में डाल-डाल कर खत्म कर रहा हूँ।
दूसरी तरफ मैं तुम्हारी उदासी दूर करने की कोशिश में कुछ पूछता, तो तुम यही कहती, 'नहीं। ऐसी कोई बात नहीं है।'
ज्यादा पूछने पर, सच को छिपाती हुई तुम हर बार करीब-करीब एक ही बात कहती, 'तू तो सवेरे ही निकल जाता है, फिर देर रात आता है। कुल पांच-छह घंटे के लिए। मतलब की सोने भर को ही यहां रहता है। मैं इतने बड़े घर में अकेले पड़ी रहती हूं। काम कुछ है नहीं । एकदम ऊब जाती हूं। ऊपर से दिन में किसी भी टाइम वो मैनेजर चला आता है। ऐसे देखता है, जैसे मैं चोर हूं, डकैत हूं। मन बड़ा परेशान हो जाता है। इससे अच्छा तो जब वो दोनों थीं, तभी था।'
मैं कहता, 'इसीलिए तो मैं दिन-भर में तुझे दसियों बार फ़ोन करता रहता हूं। जब दुकान शुरू कि तभी ये सोच रहा था कि, तू अकेले परेशान होगी। लेकिन अभी तो कोई और रास्ता भी नहीं दिख रहा। कम पैसों में अच्छी जगह मिल भी नहीं पाएगी। अभी जो भी कमाई हो रही है, उसका ज़्यादा हिस्सा तो उस भले मानुष का कर्ज उतारने में निकल जाता है। नहीं तो यहां से निकल कर दुकान के पास ही कोई कमरा किराए पर ले लूँ तो, आने-जाने में जो कई घंटे बरबाद होते हैं, वह तेरे साथ बिताऊँ।'
मेरी चिंता तुमसे देखी नहीं गई, मुझे समझाते हुए तुमने कहा, 'अब तुम इतना भी परेशान मत हो। ये बात अच्छी तरह समझ लो कि अपना धंधा करने का जैसा मौका ऊपरवाले ने दिया है, यह दुबारा नहीं मिलेगा। इसलिए सारा दिमाग उसमें लगा। मुझमें उतनी ही देर लगा, जितनी देर यहां रहता है। ज़्यादा कमाई करके कर्जा उतार दे। फिर इस जेल से भी मुक्ति पा लेंगे। वहीं पास में रहेंगे, या फिर दिन-भर होटल पर तुम्हारे साथ रहूँगी, काम में कुछ हाथ ही बंटाऊंगी।'
तुमने मेरे मन का बोझ हल्का करने के लिए यह सब कह तो दिया था, लेकिन वास्तविकता तो मैं जानता था, कि तुम्हारे मन का बोझ मेरे मन के बोझ से कहीं बहुत ज्यादा है।
इसलिए तुम्हारे चेहरे पर हँसी-खुशी लाने के लिए मैं हँसी-मज़ाक करता, रमानी बहनों का नाम लेकर तुम्हें छेड़ता कि बड़ी याद आती है दोनों की, कितना मजा देती थीं रात को, बड़ी वाली का तो जवाब नहीं था, और हाय रे इमेल्डा....
मगर तुम पर अब ऐसी बातों का भी, जैसे कोई असर ही नहीं होता था, जब कि पहले ऐसी बातों पर भड़क उठती थी। वैसे समीना तुमसे यह बात भले ही मज़ाक में कहता था, लेकिन वास्तव में सच यही था, रात में अक्सर उनकी याद आती, मन करता काश उसी तरह वो कुछ घंटा साथ बिताएं न। तुम्हारे साथ होते हुए भी मेरा ऐसा सोचना, इच्छा रखना, जानता था कि पूरी तरह गलत है, लेकिन इस मन का क्या करता? मेरे कंट्रोल से बाहर हो ही जाता था । लेकिन इसकी ज़िम्मेदार उन बहनों के साथ-साथ तुम भी थी, मेरे मुंह में खून तो तुम्हीं लोगों ने लगाया था।
उस दौर में तुम मेरे हर मज़ाक, बात पर मुझे बार-बार यही समझाती कि, 'छोड़ न इन बातों को, भूल जा सब, ये फालतू बातें मन खराब करती हैं, अब बस शांत रहने, होटल को बढ़ता देखने में ही आराम महसूस करती हूँ।'
लेकिन जल्दी ही मेरा ध्यान तुम्हारे तेज़ी से गिरते स्वास्थ्य की तरफ गया, तो मुझे लगा कि तुम जितना बता रही हो बात सिर्फ़ उतनी नहीं है। बात कुछ और भी है, जिससे तुम बहुत चिंता करती हो। इसी कारण तुम्हारा स्वास्थ्य खराब हो रहा है। यह समझते ही एक दिन मैंने जिद कर ली सच जानने की, मैंने कहा, 'देखो सच क्या है, वह साफ-साफ बताओ, तभी मैं होटल जाऊँगा, नहीं तो नहीं।'
बहुत कोशिश के बाद तुमने जो बताया उसे सुनकर मैंने कहा, 'तू भी कमाल करती है। इस उमर में काहे को बच्चा-बच्चा कर रही है। अरे हर चीज का एक टाइम होता है। सबकी किस्मत में सब-कुछ नहीं होता। जो हमारी किस्मत में है, वो हमें मिल रहा है। जो नहीं है वह नहीं मिल रहा है। बेवजह चिंता कर-कर के अपनी सेहत खराब कर रही हो। तेरे कारण मुझे भी चिंता होती है। मेरी भी सेहत गड़बड़ाएगी। निश्चिंत होकर क्यों नहीं जीती, कि मैं तेरे लिए हूं, तू मेरे लिए है। हैं ना सहारा एक दूसरे का।'
लेकिन मेरा समझाना-बुझाना सब बेकार गया। तुम जिद नहीं, हाथ जोड़ने लगी कि, 'एक बार ले चल किसी डॉक्टर के पास। वो जो कह देंगी, वही करेंगे। मना कर देंगी तो दुबारा सोचूंगी भी नहीं।'
मैंने फिर समझाया, 'तू बात समझने की कोशिश क्यों नहीं करती। अरे मोटी अकल से सोच, डॉक्टर के पास जाएंगे तो वो कुछ ना कुछ बीमारी बताएगा, दवाएं देगा ही। तंत्र-मंत्र वाले के पास जाओ तो वो भी कुछ झांड़-फूंक बताएगा ही। इतनी मामूली सी बात समझती क्यों नहीं ।'
मगर तुम कुछ भी समझने को तैयार ही नहीं हुई। हर बात का एक जवाब, 'एक बार चल ना। एक बार चलने में क्या बिगड़ जाएगा। डॉक्टर कुछ ज़्यादा बोलेंगी तो नहीं जाऊंगी दुबारा।'
आखिर विवश हो कर एक दिन डॉक्टर के यहां ले ही गया। उसने जांच के बाद साफ-साफ कह दिया कि अब उम्मीद बहुत कम है। फिर ना जाने कौन-कौन सी टेक्नोलॉजी का सहारा लेने की सलाह दी। जब खर्चा बताया तो हम-दोनों के पांव तले जमीन खिसक गई। लौट आए उल्टे पांव। रास्ते भर तुम एकदम चुप रही। मैं तुम्हें घर छोड़ कर होटल चला गया। धंधे का आधे से ज़्यादा दिन का खोटी हुआ था।