Vah ab bhi vahi hai - 1 books and stories free download online pdf in Hindi

वह अब भी वहीं है - 1

प्रदीप श्रीवास्तव

कॉपी राइट:लेखक

प्रथम संस्करण:२०२१

आवरण चित्र: धीरेन्द्र यादव 'धीर '

आवरण मॉडल: अधरा शर्मा

आवरण सज्जा: प्रदीप श्रीवास्तव

कम्प्यूटर टाइपिंग:धनंजय वार्ष्णेय

ले-आउट:नवीन मठपाल

 

समर्पित

पूज्य पिता

ब्रह्मलीन प्रेम मोहन श्रीवास्तव

एवं

प्रिय अनुज ब्रह्मलीन प्रमोद कुमार श्रीवास्तव, सत्येंद्र श्रीवास्तव

की स्मृतियों को

 

पूज्य पिता श्री

प्रिय प्रमोद               प्रिय सत्येंद्र

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भूमिका

एक मुट्ठी सपने के लिए

हर उपन्यास, कहानी के पीछे भी एक कहानी होती है. जो उसकी बुनियाद की पहली शिला होती है. उसी पर पूरी कहानी या उपन्यास अपनी इमारत खड़ी करती है. यह उपन्यास भी कुछ ऐसी ही स्थितियों से गुजरता हुआ अपना पूरा आकार ग्रहण कर सका. जिस व्यक्ति को केंद्र में रखकर यह अपना स्वरूप ग्रहण करता है, उससे जब मैं पहली बार मिला था, तब दिमाग में रंच-मात्र को भी यह बात नहीं आई थी, कि कभी उसे केंद्र में रख कर उपन्यास क्या कोई लघु-कथा भी लिखूंगा. मगर संयोग ऐसा बना कि अगले दो महीने में उससे तीन बार भेंट हुई. उस समय मैं एक राजनीतिक पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारणी का सदस्य और एक प्रदेश की कमेटी में सचिव था. यह राजनीति मुझे एक जगह रुकने नहीं देती थी. इसी क्रम में मैं हर दूसरे तीसरे सप्ताह संत रविदास नगर पहुंचता था. वहां के एक स्थानीय नेता अपने कुछ समर्थकों के साथ आव-भगत में उपस्थित रहते थे. उन्हीं के साथ वह करीब सवा छह फीट ऊँचा युवक आता था. सबके अपने-अपने सरोकार होते हैं, उसके भी थे. अपनी ऊंचाई, अत्यधिक सांवले रंग लेकिन उतने ही तीखे नैन-नक्स के कारण वह भीड़ में भी किसी को भी एक बार आकर्षित कर ही लेता था. उसने तीसरी मुलाकात में मुझसे पहली बार दो मिनट बात की. वह अपने जीवन के एकमात्र सपने को पूरा करने के लिए मुझसे मदद चाहता था.साथ ही विशेष आग्रह यह भी था कि उसका मंतव्य नेता जी को बिलकुल न बताऊँ.

नेताजी जिसे अपना अनुचर मान कर, साथ लिए घूमते थे, वह उन्हें अपने सपने को पूरा करने का एक साधन मान कर, अनुचर होने का रूप धारण किए हुए था. मेरे लिए असमंजस की स्थिति थी, कि कारण चाहे जो भी हो, नेता जी पूरे मन से मेरी आवभगत में लगे रहते हैं. ऐसे में उन्हें अंधेरे में रखकर कैसे उसके लिए कुछ करूं. दूसरी समस्या यह थी, कि उसने जो सहयोग मांगा था, वह कर पाना मेरे लिए संभव नहीं था, तो मैंने असमर्थता प्रकट कर दी. यदि संभव होता तब भी मैं नेताजी के संज्ञान में ही सहयोग करता.

