वह अब भी वहीं है - 32 Pradeep Shrivastava द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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वह अब भी वहीं है - 32

भाग -32

मैं कोशिश कर रहा था कि, मेरी आँखें एकदम सूख जाएं। एकदम पथरीली हो जाएँ, लेकिन जितना पोंछता वह उतना ही फिर भर आतीं। मुझे मौत के नाम के साथ-साथ इतनी विवशताभरी स्थिति पर रुलाई आ रही थी कि, मेरी सुनने वाला कोई नहीं है। छब्बी जिसे मैं पत्नी ही मानता था। अगर पत्नी ना सही तो कम से कम उसे जीवन साथी मान कर तो चल ही रहा था, वह मर गई। उसे मैं आखिरी बार देख तक नहीं पाया। देखने ही नहीं दिया गया। उसका अंतिम संस्कार कहां होगा? कैसे होगा? कौन करेगा? होगा भी या ऐसे ही कहीं फेंक दिया जाएगा? ये कैसा कानून है?

जिसके पास ताकत है, यह कानून उसी के लिए एक और क्रूर ताकत बन, उसके हर गलत काम को सही करता, उसी का पिछलग्गू बन जाता है। मेरी तरह रोज ना जाने कितने निरीह-निर्दोष लोग ऐसे ही विवशतापूर्ण मौत का शिकार बनते होंगे। वाह रे अपना देश। वाह रे कानून। ऐसे ही जब देखो तब, बड़वापुर में अतिक्रमण के नाम पर बिना सूचना के दुकानें तोड़ दिया करते थे। हद है अपने देश की व्यवस्था।

मास्टर साहब स्कूल में मानवता, ईमानदारी, नैतिकता का बड़ा राग अलापते थे। बड़ा विवेकानंद की शिक्षा देते थे। ये हाल देखते तो शायद वो भी मेरी तरह गरियाते, कोसते, थूकते ऐसी व्यवस्था पर। मैं तो खैर कोस ही रहा था। सिर पीट रहा था अपना, कि मैंने और छब्बी ने साहब और सुन्दर हिडिम्बा की इतनी सेवा की ही क्यों? कितना गलत सोचते थे हम-दोनों कि जी-तोड़ मेहनत करेंगे तो सुन्दर हिडिम्बा खुश होकर हम-लोगों के भविष्य के लिए के कुछ बढ़िया कर देंगी। जब इसने कभी सांस तक नहीं ली हमारे भविष्य के लिए तो हमने खुद कदम बढ़ाए तो इसको यह भी फूटी आंखों नहीं सुहाया। टांग अड़ा दी।

इस बद्दजात को लगा होगा कि हमने उसके सारे राज जान लिए हैं। इसीलिए जिंदा नहीं छोड़ना चाह रही। समीना उस समय यह सारी बातें सोच-सोच कर मुझे गुस्सा आ रही थी। मैंने भगवान से प्रार्थना की, कि हे भगवान किसी तरह एक बार यहां से जिंदा निकाल दो। मैं उस सुन्दर हिडिम्बा की एक बार ऐसी मालिश कर दूं कि, उसका सारा दर्द हमेशा के लिए उसकी जान सहित निकल जाए। फ़िल्म में तो रेप, मर्डर की ऐक्टिंग की थी। इसके साथ सच में कर दूं। फ़िल्म के लिए की गई रिहर्सल यहां काम आ जाएगी।

सुन्दर हिडिम्बा को पता चल जाएगा कि, किसी को परेशान करने, उसकी जान लेने का परिणाम क्या होता है। यह इच्छा पूरी हो जाये तो मुझे ऐसे विवश होकर मरने की कोई परवाह नहीं। तब कम से कम यह संतोष तो रहेगा कि, मैंने किसी को मारा इसलिए मुझे मौत की सजा मिली। तब मुझे अपनी निश्चित मौत की कोई चिंता, कोई दुख नहीं होगा। एक बार भी इस बात को लेकर आँखों में आंसू नहीं आने दूँगा कि, मेरे रहते हुए भी मेरी छब्बी को मार कर लावारिस ही कहीं फिंकवा दिया गया। बस भगवान एक बार यहां से छुड़ा दे। अपने मन की कर लेने भर का समय दे दे बस। लेकिन समीना कई और घंटे निकल गए, मगर कुछ नहीं हुआ। इस बीच और कई लाये गए। जिन्हें इन सरकारी लठैतों ने खूब लठियाया था। कुछ तो घंटे भर में चले गए। जबकि तीन को मेरे पास लॉक-अप में ही तोड़-कूंच कर तड़पने के लिए डाल दिया। मैं समझ ही नहीं पा रहा था कि, आखिर हो क्या रहा है, और मेरा कब क्या होगा ?

