वह स्त्री थी या जिन्न - भाग 3 Shwet Kumar Sinha द्वारा डरावनी कहानी में हिंदी पीडीएफ

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वह स्त्री थी या जिन्न - भाग 3

…अगले दिन, फिर अपनी दिनचर्या शुरू हो गयी।

तड़के–तड़के उठकर सुबह का व्यायाम । नहा धोकर बेटे को विद्यालय पहुँचाना । नाश्ता कर के फिर ऑफिस को भागना।

काम के दबाव से कब सुबह से दोपहर हो गया, पता ही न चला । मेरे सहकर्मियों ने खाना खा लेने को कहा।

हमलोग आपस में बतियाते हुए खाना खाने लगें। बातचीत के क्रम में सामने वाले की अंगूठी देख मुझे बीती रात की घटना याद आ गयी।

बीती रात की घटी सारी घटना मैंने उन लोगों को बताई।

फिर क्या ! सबको खिंचाई करने का जैसे बहाना मिल गया हो - तुम इतने स्मार्ट हो ही , तुमसे सगाई करना चाहती होगी, गिफ्ट समझ कर रख लेते, आदि – तरह तरह की बातें करने।

जल्दी-जल्दी अपना खाना खत्म कर वहाँ से खिसकना ही मैने बेहतर समझा । और फिर अपने काम मे लग गया।

मुझे भी कहीं से सहकर्मियों की उलजलूल बातें सही प्रतीत होने का गलतफहमी हो रही थी कि सच में शायद मैं अच्छा लगा होगा, इसलिए वह अंगूठी मेरे तरफ बढ़ाई होगी । और.... मैं अपने काम मे व्यस्त हो गया।

दैनिक उत्पादन का दबाव ज्यादा होने के कारण आज भी रात के 12 बज गए।

पर, आज साथ में एक सहकर्मी भी था, जो घर वापसी में मेरे साथ साथ हो लिया।

थोड़ी दूर तक साथ चलने के बाद वो अपने घर के लिए दूसरी तरफ मूड़ गया।

और मेरे आँखों के सामने फिर से वही संकरी गली थी।

मैं उधेड़बून में था कि क्या करूँ , क्या ना करूँ।

आज फिर से उसी गली मे घुस गया, जैसे कोई मुझे बुला रहा हो या मै खुद से जाना चाहता था, पता नहीं !

हाथ में टिफिन बॉक्स लिए मेरे कौतुकपूर्ण क़दम धीरे–धीरे आगे बढ़ते जा रहे थें।

आज कुत्ते नहीं दिख रहे थें। कहाँ गए सब ? बहुत अजीब बात है- एक दिन में इतने परिचित हो गए यह बेज़ुबान जानवर मुझसे।

मस्जिद वाली मोड़ से घूमा और थोड़ा आगे बढ़ा ही था । तभी, पीछे से आवाज़ आई – “ज़नाब, जरा ठहरिए।

मैं ठिठका ।

पलट कर देखा, लहराते हुए सुनहरे बालों वाली यह वही महिला थी, जो पिछले दिन मिली थी।

लंबी सी बिंदी लगाए काली साड़ी में, चेहरे पर एक तेज़ लिए हुए, मस्जिद के पास खड़ी मुस्कुरा रही थी ।

इतने अंधेरे में भी एक प्रकाश था उसके चारो तरफ । अजीब सा एक आकर्षण था उसके चेहरे पर।

“आज भी आपकी मदद चाहिए मुझे, मिलेगी ?” – उस स्त्री ने एक मुस्कान के साथ कहा।

मैं हाँ बोलूँ या ना – कुछ समझ मे नहीं आया । फिर भी, हामी मे सर हिला दिया । वह मेरे साथ हो ली।

आज चुप नहीं थी वह । बोले ही जा रही थी – जैसे मेरा ही इंतज़ार कर रही हो कि क्या क्या बताना है , पुछना है – मानो ! सब पहले से ही सोच रखी हो।

मैं कौन हूँ, कहाँ रहता हूँ, घर पर कौन कौन हैं, मेरी पसंद – नापसंद, वगैरह–वगैरह – सवालो के तीर एक-एक करके वो फेंकती ही जा रही थी।

इसी तरह सवालों का जवाब देते हुए उसके कदम से कदम मिलाए आगे बढ़ा जा रहा था।

इतनी रात में अकेले घर से बाहर निकलती हो, किसी को साथ लेकर निकलना चाहिए, मैंने उस स्त्री से कहा।

मैंने उससे सवाल किया – “आप कहाँ रहती हो ? घर पर कौन कौन है? ”

इसपर वह हंस कर बस यही बोली कि क्या करिएगा जानकर ? बस जब मिलना हो, इसी वक़्त इस गली से गुजरना, मैं दिख जाऊँगी और ठहाके मार कर हंसने लगी।