मेरे असमर्थता प्रकट करने के बाद वह नेताजी के साथ आगे की कई मुलाकातों में नहीं दिखा, तो मैंने एक बार जिज्ञासावश नेता जी से पूछ लिया. उन्होंने जो कुछ उसके बारे में बताया उससे मैं हतप्रभ रह गया, कि कोई अपने सपने को पूरा करने के लिए अपने ही मां-बाप, परिवार के सदस्यों की पीठ में छूरा कैसे घोंप सकता है. संवेदना और भावनात्मक लगाव क्या कहने को भी नहीं बचे हैं, क्या समाज इनसे पूर्णतः शून्य हो गया है. नेताजी ने उसके कुकृत्य बताते हुए टिप्पणी की, ' वह तन से भी ज्यादा मन से काला है.' यह सुनते ही मैंने उस प्रसंग पर विराम लगा दिया, जिससे कि उस पर और चर्चा न हो. लेकिन आगे मैं जब भी वहां जाता और नेताजी आते तो मुझे लगता कि, जैसे वह उन्हीं के साथ ही खड़ा है. अजीब मनःस्थिति हो जाती थी. उसके बारे में जानने की प्रबल उत्कंठा पैदा हो जाती. आखिर मैंने नेता जी से पूछना शुरू कर दिया. हर बार वह कुछ ऐसा बताते कि, मैं अचरज में पड़ जाता कि, आखिर वह कैसा मनुष्य है?

समय तेज़ी से बीता, नेता जी ने अपने सरोकारों को साधते हुए बड़ा आर्थिक साम्राज्य खड़ा कर लिया, और मुझ में राजनीति को लेकर ऐसी विरक्ति पैदा हुई, कि सक्रिय राजनीति से विदा ले ली. इसी के साथ तमाम लोगों ने भी मुझसे दूरी बना ली. लेकिन नेताजी, कुछ अन्य आज भी मित्रवत समीप बने हुए हैं. वह भावना-शून्य व्यक्ति भी स्मृति पटल से विलुप्त नहीं हुआ, तो नेता जी के मिलते ही अक्सर उसकी चर्चा हो जाती. यह क्रम वर्षों चलता रहा. उसकी तमाम बातों को जानने के बाद, उसके प्रति मेरे विचारों में परिवर्तन होने लगा. मुझे लगा कि वह पूर्णतः संवेदनाहीन, भावनाशून्य नहीं है. उसकी हर चर्चा के बाद, उसे और जानने-समझने की इच्छा प्रबल होती गई. मेरे आग्रह पर नेताजी ने ऐसा संपर्क-सूत्र स्थापित किया कि सीधे उसी से बातचीत का सिलसिला चल निकला.

वह जल्दी ही बहुत खुलकर बात करने लगा. बीच-बीच में यह सिलसिला कई बार भंग भी हुआ. दो-दो ढाई-ढाई साल तक कोई बात नहीं हुई. लंबे अंतराल के बाद जब बात होती तो वह काफी लंबी चलती. ऐसी ही एक बातचीत में इस उपन्यास की नींव की पहली शिला अनायास ही पड़ गई.

वह मुझे अपने सपने को पूरा करने के लिए, जुनून की चरम सीमा से भी आगे निकल जाने वाले लोगों के समूह का सदस्य लगा. साथ ही यह भी पाया कि वह अपने पथ से कई बार भटका भी है. इस भटकाव ने उसे उस स्थान पर ला खड़ा कर दिया है, जहां उसके अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लग गया है. अब वह स्वयं से बार-बार पूछ रहा है कि, 'यह सब अब और कितने दिन?' परिवार और अन्य के साथ किए गए विश्वासघात अन्य अनेक कामों के लिए पश्चाताप की अग्नि में वह जल रहा है. लेकिन आज भी इस अग्नि से भी ज्यादा प्रचंड है, उसकी अपने सपने को पा लेने के जुनून की अग्नि. जबकि वह बहुत अच्छी तरह जानता है कि अब उसकी मुट्ठी से समय की रेत करीब-करीब निकल चुकी है. मेरी प्रबल इच्छा है कि उसकी मुट्ठी से समय की रेत का आखिरी कण निकलने से पहले, मैं उस पर केंद्रित इस उपन्यास के प्रकाशन की सूचना और एक प्रति उसे भेंट कर दूँ, जिससे ख़ुशी के कुछ पल, उसकी मुट्ठी से गुजर कर, उसे पश्चाताप की अग्नि की तपिस के बीच शीतलता की भी अनुभूति करा दें. और साथ ही मैं नेता जी को धन्यवाद दे सकूँ, कि उनके कारण यह संभव हुआ.

