जनता स्टोर- नवीन चौधरी राजीव तनेजा द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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जनता स्टोर- नवीन चौधरी

ये उस वक्त की बात है जब दसवीं पास करने के बाद कई राज्यों में ग्यारहवीं के लिए सीधे कॉलेज में एडमिशन लेना होता था। दसवीं पास करने के बाद जब गौहाटी (गुवाहाटी) के गौहाटी कॉमर्स कॉलेज में मेरा एडमिशन हुआ तो वहीं पहली बार छात्र राजनीति से दबंग स्वरूप से मेरा परिचय हुआ। एक तरफ़ कनात नुमा तंबू में माइक पर मैरिट के हिसाब से एडमिशन पाने के इच्छुक उन बच्चों के नाम एनाउंस हो रहे थे जिनका एडमिशन होने जा रहा था। साथ ही साथ उन्हें उसी तंबू में एक तरफ़ टेबल कुर्सी लगा कर बैठे क्लर्कों के पास फीस जमा करने के लिए भेजा जा रहा था । फीस भरने के बाद साथ की ही टेबल पर, तमाम सिक्योरिटी एवं कॉलेज स्टॉफ के होते हुए भी, दबंगई के दम पर स्टूडेंट्स यूनियन के लिए जबरन चंदा लिया जा रहा था।

खैर..छात्र राजनीति से जुड़ा यह संस्मरण यहाँ इसलिए कि आज मैं छात्र राजनीति से ओतप्रोत एक ऐसे ज़बरदस्त उपन्यास की बात करने जा रहा हूँ जिसे 'जनता स्टोर' के नाम से लिखा है नवीन चौधरी ने।

राजस्थान की राजधानी जयपुर के इर्दगिर्द घूमते इस उपन्यास मे कहानी है वहाँ के राजपूतों..जाटों और ब्राह्मणों के उस तबके की जो खुद को दूसरों से ऊपर..उम्दा..बड़ा और बहादुर समझता है। इनके अलावा एक और तबका ब्राह्मणों का भी है जो इन दोनों से ही खार खाता है।

इस उपन्यास में कॉलेज में एडमिशन के वक्त से शुरू हुई झड़प कब बढ़ कर एक बड़ी लड़ाई में तब्दील हो जाती है..पता ही नहीं चलता। इसमें कहीं मयूर, दुष्यंत, प्रताप के साथ साथ उपन्यास के सूत्रधार के बीच स्कूली नोकझोंक के शुरुआती किस्से नज़र आते हैं जो समय के साथ अब ऐसी प्रगाढ़ दोस्ती में बदल चुके हैं कि सब एक दूसरे की खातिर मरने मारने को तैयार रहते हैं। कहीं इस उपन्यास में फ्लर्टिंग और शरारत से भरा रोमानी रोमांस दिखाई देता है। तो कहीं भीतर ही भीतर जलन के मारे बरसों पुरानी दोस्ती भी टूटने की कगार पर खड़ी दिखाई देती है।

कहीं इस उपन्यास में नकली मार्कशीट्स और एडमिशन फॉर्म्स में हेराफेरी के बल पर एडमिशन स्कैम होता नज़र आता है। तो कहीं फ़र्ज़ी तरीके से जाली स्पोर्ट्स और जाति सर्टिफिकेट बनते दिखाई देते हैं। कहीं विरोधी गुट के हाथ पैर तोड़ने को आमादा लट्ठ लिए तैयार खड़ा दबंग छात्रों का दूसरा गुट नज़र आता है। तो कहीं इस उपन्यास में ग्लैमर का रूप धारण कर चुका अपराध अपने चरम पर परचम लहराता दिखाई देता है।

कही इस उपन्यास में संविधान से ज़्यादा ज़रूरी अपने जातिगत वोट बैंक को समझने वाले स्वार्थी राजनीतिज्ञ नज़र आते हैं। तो कहीं बिगड़ैल छात्रों और अपराधियों को अपनी छत्रछाया में पालपोस कर पोषित करती राजनैतिक पार्टियां नज़र आती हैं।

कहीं इस उपन्यास में ज्वलंत मुद्दे को नुक्कड़ नाटक के ज़रिए कोई भुनाता दिखाई देता है। तो कहीं कोई अपनी सारी मेहनत को वोटों में बदलने को आतुर नज़र आता है। कहीं छात्रसंघ चुनावों के दौरान भावी विजेता के सामने डम्मी उम्मीदवार खड़ा कर उसके वोट काटे जाते दिखाई देतें हैं। तो कहीं कोई अपने ही साथियों के भीतरघात से त्रस्त नज़र आता है। कहीं चुनावी उठापटक के बीच मज़े लेने को आतुर छात्र दोतरफ़ा समर्थन देते दिखाई देते हैं। तो कहीं कोई दूसरे की मेहनत..प्लानिंग को धता बता सारी मलाई खुद हज़म करता नज़र आता है।

कहीं जबरन धमका कर प्रत्याशी बिठाए जाते दिखाई देते हैं। तो कहीं इस उपन्यास में कोई राजनैतिक पार्टी अपनी ही पार्टी के गले की हड्डी बन चुके साथी से त्रस्त नज़र आती है। कहीं राजनैतिक आंदोलनों में कोई बरगला दिया गया मासूम, जोश जोश में खुद मर कर नेताओं का गिद्ध भोजन बनता दिखाई देता है।

इस उपन्यास में कहीं राजपूतों की शान दिखाई देती है तो कहीं जाटों की अकड़। कहीं इसमें शहर का ब्राह्मण वर्ग अपनी अलग गुटबंदी करता नज़र आता है तो कहीं इसमें आपसी जंग जीतने को सब धर्म और जाति के मुद्दों पर अलग अलग खेमों में बंटे नज़र आते हैं।

कहीं इसमें राजनैतिक गलियारे में पैठ रखने वाला पत्रकार नज़र आता है तो कहीं नेताओं के इशारे में चक्करघिन्नी बन नाचती पुलिस दिखाई देती है। कहीं इसमें पुलिश की बर्बरता और टॉर्चर नज़र आता है तो कहीं उनका छात्रों के प्रति मित्रवत रवैया। कहीं पद.. कुर्सी की लालसा में कोई अति विश्वासी भी विश्वासघात कर दूसरे की पीठ में छुरा घोंपता नज़र आता है। तो कहीं इसमें अपनी महत्त्वाकांक्षा के चलते छात्र नेता साम..दाम..दण्ड.. भेद अपना अपना उल्लू सीधा करते नज़र आते हैं। कहीं घाघ मुख्यमंत्री अपना फन फैलाए डसने को तैयार दिखता है। तो कहीं शातिर गृहमंत्री अपनी गोटियाँ सेट करता दिखाई देता है।

इस तेज़ रफ़्तार रोचक उपन्यास में हर कोई अपनी समझ के हिसाब से इस प्रकार अपनी चाल चल रहा है कि आप अंदाजा लगाते रह जाते हैं कि किसके पीछे कौन..किसके ख़िलाफ़..उसका अपना बन, कैसी चाल चल रहा है?

कदम कदम पर चौंकाने वाले इस बेहद रोचक और रोमांचक उपन्यास को मैंने किंडल अनलिमिटेड के सब्सक्रिप्शन से पढ़ा। इसके 207 पृष्ठीय पेपरबैक संस्करण को छापा है राजकमल प्रकाशन ने और इसका मूल्य 199/- रुपए है जो कि कंटैंट के हिसाब से बहुत ही जायज़ है। यह उपन्यास फिलहाल अमेज़न पर 185/- रुपए में मिल रहा है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।