भाग -34
पहले मैंने समझा कि तुम काम पर नई-नई रखी गई हो। लेकिन पहले ही दिन से तुम्हारी चाल-ढाल से लगा कि नहीं, तुम यहां की पुरानी वर्कर हो। मेरा अनुमान सही निकला। तुम कई साल पहले से ही रमानी परिवार का मुख्य हिस्सा बनी हुई थी। रमानी साहब के दूसरे मकान में रह रही थी। लड़का उसे भी चोरी से बेच रहा था, लेकिन ऐन टाइम पर रमानी साहब को पता चल जाने से बच गया था।
उसमें लड़का ही अपनी एक भारतीय महिला मित्र के साथ रहता था। बाद में अमरीकन लड़की के चलते दोनों अलग हो गए थे। लड़के के जाने के बाद तुम उस मकान को संभाले हुई थी। बिजनेस को गति देने के लिए पैसों की जरूरत हुई तो रमानी साहब ने उसे ही बेच दिया था।
रमानी हॉउस आते ही तुम्हें सारे नौकरों का हेड बना दिया गया। और फिर तुम्हारी चीखती सी आवाज से रमानी हाउस गूंजने लगा। रमानी बहनें जी-तोड़ मेहनत कर के बाप के व्यवसाय को फिर से नई ऊंचाई पर ले जा रही थीं। मगर रमानी साहब लड़के का दिया दंश नहीं झेल पाए, और एक बार डायलिसिस के समय ही चल बसे। बाद में पता यह चला कि गलत ग्रुप का ब्लड चढ़ा दिया गया था।
रमानी साहब की मौत पर मैंने सोचा था कि, दो-तीन हफ्ते शोक मनाया जाएगा। तेरहवें दिन तेरहवीं होगी। शोक में ''रमानी हाउस'' महिनों डूबा रहेगा। लड़कियां बाप को बहुत चाहती हैं, तो कम से कम महीनों वह हंसना-बोलना भूल जाएंगी। लेकिन मुझे धक्का लगा कि, ऐसा कुछ नहीं हुआ। पहले दिन इलेक्ट्रिक भट्टी में शवदाह। दूसरे दिन हवन हुआ और फिर सब ऐसे खत्म कि, जैसे कुछ हुआ ही नहीं।
लेकिन समीना इस विषय पर मुझे कुछ कहने का कोई हक नहीं है, क्योंकि मैंने अपने परिवार, मां-बाप के लिए क्या किया, यह सोचते ही शर्मिंदगी महसूस होती है, मन धिक्कारता है कि, मैं इस बारे में किस मुंह से बोल सकता हूँ। समीना मैं लाख जाहिल हूं, लेकिन उम्र के साथ मुझे यह महसूस हो रहा था कि मैं ज़्यादा भावुक होता जा रहा हूं। ऐसा सोचने की वजह यह थी कि, रमानी साहब के दाह संस्कार से लौटकर बार-बार मेरी आंखों में आंसू आ जा रहे थे। मैं समझ नहीं पा रहा था कि, इन कुछ ही महीनों में मेरा उनसे कौन सा रिश्ता जुड़ गया था, और फिर अगले ही कुछ महीनों में तुमसे।
रमानी साहब के जाने के बाद जब एक झटके में रमानी बहनें नौकरों की फौज कम करने लगीं, तो मुझे लगा कि, मुझे अब फिर उसी होटल वाले सज्जन पुरुष के पास जाना पड़ेगा।
भले आदमी ने कहा था कि जरूरत पड़े तो फिर आना। लेकिन होना तो कुछ और था तो रमानी बहनों को मैं और तुम ज़्यादा उपयोगी लगे। हम उन्हें ऑल इन वन लगे। इतने बड़े घर के लिए दर्जन भर नौकरों में से हम-दोनों ही रखे गए।
सबकी छुट्टी के बाद जब हम-दोनों को अगले दिन बुलाया इन बहनों ने, तो तूने चलते वक्त यही कहा था, 'चल, अब हम-दोनों का फाइनल हिसाब होने का है।'