प्रदीप श्रीवास्तव

 

वह अब भी वहीं है

भाग - 1

समीना तुमसे बिछुड़े हुए तीन बरस से ज़्यादा होने जा रहा है। मगर ऐसा लग रहा है मानो अभी तुम इस रमानी हाउस के किसी कमरे से जोर-जोर से मुझे पुकारती हुई सामने आ खड़ी होगी और मुझे डपटते हुए कहोगी, 'ओए विलेन-किंग कुछ काम भी करेगा या ऐसे ही मतियाया (आलसियों की तरह) पड़ा रहेगा।'

तब तुम्हारी यह बात और आवाज़ मुझे बुरी लगती थी। तुम्हारी आवाज़ चीख लगती थी, एक कर्कश चीख। मगर इन बरसों में ऐसा कौन-सा दिन बीता होगा, जब तुम्हारी आवाज़, तुम्हारी वह बात सुनने का मन न हुआ हो और तुम्हारी वह आवाज़ घंटियों सी मधुर न लगी हो।

देखो यह भी कैसा संयोग है कि, बाकी सब कुछ तो याद है, लेकिन मुझे इस सिनेमा नगरी में आए हुए अब कितने बरस पूरे हो गए हैं, इसका ठीक-ठीक हिसाब नहीं लगा पा रहा हूँ । क्योंकि वह तारीख नहीं याद आ रही जिससे सटीक हिसाब लगा सकूँ। बस इतना याद है कि जब आया था तब अपना देश पड़ोसी पिस्सू जैसे कमीने देश पाकिस्तान को कारगिल युद्ध में जूतों तले कुचल चुका था।

देश अपने विजय का उत्सव मना रहा था। ट्रेन में विशेषज्ञ बहसबाज़ पिछली सरकारों को कोस रहे थे, गरिया रहे थे कि इन भ्रष्ट निकम्मी सरकारों ने अपनी झोली भरने, सत्ता सुख में देश को भी दांव पर लगाने के बजाय ईमानदारी से देश को सैन्य ताकत बनाया होता, तो दुनिया के फेंके टुकड़ों पर पलने वाला यह पिस्सू परजीवी जैसा देश चौथी बार धोखे से भी हमला करने का दुस्साहस नहीं कर पाता।

देश के सैकड़ों जांबाज़ सैनिकों की वीरगति से ये बहसबाज़ इतना क्रोध में थे कि खुलेआम गाली देते हुए कह रहे थे कि अहिंसा के धूर्तबाज़ों ने सत्ता की लालच में पहले तो आनन-फानन में देश के टुकड़े कर के पड़ोस में कमीना देश बसा दिया, देश न हुआ मानों इनकी संपत्ति थी कि जैसे चाहा वैसे बाँट दिया, जो टुकड़ा बचा है उसे भी बर्बाद कर रहे हैं । सैनिकों के बजाय इन्हीं सालों को बार्डर पर भेजा जाए, जब इनकी ...पर गोली पड़े तब इन्हें पता चले कि देश क्या होता है।

मूर्खों ने हर बार युद्ध भूमि में जीती जमीन कमीने दुश्मन को अपने बाप का माल समझ कर उपहार स्वरूप वापस कर दी। १९४७ में देश के खोये हिस्से को सन् १९७१ में देश में वापस मिलाने का सुनहरा अवसर मिला था, मगर मूर्खों ने उसे स्वतंत्र देश ''बांग्ला देश'' बना कर सैनिकों का बलिदान धूल में मिला दिया। सालों को शान्ति का नोबेल चाहिये।

समीना रास्ते-भर होती रही इस बहस को मैं चुपचाप सुनता रहा, इस आशंका से इसमें भाग नहीं लिया, क्योंकि बहस में झगड़ा होने की स्थिति बराबर बनी हुई थी । समीना अलग ही अनुभवों से भरी यह ट्रेन यात्रा पूरी कर, बड़ी ही अजीब स्थिति, और बहुत-बहुत बड़े सपनों को लिए हुए मैं तब की कालीन नगरी, भदोही के बड़वापुर, गोपीगंज में अपने मां-बाप, भाई-बहन, भाभी, भतीजा-भतीजी सबको छोड़ आया था। छोड़ आया था, उन सबको इस मायानगरी की माया में फंस कर, उलझ कर। अब भी मेरे पल्ले नहीं पड़ती इस माया-नगरी की माया। न जाने इसकी माया में ऐसी कौन-सी ताकत है कि, मैं सैकड़ों किलोमीटर दूर से सम्मोहित सा खिंचा यहां चला आया था। इस सम्मोहन के पाश से मुझे, मेरे परिवार का प्यार-दुलार, मोह कुछ भी नहीं बचा पाया था। मैं एक झटके में सबको राह में पड़े पत्थर को जिस तरह ठोकर मारते हैं, उसी तरह ठोकर मार कर चला आया था। किसी का प्यार क्षण-भर को मुझे नहीं रोक पाया था। हाँ, एक डर भी था। भाभी का डर। जिसके कारण भी मैं वहां रुक नहीं सकता था। यहाँ नहीं तो कहीं और के लिए मुझे निकलना ही था। क्योंकि उनके साथ जो किया था, उसके बाद तो वहां रुकने का अधिकार मैं खो चुका था।

