सुलगता कमरा और ठिठुरती ज़िन्दगी Manju Mahima द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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सुलगता कमरा और ठिठुरती ज़िन्दगी

The story - written 50 years ago in 1971
सुलगता कमरा ओ' ठिठुरती ज़िंदगी....लेखिका- मंजु महिमा

'ऊफ!! कितनी गर्मी ....'
'..................'
'लग रहा है, जैसे सारा कमरा सुलग रहा है।'
मुँह पर बहती हुई पसीने की बूंदों को उंगुली से पोंछते हुए, कमरे में छाए उस अटूट से मौन को पुन: तोड़ने के प्रयास में शिशिर ने कहा, ' काश! कि इस वक्त कमरे में एक कूलर होता।'
कथन की प्रतिक्रिया स्वरूप एक हल्की सी व्यंगात्मक हँसी छूटी और अब तक रखी हुई सप्रयास चुप्पी टूट पड़ी सीमा की, ' भला कल्पना में भी कंजूसी? कूलर क्या यहाँ तो एयर कंडीशनर होना चाहिए था।'
भीगे कपड़े सा बोझिल हो उठा उसका मन..... जी चाहा कि उठकर एक थप्पड़ खींच कर मार दे पत्नी सीमा को........उसे क्या हक है, उसकी विवशताओं पर तानाकशी करने का? बुरी तरह खीझ उठा था वह......सारे शरीर में जोश की बिजली की कौंध गई ...., फड़फड़ा उठे थे उसके हाथ, पर फिर भी वे कुछ न कर पाने की विवश सीखचों में जकड़े निष्प्राय से वहीं पड़े रहे।
यदि यह समाज, यह व्यवस्था, उसकी किस्मत उसका साथ देती तो वह इस दंभी सीमा को सचमुच ही बता देता एयर कंडीशनर लगवा कर।
बहुत बड़ा सा सुंदर मौलिकता लिए उसका बंगला और पोर्च में खड़ी चमचमाती कार, इशारों पर दौड़ने वाले नौकर और सभी आधुनिक शान ओ' शौकत, वैभव- ऐश्वर्य और सभी सुविधाओं से पूर्ण उसके जीवन की कल्पना जैसे अपाहिज़ होती जा रही है और शायद निकट भविष्य में उसे इसे दफ़नाना ही होगा।
पास में लेटी हुई, पसीने से तरबतर सीमा ने बेचैनी के साथ करवट बदली। पुरानी फटी हुई मैगजीन से आँखें बंद किए हुए ही हवा करने लगी....... हवा के हल्के से छींटें उस तक भी पहुँचे।
याद आया सीमा ने कहा था, ' आते वक्त एक सस्ती सी पंखी लेते आना दिन भर काटना बहुत मुश्किल हो जाता है। स्वीकारात्मक स्वीकृति के साथ वह रवाना हो गया था। लौटते समय पंखी खरीदने को उसके कदम रुके भी.... पर तभी उसे ख्याल आया कि जेब में सिर्फ 1 ₹ ही है, जिससे वह या तो पंखी खरीद सकता था या बस का टिकट ही ले सकता था।
सड़कों पर तपते सूरज के नीचे 5 मील पैदल चलकर घर पहुँचने की यातना उसे कमरे के अंदर की तपन से कहीं अधिक लगी और बढ़ता हुआ हाथ रुक जेब में ही उलझ गया तथा कदम बरबस बस की ओर बढ़ गए... ...
बिचारी सीमा ! गौर वर्ण की कृशकाय देह पर उसका थका हुआ उदास चेहरा, उस पर छाई पसीने की बूंदों का समूह, जैसे किसी उपेक्षित से मुरझाए हुए पुष्प पर ओसकण, शरीर से चिपके गीले ब्लाउज में साँसों की हरकत, ढीले से हाथों में झुंझलाई गति से हिलते हुए वे पत्रिका के पृष्ठ, यह सब देख कर पश्चाताप के सागर में डूब उठा शिशिर।
क्या कसूर है इस मासूम का इस पर क्रोधित हो जाता है? - तो इसी के कारण इतने कष्टों में दिन निकाल रही है। समझ नहीं आता स्वाभिमान की अतिरेकता उसमें ही क्यों है ? आज के जमाने के लोगों के साथ क्यों नहीं चल पाता है? वह क्यों नहीं इतना वाकपटु और अपने बॉस तथा साथियों की हां में हां मिलाने वाला नहीं हुआ? गलत और अनैतिक बातों को सहन करने की शक्ति उसमें क्यों नहीं क्यों क्यों क्यों????????
इस तरह के न जाने कितने प्रश्न चिन्ह उसके सम्मुख आ खड़े हुए और मन के इन प्रश्नों का उसकी आत्मा कोई प्रत्युत्तर नहीं दे पाई। उसकी इसी प्रवृत्ति ने तो अच्छी खासी नौकरी से निकलवा दिया एक एक पैसे का मोहताज़ बना कर तरह-तरह के ऑफिसों के दरवाजों के चौकीदारों के हाथ जोड़ने को मजबूर कर दिया।
कॉलेज के दिनों में देखी गई एक बड़ा ऑफिसर बनने की कल्पना, आई.ए.एस बनने की चाहत, देश सेवा करने का दम, सदैव ईमानदार रहने का अभिमान, सब पानी की तरह बर्फ़ के रूप में जम कर ठोस हुआ था, वह आज सामाजिक अर्थव्यवस्था, स्वार्थी और समस्त लोगों की लोलुपता की आँच में पिघल रहा है।
उसे नहीं पता था कि भावुकता के क्षण यथार्थ के कठोर और उष्ण धरातल पर ठहर नहीं पाएँगे और पानी की बूंदों की तरह छन्न सी आवाज़ के साथ उनका अस्तित्व समाप्त होते हुए भी समय नहीं लगेगा।
कारों में घूमती सुनहरी जिंदगी को उसे अपने दोनों पैरों में ढालना होगा, डाइनिंग टेबल पर बैठ कर खाते हुए सुगंधित पकवानों की खुशबू को राशन की दुकान पर लगी लंबी क्यू के बीच खाली थैला उठाए, दुकान पर लगी हुई गेहूं की ढेरी को ताकते हुए मानस से बार-बार हटाना होगा, इस आशंका से उसका नंबर आते-आते यह खत्म न हो जाए और दुकानदार यह कह दे कि आज खत्म हो गया है। और अब अब तो उसकी राशन की दुकान पर जाने की भी हिम्मत नहीं रही महीना खत्म होने आया फिर आगे क्या होगा? कहाँ से लाएगा इतने पैसे? पूरा महीना निकल गया यह तो अच्छा हुआ परिवार के नाम पर वे दोनों ही है, नहीं तो उसकी यातना सीमा से अधिक होती।
लग रहा था , जैसे उसकी जिंदगी ठिठुरी जा रही है...... पसीने में नहाई हुई बड़बड़ाहट सुनाई दी सीमा की , ' क्या हो गया इस बार गर्मी को, कितनी उमस है इस कमरे में, उबल रहा है बुरी तरह’ .... इधर पसीने की लंबी लंबी धाराओं में ठिठुरता शिशिर बोल उठा, ' …..और इस कमरे में बस जीवन ठिठुर कर रह गया है।'
‘सुलगता कमरा और ठिठुरती ज़िंदगी' -जैसे यही शीर्षक हो गया है उसके जीवन का।