मुझे बहुत ही अजीब लग रहा था यह सब और उसका ऐसा जवाब।

बातें करते हुए हम दोनों आगे बढ़े जा रहे थें।

उसने अपने कांधे पर लटकाए एक थैले में हाथ डाला और कुछ निकाली । उसने अपनी मुट्ठी बंद कर रखी थी।

कुछ तो था उसके हाथों मे – क्या था, मैं कुछ समझ नहीं पाया।

और फिर, मुझे मेरा हाथ आगे बढ़ाने को कहा।

मैंने प्रश्न किया –“क्या है इसमे ?” मुस्कुराकर बस वह मुझसे मेरा हाथ आगे करने का ज़िद्द करने लगी । जिसके लिए मैं बिलकुल तैयार न था।

जब अपनी बंद मुट्ठी उन्होने न खोली तो मैंने भी साफ-साफ मना कर दिया कि “हमलोग कितना जानते हैं – एक दूसरे को । और ऐसे ही किसी अंजान से बंद मुट्ठी से मैं तो कुछ ना लूँगा”।

जब मैं नहीं माना, तो अंततः उन्होने अपनी बंद मुट्ठी खोली। वही अंगूठी थी उसके हाथों में, जो पिछली रात उन्होने मुझे पहनाने की असफल कोशिश की थी।

मैंने उन्हे समझाया कि अगर आप दिन में यह देती तो मैं शायद लेने के लिए सोचता भी । पर इतनी रात गए और ऊपर से यह अंगूठी देखने में ही बहुत कीमती लगती है । इसलिए, आप मुझे माफ करें, मैं इसे बिलकुल भी नहीं ले सकता।

मेरा न में जवाब सुनकर उस स्त्री की आँखें तंज़ हो गयी और अजीब तरीके से घूरती हुई निगाहों से मुझे बोली कि मैं आपकी पूरी ज़िंदगी खुशहाल बनाना चाहती हूँ और आप हो कि अपनी अभावपूर्ण ज़िंदगी से बाहर निकलना ही नहीं चाह रहे हो।

“आप इस अंगूठी को एकबार पहनकर तो देखो, आपको एक नयी और बिलकुल अलग ही दुनिया दिखेगी। सारे दुख-तकलीफ़ों से ऊपर।” - अपनी तीखी होती आवाज़ से उसने मुझे बताया।

पर, मैं तो उनकी एक भी बात सुनने या मानने को तैयार न था।

ऐसे ही करते-करते हम दोनों गली के आखिरी छोर पर पहुँच गये।

अब, वह स्त्री बिलकुल एक जगह स्थिर हो गई और मुझे आगे बढ़ते रहने को कहकर खुद वापस अपने घर लौटने के लिए मुड़ी।

“क्या हुआ, आप वापस क्यूँ जा रही हो ? ” –मैंने प्रश्न किया। मेरे प्रश्न का बिना कोई जवाब दिए वह लौटने लगी।

मुझे उसका ऐसा रवैया बहुत ही विचित्र लगा कि जब उसे कहीं जाना ही न था तो आखिर क्यूँ आयी मेरे साथ गली के इस छोर तक!

हाँ, लौटते वक़्त मुझे केवल एक बात कह गयी कि जब कभी मिलना हो या यह अंगूठी चाहिए तो इस गली से गुजरना, मैं आपको मिल जाऊँगी।

मैं कुछ न बोला और तेज़ी से उस गली से बाहर मुख्य मार्ग पर आ गया।

बाहर, स्ट्रीट लाइट की दूधिया रोशनी से समूचा सड़क नहाया हुया था।

हालांकि, रास्ते में इक्का-दुक्का लोग ही आते-जाते दिख रहे थें।

पर, अब मैं थोड़ी राहत महसूस कर रहा था । जो कुछ भी अभी घटित हुआ, उसे लेकर मन में सौ सवाल भी उठ रहे थें।

वो स्त्री ऐसा क्यूँ कर रही थी ? ऐसा क्या था उस अंगूठी में, जो मुझे देने और पहनाने को इतना आतूर थी वह ? - यह सब सोचते-सोचते मैं घर पहुँचा।

आज फिर से मुझे तेज़ बुखार हो गया था । निर्मला से दवाई मांगा और खाकर बिछावन पर लेट गया।

निर्मला खाने खाने को आवाज लगायी, तो मैंने मना कर दिया।

वह पास आकर बैठी। सिर दबाते हुये उसने पूछा कि दो दिनों से आपकी तबीयत ठीक नहीं लग रही मुझे । कल चलकर डॉक्टर से दिखा लीजिये ।…

पाठकों से निवेदन हैं कि कॉमेंट बॉक्स में अपना आशीर्वचन देकर अनुगृहीत करें ।

© श्वेत कुमार सिन्हा