जब यहां पहुंचा तो इस कभी न सोने वाली मायावी नगरी की चकाचौंध, तरह-तरह के इसके मायावी रूप, कहीं रूप ऐश्वर्य सौंदर्य के बहते दरिया तो कहीं झोपड़-पट्टी की बज-बजाती दुनिया, कहीं अपराध का भयावह संसार, तो कहीं हाड़-तोड़ मेहनत करते लोगों, और इन सबके बीच रिश्तों, मानवता की सीझती दुनिया, इस मकड़जाल में, मैं ऐसा उलझा कि बार-बार, हर बार कोशिश करके भी, फिर वापस अपने बड़वापुर जाने का मन नहीं बना सका। न मिल सका कभी अपने मां-बाप से, जिन्होंने अपने खून से पाला-पोसा, बड़ा किया था।

अब मुझे उनके बारे में सिर्फ़ इतना ही पता है कि, घर से बिना बताए भाग आने के कारण मेरे मां-बाप इतना दुखी हुए थे कि, आंसू बहाते-बहाते, दोनों लोग इस दुनिया से तीन साल में ही कूच कर गए थे। इसके अलावा मुझे अब अपने परिवार के बारे में कुछ नहीं पता। न जाने किस हाल में हैं सारे लोग। ईश्वर से यही प्रार्थना है कि, सारे लोग हंसी-खुशी हों और मैं उन्हें बिल्कुल भी याद न आऊं, जिससे कि उन सब को कष्ट न हो।

आज इस बड़े से ''रमानी हाउस'' में सुबह से ही पता नहीं अकेलेपन के कारण या फिर न जाने ऐसा क्या है कि, दिलो-दिमाग पर परिवार, बड़वापुर, गोपीगंज, भदोही जो अब ''संत रविदास'' नगर हो गया है कि वह सड़कें और मेन जी.टी. रोड जो हज़ारों बरस पहले हमारे सनातन पूर्वजों ने ''उत्तरापथ'' नाम से बनवाई थी, एक दम से छाए हुए हैं। और तुम भी। एकदम इस माया-नगरी में बनीं एक से बढ़ कर एक फ़िल्मों की तरह। वह बातें भी, जिन्हें मैं यहीं बनीं घटिया फिल्मों की तरह भूल जाना चाहता हूँ । लग रहा है जैसे इस ''रमानी हाउस'' की हर दिवार पर मेरे अब-तक के जीवन पर बनी तमाम फ़िल्में चल रही हैं। किसी में मेरा बचपन दिखाया जा रहा है, तो किसी में युवावस्था और फिर घर से भागना दिखाया जा रहा है, तो किसी फ़िल्म में पहले छब्बी, फिर तुम्हारा मिलना, एक होना, फिर बिछुड़ना।

कुछ ऐसी फ़िल्में भी हैं, जिनमें मेरे जीवन का सबसे स्याह पक्ष भी दिखाया जा रहा है, उनमें तुम भी शामिल हो। जिन्हें देख कर मैं काँप उठता हूँ कि हाय मैंने यह सब भी किया, जिनमें से कुछ कामों में तो तुम मेरी लीडर बनी हुई हो। मैं आश्चर्य में पड़ जा रहा हूँ कि वैसे कामों में मैं तुम्हारा दुमछल्ला बन तुम्हारे साथ-साथ लगा रहा।

