डॉक्टर साहिब के डॉगीज़ बीमार हैं- सूरज प्रकाश राजीव तनेजा द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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डॉक्टर साहिब के डॉगीज़ बीमार हैं- सूरज प्रकाश

मूलतः खुद भी एक हास्य-व्यंग्यकार होने के नाते मुझे शुरू से हास्य और व्यंग्य से संबंधित रचनाएँ पढ़ने और लिखने में ज़्यादा आनंद आता है। मगर अब इसे मेरी खूबी कह लें या फिर कमी कि मैं कभी भी खुद के लेखन को अख़बारी कॉलमों की तय शब्द सीमा के हिसाब से ढाल नहीं पाया। एक दो बार थोड़ी नानुकुर और टालमटोल के बाद कहीं किसी अखबार या पत्रिका में छपने के लिए अपनी रचना भी तो छपने के बाद उसका ऐसा हश्र हुआ हुआ कि इस सबसे मोहभंग हो गया। खैर..लिखते वक्त हर बार कोशिश यही रही कि बेशक़ मैं लंबा लिखूँ मगर इस बात का अवश्य ध्यान रखूँ कि रोचकता भी बनी रहे और व्यंग्य या कहानी का प्रवाह भी टूटने ना पाए।

खैर..इस बारे में ज़्यादा फिर कभी। फिलहाल दोस्तों.. मैं एक ऐसे छोटे बड़े व्यंग्यों के रोचक संग्रह 'डॉक्टर साहिब के डॉगीज़ बीमार हैं' की बात करने जा रहा हूँ जिसमें व्यंग्य के साथ साथ हास्य से भरी गज़ब किस्सागोई है कि आप बिना रुके किताब को लगातार पढ़ते जाते हैं। इस व्यंग्य संग्रह के लेखक हैं जाने माने साहित्यकार सूरज प्रकाश जी। जिन्होंने कुछ विश्वप्रसिद्ध तथा गुजराती किताबों के हिंदी अनुवाद के साथ साथ अनेक कहानी संग्रहों एवं उपन्यासों का लेखन भी किया है।

इस व्यंग्य संग्रह के कुछ व्यंग्य अपनी मज़ेदार वाक्य सरंचना के बल पर हर बढ़ते कदम के साथ आपके चेहरे पे मुस्कुराहट ला देते हैं। जिनके इस व्यंग्य संग्रह में कहीं गलियों..सड़कों पर धक्के खाते आवारा कुत्तों से कोठियों..बँगलों इत्यादि में शाही अंदाज़ से पलने वाले शाही कुत्तों ऊप्स..सॉरी..डॉगीज़ की तुलना अगर नज़र आती है। तो फेसबुक से जुड़े एक अन्य व्यंग्य में कहीं इधर का माल उधर और उधर का माल इधर चेपते हुए लोगों का हुजूम नज़र आता है।

कहीं किसी व्यंग्य में कॉपी पेस्ट का मसला नज़र आता है तो कहीं फेक आई डी का। कहीं इसमें दूसरों के इनबॉक्स में घुसने का सायास प्रयास करते फ्लर्टी नेचर के लोग नज़र आते हैं तो कहीं इसमें कुकुरमुत्ते के माफ़िक जगह जगह उगते..उपजते..पनपते..पोषित होते लेखक..लेखिकाएँ एवं कवि..कवियात्रियाँ नज़र आती हैं।

कहीं इसमें फेसबुकीय कंटैंट की क्षणभंगुरता अर्थात अल्पावधि पर कटाक्ष होता दिखाई देता है तो कहीं इसमें मर्दों द्वारा दाढ़ी रखे जाने के पीछे के कारणों की पड़ताल की जाती दिखाई देती है। कहीं इसमें चुनाव सर्वेक्षण की आड़ में नए तरीके के अजब गजब सर्वेक्षण किए जाते दिखाई देते हैं। तो कहीं इसमें छपास की पीड़ा से ग्रस्त लेखक नज़र आता है। कहीं इसमें अपने पद के घमंड में चूर संपादक नज़र आते हैं। तो कहीं इसमें स्वपोषित या स्वघोषित टाइप के स्वयंभू महान लेखक तथा संपादक नज़र आते हैं।