मगर हम-दोनों के अनुमान के विपरीत बहनों ने हमें हमारे कामों के बारे में समझाया। हमारे काम और बढ़ गए थे। हमसे सीधे कहा गया कि कर सकते हो तो बोलो। हमारा काम न सिर्फ पूरा रमानी हाउस संभालना था, बल्कि रमानी साहब के बाद उनके खून-पसीने पर आकार लिए उनके राज्य को और मजबूत करने में दोनों बहनों को पूरा सहयोग करना था।
मगर किस्मत में तो उनके अंतःपुर की अजब-गजब दुनिया देखने, तमाम कर्म-कुकर्म का हिस्सा बनने और फिर.... खैर जब काम बता कर दोनों बहनें चली गईं कहीं, तो तूने एक लीडर, एक नेता की तरह कहा, 'सुनो अब यहां हम-दोनों ही बचे हैं। हम-दोनों ही को पूरा काम-धाम देखना है। काम बहुत है। सांस लेने की भी फुर्सत नहीं मिलेगी।'
मैंने कहा, 'हां, काम तो करना है। सांस ले पाएं या ना ले पाएं। नौकरी करनी है, तो करना ही पड़ेगा। नहीं कर पाऊँगा तो छोड़कर चला जाऊँगा।'
मेरे इतना बोलने पर तूने अपना सुर एकदम से बदला और कहा, 'देख, आदमी भला लग रहा है, तो कह रही हूं, यहां नौकरी करने पर मेहनत जरूर है। लेकिन उतना ही आराम भी है। ये परिवार भी कभी हम-लोगों की ही तरह सड़क पर था, लेकिन मेहनत के साथ-साथ इन्हें किस्मत का भी साथ मिल गया तो आज करोड़ों का व्यवसाय कर रहे हैं। फैक्ट्री में बहुत लोग लगे हुए हैं। अब इस घर को बहनों ने जिस तरह से, जिस विश्वाश से हम पर डाल दिया है, उस विश्वास को हमें तोड़ना नहीं चाहिए। अरे जहां भी जाएंगे, काम तो हर जगह करना ही पड़ेगा ना, फिर यहां रहने में क्या खराबी है।'
मैंने कहा, 'हाँ, कोई खराबी नहीं, यहीं करेंगे काम ।'
असल में समीना तुम्हारी बातों से मुझे सुन्दर हिडिम्बा, उनका सोने का पिंजरा, उसमें से निकलने की कोशिश में जान गंवाने वाली अपनी प्यारी छब्बी और निकलने ही की कोशिश में सुन्दर हिडिम्बा ने पुलिस से मेरी जो निर्मम पिटाई कराई थी, वह याद आ गई थी। उस पिंजरे के लिए छब्बी और मैंने भी वहां रहते हुए ऐसा ही कई बार सोचा था।
लेकिन तुम्हारी बात को नकारने का मेरे पास कोई कारण नहीं था तो उस दिन हम-दोनों, दिन भर जी-तोड़ काम करते रहे, और बातें भी। अपने-अपने बारे में उस दिन पहली बार कुछ ज्यादा खुल कर बातें कीं। मजे की बात यह थी कि, हम-दोनों बहुत बच के बातें कर रहे थे। यह समझ भी रहे थे कि, हम-दोनों ही एक-दूसरे से झूठ बोल रहे हैं। फिर भी हम एक दूसरे की सुने जा रहे थे।
समीना आश्चर्य तो यह कि, परस्पर झूठ बोलने के बावजूद हम-दोनों कुछ ही दिनों में पूरी तरह घुल-मिल गए। जब घुल-मिल गए, तब ज़्यादा सच बोलना शुरू किया। झूठ धीरे-धीरे कम होता गया। सच बढ़ता गया और जल्दी हम-दोनों ने मिलकर रमानी हाउस को बहुत कायदे से संभाल लिया ।
रमानी परिवार के साथ तुम क्योंकि कई वर्षों पहले से ही जुड़ी हुई थी, इसलिए तुम परिवार की बहुत विश्वसनीय थी, उनकी करीब-करीब सारी बातें जानती थी। लेकिन तुम्हारी एक आदत तुम्हें अकसर परेशानी में डाल देती थी। वह थी फेंकने की। पहले तुमने बताया कि तुम रमानी साहब के बहुत कहने पर उनके यहां काम करने के लिए रुकी। नहीं तो तुम अपने होम डिस्ट्रिक लौट जाती।