मगर इन सब में एक फ़िल्म ऐसी चल रही है, जो मेरे जीवन का सबसे दुखद पहलू दिखा रही है। जिसे देखकर बार-बार आंसू निकल रहे हैं। उसमें देख रहा हूं कि, मेरे पिता जी मेरी याद में चल बसे हैं। उनकी अर्थी जाने को तैयार है। मां दहाड़ें मार-मार कर रो रही हैं। तीनों भाई और एक रिश्तेदार भरी आंखें लिए अर्थी उठाते हैं, और ''रामनाम सत्य है..'' कहते हुए श्मशान घाट की ओर बढ़ जाते हैं। तभी भीड़ में कोई फुस-फुसाया कि, ''कितने अभागे थे। चार-चार बेटों को जन्म दिया, पाला-पोसा, बड़ा किया और एक बेटा न जाने कहां चला गया कि, लौटा ही नहीं। बेचारे साहू महाराज चल बसे उसकी चिंता में। नहीं तो अर्थी के चारों कोनों के लिए चार बेटों के कंधे थे। मगर एक कंधे का पता ही नहीं। जिसको कंधा बनना था वो इनके अर्थी तक पहुँचने का कारण बन गया।''

तभी दूसरा आदमी कह रहा है, ''हम तो कहते हैं कि, जो यह बात है कि, 'बड़े भाग्य जो मानुष तन पावा' से ज़्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि, 'बड़े भाग्य जो संतुष्ट जीवन जिया। दुख से न रहा अपना कोई नाता।' लेकिन किस्मत तो किस्मत है, जो कराये वो कम।''

इस फ़िल्म का अगला दृश्य बार-बार मेरे दिमाग की नसें चिटका दे रहा है। चिता को मुखाग्नि देने का समय है। सबसे छोटे या सबसे बड़े बेटे को ये रस्म पूरी करनी है। बड़े भाई यह रस्म पूरी कर रहे हैं। चिता धू-धू कर जल उठी है, और मैं ऐसे समय में भी अपना सपना पूरा करने के लिए माया-नगरी की सड़कों की खाक छान रहा हूं। ऐसे-ऐसे काम कर रहा हूँ, जिन्हें देख-देख कर पिता की आत्मा मुझे धिक्कार रही है ।

समीना एक फिल्म में मैं मर गया हूँ । यमदूत मुझे यमलोक ले गए हैं। वहां मेरे जीवन भर का लेखा-जोखा देखा जा रहा है कि, मैंने मृत्युलोक में जीवनभर क्या किया? मेरे पाप-पुण्य की सूची मेरे सामने कर दी गई है। मेरे पुण्य की सूची, पाप की सूची के सामने तिनका-सी दिख रही है। यह पुण्य भी मुझसे अनजाने ही कहीं हो गया होगा। भगवान बड़ा दयालू है। उसी ने कृपा कर मेरे खाते में इसे जोड़ दिया होगा। हम सारे प्राणियों का लेखा-जोखा रखने वाले भगवान चित्रगुप्त कभी भी गलती नहीं करते। उन्होंने मेरे एक-एक पाप-पुण्य का लेखा-जोखा लिखा हुआ है।

समीना मैं बिल्कुल भी नहीं समझ पा रहा हूं कि, मेरी यह मनःस्थिति क्यों हो रही है। जानती हो फिल्म में मैं अपने पापों की लिस्ट देख-देख कर कांप रहा हूं । मेरा रोम-रोम कांप रहा है। मुझे नर्क भोगना बिल्कुल तय दिख रहा है। क्योंकि, मेरे पापों में नंबर एक पर है मां-बाप को धोखा देना, जिससे वो अंतिम सांस तक तड़पते रहे। नंबर दो पर है अपनी भाभी पर गलत नज़र रखना और गलत हरकत करना।

तब की बहुत सारी बातें मैं भूल गया हूं, लेकिन भाभी के साथ जो पाप किया था वह, और घर में ही इस माया-नगरी में आने के लिए जो चोरी कर-कर के पैसा इकट्ठा करता था वह नहीं भुला हूँ। इन दोनों ही बातों से मैं शर्म से पानी-पानी हो जा रहा हूं।