कहीं किसी व्यंग्य में सेल्फ पब्लिशिंग के कांसेप्ट पर कटाक्ष नज़र आता है तो कहीं मानदेय भी मारा जाता दिखाई देता है। कहीं किसी व्यंग्य में दिल की धड़कनों से मोबाइल को चार्ज होता दिखाई देता है। तो कहीं पुराने ढर्रे पर चल रहे कवियों और उनकी कविताओं पर हमला होता नज़र आता है। कहीं किसी व्यंग्य में हकीकत से कल्पना के सफ़र के दौरान लंबे बालों को खरीद बिक्री करने वाली कम्पनियाँ अपनी कमाई के साथ साथ गंजों का उद्धार करती नज़र आती हैं। तो कहीं शहर में जगह जगह कुकुरमुत्तों के माफिक उगते कवियों और शायरों पर मज़ेदार ढंग से कटाक्ष किया जाता दिखाई देता है।

कहीं मज़ेदार किस्सागोई स्टाइल के आलेख में गुजरात में शराबबंदी के दौर में यत्र तत्र सर्वत्र याने के हर जगह आसानी से कुछ ज़्यादा पैसों में दारू की उपलब्धता का वर्णन है। तो कहीं किसी अन्य व्यंग्य में दिल्ली आने वालों से किए जाने वाले चार सवालों के माध्यम से दिल्ली के साहित्यिक क्षेत्र में चल रही गुटबंदी की पोल खोली जाती दिखाई देती है। कहीं किसी व्यंग्य में देश के महान नेताओं के नाम पर या अन्य महत्त्वपूर्ण अवसरों पर होने वाले सार्वजनिक कार्यक्रमों को हमारे सिस्टम और अतिविशिष्ट लोगों द्वारा बस खानापूर्ति कर के निबटा भर दिया जाता है।

कहीं किसी अन्य रचना में ऑनलाइन दारू पार्टी को एन्जॉय करने के तौर तरीके और नियम समझाए जा रहे हैं तो कहीं किसी आधुनिक बोध कथा में बर्तन भी बच्चे दे रहे हैं। कहीं किसी रचना में किस्मत के मारे को तसल्लीबख्श ढंग से फिर फिर मूंडा जा रहा है। तो कहीं किसी रचना में फ़्यूचर्स अर्थात भविष्य की उन बातों को ले कर सौदे या वायदे किए जा रहे हैं दरअसल जिनका होना फिलहाल के परिदृश्य में मुमकिन ही नहीं है जैसे कि.."स्वच्छ भारत".."स्वच्छ गंगा" या फिर "अच्छे दिन आएँगे।"

कहीं किसी रचना में एक जैसी ही सब्ज़ी के घटते बढ़ते दामों के उदाहरण के ज़रिए सभी राजनीतिज्ञों को एक ही थैली के चट्टे बट्टे साबित किया जा रहा है। तो कहीं किसी अन्य व्यंग्यात्मक बोध कथा में 'करे कोई भरे कोई' की तर्ज़ पर गधे की खरीद फरोख्त के बहाने भारतीय बैंकों की मनमर्ज़ी पर व्यंग्य साधा जा रहा है कि लोन ले कर भागने वाले बड़े लोगों का तो वे कुछ ना बिगाड़ पाए और अब उसी घाटे की भरपाई के लिए आम जनता पर तरह तरह के खर्चे..टैक्स और पाबंदियाँ लगा उसका कान उमेठा जा रहा है।

कहीं किसी अन्य रचना में ठीक उसी तरह स्कूल के फंक्शन में परेड के दौरान पहनी जाने वाली पैंट एक एक कर के तीन बार तीन तीन इंच छोटी हो..निक्कर बन जाती है। जिस तरह विकास के नाम पर कमाऊ सरकारी एजेंसियाँ तरह तरह के टैक्स लगा कर आम जनता की पहनी हुई पैंट को भी चिथड़े चिथड़े कर..उतार देना चाहती हैं।

इसी संकलन का एक अन्य व्यंग्य इस बात पर आधारित है कि 'तू मेरी खुजा..मैं तेरी खुजाता हूँ।' की तर्ज़ पर उद्योगपति.. सरकार और ब्यूरोक्रेसी आपस में मिल कर देश को कैसे लूट रहे हैं।
एक अन्य व्यंग्य में किसी धंधे में भागीदारों की आपसी तनातनी के बीच ग्राहक की खुश होता ठीक उसी तरह दिखाई देता है। जिस तरह राजनीतिक पार्टियों द्वारा आपस में दिखावटी लड़ाई कर आम जनता को बेवकूफ बना अपना उल्लू सीधा करती हैं।