तुम्हारा शौहर तुम्हें बहुत परेशान करता था, मारता था, इसलिए तुमने खुद तलाक दे दिया था मतलब ''खुला''। लेकिन बाद में एक दिन बातों ही बातों में बोल गई कि बिना तलाक के ही भाग ली थी। उसके बाद अपने पैरों पर खड़े होने के चक्कर में काम की तलाश में रमानी साहब तक पहुंच गई थी। मगर ऊब गई तो घर जाने की तैयारी करने लगी।
लेकिन जिस ताव के साथ घर छोड़ कर निकली थी, उसका ध्यान आते ही तुमने कदम खींच लिए, नहीं गई। तुम्हारा गुरूर सामने आ गया। मेरे विलेन-किंग बनने के सपने को जान कर तुमने जो कहा था, वह हू-ब-हू आज भी याद है। बड़े ताव से तुम बोली थी, 'सुन, तू बड़ा एक्टर बनने की बात करता है, तो ढंग से कोशिश कर, जब ये साला डेढ़ फुटिया, घोड़ी सा हिनहिनाने वाला हीरो बन सकता है, तो तू तो दमदार है, लंबा-चौड़ा है। लगा रह ईमानदारी से, कभी तो बन ही जाएगा।'
जिस समय मुझसे तुम यह बातें कह रही थी, मुझे लगा कि, छब्बी मेरे सामने खड़ी है। मैं बड़े गौर से तुम्हें देख रहा था, तो तुम बोली, 'सुन ऐसे टुकुर-टुकुर खड़ूस की तरह ना देख। एक जवान मर्द जैसे नशीली आँखों से, खा जाने वाली आंखों से सामने खड़ी औरत को देखता है, वैसे ही देख ना। आज से मैं तेरे को एक्टिंग सिखाऊंगी।'
तुम्हारी इस बात पर मैं जोर से हंस कर बोला था, 'तू ऐटिंग न सिखा, सीधे पिक्चर बना। हिरोइन भी तू ही बन। मैं तो विलेन ही बनूंगा। हीरो साले मुझे गधे ही लगते हैं। पूरी पिक्चर में हिरोइन के नखरे उठाते-उठाते, विलेन से लात खाते रहते हैं। आखिर में बस किसी तरह हांफते-हांफते जिता दिए जाते हैं। जब कि विलेन पूरी पिक्चर में छाया रहता है। पूरी पिक्चर में हिरोइन के नखरे नहीं उठाता। बल्कि उसे ही उठाता रहता है। मुझे तो वही अच्छा लगता है। विलेन बन कर पूरी पिक्चर में तेरे को उठाता रहूंगा। अभी खा जाने वाली या नशीली आँखों से तुझे देखने का कोई मतलब है क्या?'
मेरा इतना कहना था कि तुम एकदम भड़क गई। तननाते हुए बोली, 'देखने भर के ही पहाड़ जैसे हो। हम तुम्हारी जगह होते, और कोई औरत ऐसे कहती, तो अब-तक उठा के सर के ऊपर तान देते। अब समझ में आ रहा है कि, इतने दिन यहां पैर रगड़-रगड़ के ऊपर से छह इंच घिस गए, लेकिन कोई पिक्चर क्यों नहीं छू पाए।'
तुम्हारा इस तरह ताना मारना मुझे बहुत बुरा लगा। बड़ी गुस्सा आई। सोचा ये तो ऐसे ताना मार रही जैसे मेरी पत्नी हो। छब्बी तो पत्नी से बढ़ कर थी, मगर उस बेचारी ने कभी भी इस झूठी, फेंकू की तरह इतना अपमानित नहीं किया था। कभी ऐसे ताना नहीं मारा था। गुस्सा एकदम मेरे सिर पर सवार हो गया था । पुरबिया स्वभाव एकदम उबाल खा गया।
मैंने कहा, 'सुन दुबारा ऐसे ताने मत मारना। मैं एड़िया घिस-घिस कर ऊपर से छह इंच छोटा हो गया हूँ तो तू कौन सा इस शहर में लोगों को घिस-घिस कर ऊपर से छह इंच लंबी हो गई है। जा अपने काम से काम रख। फिर कभी मेरे रास्ते में मत आना, समझी।'