अंतहीन सी प्रतीक्षा करते-करते रात ग्यारह बजे होंगे कि, थाने में फिर महिला-पुरुषों की तेज़ बातें सुनाई देने लगीं। महिला बातों से बड़ी हिम्मती लग रही थी। पुलिस वालों से बराबर बहस किए जा रही थी। उसकी बातों, भाषा से साफ लग रहा था कि वह ठीक-ठाक पढ़ी-लिखी समझदार महिला है। जब वह और अंदर लाई गई तो मुझे दिखाई दी। सलवार-सूट में वह अच्छी-खासी आकर्षक लगभग बत्तीस-चौंतीस की रही होगी। देखने से नौकरी-पेशा लग रही थी।

अंदर आने के कुछ देर बाद ही एक महिला सिपाही ने उसे दो-तीन थप्पड़ खींचकर मारे। बाल पकड़ कर खींचे। वह महिला फिर भी चुप नहीं हुई। अपनी बात कहती रही। बार-बार फोन पर किसी से बात करने के लिए कह रही थी। मगर वहां किसी की सुनने वाला कौन था? महिला ने एक बार सिपाही के हाथ पकड़ लिए तो वह महिला सिपाही पूरा जोर लगा कर भी नहीं छुड़ा पाई। इस पर उसने महिला को जोर-जोर से बेहद गंदी गालियां देनी शुरू की, साथ ही वहीं खड़े अपने सहकर्मियों की ओर देखा, उसका देखना था कि वह सब उसकी मदद को आ गए।

महिला सिपाही को छुड़ाने की उनकी कोशिशों के चलते महिला का सिर किसी तरह सिपाही की नाक से लग गया। इससे उसकी नाक से हल्का खून आ गया। बस इसके बाद तो महिला कैदी पर जैसे पूरे थाने का क्रोध टूट पड़ा। कैदी महिला को जमीन पर गिरा दिया गया। उसके दोनों पैर ऊपर कर पकड़ लिए गए। फिर उसके पैरों के तलुओं पर लाठियां तड़ातड़ टूटने लगीं।

उसकी चीख भी थाने में ही घुट कर रह जाए, इसके लिए उसके मुंह में उसी का दुपट्टा ठूंस कर बांध दिया गया। उसकी घूं-घूं की आवाज ही सुनाई दे रही थी। मगर वह महिला भी गजब जीवट की और ताकतवर थी। उसके जोर-दार झटके से एक के हाथ से पैर ना सिर्फ छूट गया, बल्कि उसे चोट भी लगी। अब सब का गुस्सा और बढ़ गया।

समीना फिर मैंने वहां वह देखा, जिसके बारे में पहले सिर्फ सुना करता था कि थाने में पुलिस जब थर्ड डिग्री का प्रयोग कर, स्त्री या पुरुष को जब पीटती है तो चट्टानें भी चीख उठती हैं, उनके भी आंसू निकल आते हैं। कैदी महिला को दो मर्द पुलिस वालों ने एक पिलर से सटाकर पकड़ लिया। एक हाथ एक आदमी और दूसरा हाथ दूसरा आदमी पूरा ज़ोर लगाकर अपनी तरफ खींचे रहा। कैदी का चेहरा पिलर से सटा था, मानों वह पिलर का चुंबन ले रही हो।

महिला सिपाही ने उसकी सलवार खोल कर नीचे गिरा दी। फिर तीसरे सिपाही ने दोनों हाथों से लाठी पकड़ कर उसके नितंबों पर पूरी ताकत से मारनी शुरू कर दी। इतनी तेज़ कि नितंब पर हर लाठी की चोट के गहरे लाल निशान पड़ते जा रहे थे, खून छलछला आ रहा था।

पुलिस की इस थर्ड डिग्री-पिटाई के बारे में मैंने बड़वापुर में भी सुना था, इस तरह मार खाने वाला, इसके बाद महीनों तक ना बैठ सकता है, ना सीधा लेट सकता है, खड़ा भी नहीं रह सकता। केवल मुंह के बल लेट सकता है।

यहां मैं वही देख रहा था। भली सी लग रही महिला के नितंबों पर लाठियां चट्टाक-चट्टाक पड़ रही थीं। उसकी घूँ-घूँ की आवाज़ आ रही थी।आँखें ऐसी लग रही थीं, जैसे फट कर बाहर आ जाएंगी, उनसे खून सा बरस रहा था। कम से कम बीस लाठियां मारने के बाद जब उन सब ने देखा कि, वहां की पूरी चमड़ी ही उधड़ जाएगी, तो पिलर से अलग कर उसके ऊपरी कपड़े भी उतारे गए, और उसे सीधा कर रबर की एक चप्पल से स्तनों पर पूरी ताकत से चपाक-चपाक पीटा। महिला तड़पती-छटपटाती रही। लेकिन उन दरिदों का गुस्सा इससे भी शांत नहीं हुआ।