कहीं किसी रचना में पैसा..पैसे को ठीक उसी तरह खींच रहा है जैसे अमीर सेठ, गरीबों की जेब से पैसा खींच मुनाफ़ा कमा लेते हैं। तो कहीं किसी अन्य रचना में विदेशी छुरी से बकरे इसलिए कट रहे हैं कि विदेशी छुरी के इस्तेमाल से बकरे कटते समय शोर कम मचाएँगे। कहीं किसी रचना में सरकारों द्वारा कल्पना के घोड़े पर बैठ कर लिए जाने वाले उन अदूरदर्शिता भरे फ़ैसलों पर कटाक्ष नज़र आता है जिनसे असलियत में कुछ भी लाभ नहीं है।

कहीं किसी रचना में उन लोगों पर कटाक्ष नज़र आता है जो किसी बड़े नाम के द्वारा लिखी गयी किताब को रातों रात खरीद कर बेस्टसेलर बना देते है कि उन्हें उस बड़े नाम..बड़े ओहदे से अपने निजी हित साधने हैं। तो कहीं किसी रचना में 'जिसकी जूती..उसी का सर' की तर्ज़ पर फॉरवर्ड होते मैसेज फिर से उसी के इनबॉक्स में पहुँच जाता है जिसने उसे पहले पहल आगे ठेला था।

कही किसी रचना में काल्पनिक ढंग से सोचा जा रहा है कि अगर हमारे नेता फिर से उसी काम..उसी धंधे की तरफ़ लौट जाएँ जहाँ से वे राजनीति में आए थे। तो देश में कितने गुण्डे.. कितने अपराधी..कितने बलात्कारी और जुड़ जाएँगे? कहीं किसी अन्य रचना में ग्रुप फोटो में बिना वर्दी पुलिसवालों के साथ डाकुओं को देख अंदाज़ा लगाना मुश्किल हो रहा है कि उनमें डाकू कौन है और पुलिस वाला कौन?

कहीं किसी व्यंग्य में कल्पना की जा रही है कि आज अगर महात्मा गाँधी ज़िंदा होते तो उनकी क्या हालत होती। कहीं किसी अन्य व्यंग्य में कोई कवि, कवि सम्मेलन में ना बुलाए जाने से पीड़ित नज़र आता है कोई बुलाए जाने से त्रस्त नज़र आता है।
कहीं किसी रचना में नयी और पुरानी बम्बई (मुंबई) के बीच आए फ़र्क़ को इस नज़रिए से नापा जा रहा है कि कितना कुछ बदल गया है और कितना कुछ, वैसा का वैसा है। तो कहीं अंत में चलते चलते पाठक जी नाम के मज़ेदार आदमी के कुछ प्रसंगों ने हँसा हँसा कर लोटपोट कर दिया।

धाराप्रवाह शैली में लिखे गए इस मज़ेदार व्यंग्य संग्रह कुछ व्यंग्य तीखी धार लिए दिखे तो कुछ में व्यंग्य की हल्की सी सुगबुगाहट होती सी भी दिखी। कवियों, लेखकों एवं कवि सम्मेलन इत्यादि से जुड़ी कुछ रचनाओं में कुछ बातों की पुनरावृत्ति सी भी होती दिखाई दी। इस संकलन की कुछ रचनाएँ अपनी नई सोच..नए विचार के साथ सहज ही पाठक का ध्यान अपनी तरफ़ आकर्षित करती हैं।

कुछ जगहों पर वर्तनी की छोटी छोटी त्रुटियों के अतिरिक्त एक आध जगह बिना ज़रूरत कोई कोई वाक्य छपा दिखा। इसके साथ ही जायज़ जगहों पर भी नुक्तों का इस्तेमाल ना किया जाना थोड़ा खला।

यूँ तो यह उम्दा व्यंग्य संग्रह मुझे प्रकाशक की तरफ़ से उपहार स्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि बढ़िया क्वालिटी के बढ़िया कागज़ पर छपे इस मज़ेदार व्यंग्य संग्रह को छापा है अद्विक पब्लिकेशन प्रा. लिमिटेड ने और इसका मूल्य रखा गया है मात्र 160/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए बहुत ही जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।