समीना जब यह सब किया करता था, तब बड़ा मजा आता था। तब नैतिकता, शर्म-संकोच इन सारी बातों पर मुझे हंसी आती थी। खिल्ली उड़ाता था ऐसी बातों की। लेकिन अब सच यह है कि, यह शर्मिंदगी इस कदर मुझे पस्त कर देती है कि, कई बार जब यहां की अपनी ज़िंदगी से तंग आ जाता हूं और सोचता हूं कि लौट चलूं अपने बड़वापुर जहां बचपन बीता, जहां अपना परिवार, दोस्त-यार आज भी हैं, और पहुंचने पर बांहों में भर लेंगे। लेकिन यह दोनों बातें याद आते ही कदम एकदम बंध जाते हैं। मन में आता है कि मेरे कुकर्म याद आते ही सब दुत्कार देंगे।

भाभी के साथ जो किया, वह तब की बातें हैं, जब मैं करीब बाइस-तेइस बरस का हो चुका था और बड़के भइया की शादी को तीन साल हो रहे थे। उनके बाद वाले भाई की शादी देखी जा रही थी। उनके बाद वाले दोनों भाई लेखपाल थे और प्रयागराज जिले में तैनात थे। मैं घर पर ही था। बहुत खींचतान कर किसी तरह पोस्ट ग्रेजुएशन कर लिया था। मैं जिस तरह नकल-सकल करके पढ़ रहा था, उससे पिता जी जानते थे कि, न तो मुझे नौकरी मिलने वाली है, और न ही मैं कर पाऊँगा, इसलिए सत्रह-अठारह का होते-होते मुझे घर में चल रहे कालीन के धंधे में लगा दिया था। यह धंधा कोई बड़े पैमाने पर तो नहीं था लेकिन फिर भी ठीक-ठाक था। दस लूम थे। भदोही से कच्चा माल और डिजाइन ठेकेदार भिजवा दिया करता था और तैयार कालीन भदोही भेज दी जाती थी। धीरे-धीरे यह धंधा मेरे सहारे कर वह खुद गोपीगंज में किराना की दुकान चलाते रहे। और बड़के भइया बर्तन के धंधे में लगे रहे।

शादी के बाद जब भाभी ने अपने काम-धाम और काबिलियत से कुछ ही दिन में घर संभाल लिया तो सब खुश थे। अम्मा-बाबू उनके गुणगान करते नहीं थकते। भाभी थीं बहुत समझदार। अम्मा ने जल्दी ही घर की जिम्मेदारी उनके ऊपर डाली और बाबू के साथ दुकान पर ज़्यादा समय तक बैठने लगीं। लेकिन समीना मेरा मन अपने धंधे में नहीं बैठ रहा था। मेरा मन यहां माया-नगरी में तब से बैठा हुआ था, जब मैं करीब अठारह-उन्नीस बरस का हो गया था। और बहुत से लोगों की तरह मेरा मन हीरो बनने का कतई नहीं था। मैं विलेन बनने का सपना पाले हुए था। फ़िल्मी दुनिया का सबसे बड़ा विलेन। सच बताऊं कि, मेरा यह सपना टूट ज़रूर गया है, लेकिन बिखरा अब भी नहीं है। मेरे जीवन का यह एक ऐसा सपना है, बल्कि ये कहें कि यही एक-मात्र ऐसा सपना है, जिसके लिए अब-तक मैं न जाने क्या-क्या कर चुका हूं। और अब भी मौके की तलाश में रहता हूं। हां यह ज़रूर है कि अब पहले जैसा उत्साह, पहले जैसी आग नहीं रही। न ही ताकत।

तुमको जब मैंने अपने बारे में तमाम बातें बताई थीं, वास्तव में उसमें अधिकांश गलत थीं। यह बात तो बिल्कुल ही गलत थी कि मेरे मां-बाप, भाइयों ने ऐक्टर बनने के मेरे जुनून के कारण गुस्सा होकर मुझे मार-पीट कर घर से बाहर निकाल दिया था। वास्तव में यह बात मैं सबसे सहानुभूति पाने के लिए कहता था। ताकि कोई तो मुझे आगे बढ़ने में मदद करे।

आज यादों का यह सिलसिला कुछ ऐसा चल पड़ा है कि, लगता है कुछ छूटेगा ही नहीं। भाभी के साथ की गई अभद्रता के लिए पश्चाताप, आत्मग्लानि की आग में और न झुलसूं, इसलिए इससे भागना चाह रहा हूँ, मगर भाग नहीं पा रहा हूं।

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