महिला सिपाही ने एक कपड़े के टुकड़े में कुछ लगाया और उसे कैदी महिला के शरीर के निचले हिस्से में अंदर कर, छोड़ दिया उसे तड़पने के लिए। वह वहीं फर्श पर ऐसे छटपटाती रही जैसे मुर्गे की गर्दन काट कर फर्श पर डाल दिया गया हो। बड़े जीवट की वह मजबूत महिला भी इस यातना को दस मिनट से ज़्यादा नहीं बर्दाश्त कर पाई। बेहोश हो गई। वहीं फर्श पर बिना कपड़ों के पड़ी रही। उसके नितम्बों के आस-पास की फर्श उसके खून से लाल हो गई थी। महिला पुलिस ने करीब बीस-पच्चीस मिनट के बाद उसके कपड़े उठा कर उसी पर डाल दिए। जिससे उसका शरीर कुछ हद तक ढक गया।

इसी बीच चपरासी बाहर से कुछ ले आया। सब खाने-पीने हंसी-ठिठोली में लग गए। इस ठिठोली में खींचा-तानी, चूमा-चाटी, पकड़ना, दबाना सब चल रहा था। मगर फर्श पर बेहोश, निर्वस्त्र पड़ी उस महिला या मार तोड़ कर डाले गए अन्य निर्दोष लोगों के लिए कोई संवेदना, मानवता वहां कुछ नहीं दिखाई दे रही थी।

उस महिला की यातना के आगे मैं अपना दर्द भूल गया। सोचा आखिर इस अभागन ने ऐसा कौन सा अपराध कर दिया है, कि ऐसी दरिंदगी से उसे पीटा। रात तीन बजे होंगे कि, मुझे लॉक-अप से निकाल कर थाने के बरामदे में खड़ा कर दिया गया। दो कांस्टेबिल मेरे पास खड़े थे। मेरी हालत फांसी के फंदे की तरफ बढ़ रहे कैदी सी हो रही थी। मुझे बस कुछ देर में अपने होने वाले एनकाउंटर का दृश्य दिख रहा था। मैं संज्ञा-शून्य सा हो रहा था।

करीब बीस मिनट के बाद थानेदार बाहर निकला और मुझे मां-बहन की गाली देते हुए चीखा, 'भगाओ साले को, दुबारा दिख जाए तो भेजा निकाल देना बाहर। साला नेता बनने चला है। हीरो बनेगा.... फिर कई गालियां। उसके आदेश का तुरंत पालन हुआ। दोनों ने दो-चार घूंसे, थप्पड़, लात और मार कर भगा दिया। थाने से निकलते ही मैं जितनी तेज़ वहां से भाग सकता था भाग लिया। लंगड़ाते हुए ही सही मैं काफी तेज़ चल रहा था। किधर जा रहा हूं यह भी ध्यान नहीं था।

थाने से दूर जा रहा हूं बस यही ध्यान था। इतनी मार के बावजूद मैं मौत के भय से चलता ही जा रहा था, और जब रुका तो सवेरा हो चुका था। एक सड़क किनारे मैं अंततः थक कर, चूर हो बैठ गया। समीना बैठा नहीं, बल्कि ये कहूं कि गिर गया। प्यास से गला सूख रहा था, भूख से आंतें ऐंठ रही थीं। जेब में एक पाई नहीं थी। मार इतनी पड़ी थी कि अगले दो-तीन दिन मजदूरी या कोई भी काम करने लायक नहीं रह गया था। इतना पस्त था कि बैठ भी नहीं पाया और वहीं लेट गया, सड़क पर। रात भर का जागा था फिर भी दर्द के मारे सो नहीं पा रहा था। आँखें बंद किये पड़ा रहा ।

मगर जल्दी ही मेरी आँखें मंदिर के घंटे की तेज़ आवाज से खुल गईं। धूप की गर्मी भी लग रही थी, सूरज अच्छा-खासा चढ़ चुका था। किरणें सीधे आंखों पर पड़ने से आंखें चुधियां रही थीं। मंदिर की तरफ निगाह डाली, तो वह मुझसे मुश्किल से पचास कदम की दूरी पर था। एक छोटे से मंदिर में पूजा हो रही थी। वहीं से घंटे की आवाज आ रही थी। मुझे लगा कि वहीं चलूं। वहां छाया मिल जाएगी। और साथ ही जीने का कोई रास्ता भी। नहीं तो भगवान के दरवाजे ही जान निकल जाए तो ही अच्छा है।