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ऑफ़िस - ऑफ़िस - 4

लेकिन अक्सर लोग अपनी पत्नी के साथ बहुत लंबी बात नहीं करते, शॉर्ट में ही निपटा देते हैं, उसने भी वैसा ही किया।
"यार सब्ज़ी लेकर आने को बोल रही थी..."
उसने बैल बजायी और चपरासी को बुलाया और उससे कहा "तू एक काम कर फ़टाफ़ट जा कर एक किलो मटर ले आ.... और बाहर से मैडम को अंदर भेज दे, गप्पे ही मार रहे हैं बैठ कर, तो अच्छा नहीं लगता वो बाहर अकेली बैठी रहें, और जा तू मटर लेकर जल्दी आ "

"गप्पे मार रहे हैं !" मैं बड़ा हैरान था कितना शातिर चालाक बंदा है ये ।
मैं अपनी कोई बात करुं इससे पहले ही वोही चाय वाली मैडम कमरे में आ गईं और कुर्सी खींच कर बैठ गयीं।

उन मैडम के बैठते ही उसने उसकी तरफ़ मुंह करते हुए कहा "घर से मैडम का फ़ोन था, सब्ज़ी लाने को बोला, तो मैंने एक किलो मटर मंगवा लिये, मैं सोचा साथ में गप्पे मारते जायेंगे और साथ साथ मटर छीलते जायेंगे, घर जा कर भी तो मुझे ही छीलने हैं तो क्यों ना यहीं सब मिल कर छिल लें, ये भी हैं तो जल्दी छिले जायेंगे" उसने मेरी तरफ़ इशारा करते हुए कहा।
मतलब अब मुझे मटर छीलने पड़ेंगे ! मैं मन ही मन सोच रहा था अर्ज़ी गयी भाड़ में, यहां से भाग जाऊं।
लेकिन तभी वो चपरासी मटर लेकर कमरे में दाखिल हुआ।
"अरे ला भई, तू भी इनके साथ बैठ जा और ये मटर के चार हिस्से कर लेते हैं, सभी 250/250 ग्राम छील लेंगे।"
उसने बगैर मेरी तरफ़ देखे एक हिस्सा मेरी तरफ़ सरका दिया। मैंने देखा मेरा हिस्सा ढाईसो की जगह 300 ग्राम ही था और उस मैडम का हिस्सा करीब 200 ग्राम।

"यार ये सब्ज़ी का बड़ा पंगा होता है, जो भी ले जाओ मैडम का मुंह चढ़ जाता है, बोलती है ये क्या उठा लाये, कौन खायेगा, आप ही खाना। खुद चाहे जो उठा लाये, वो हमको खाना ही पड़ेगा। अभी दो दिन पहले कद्दू पेठा ले गया देखते ही मुंह सिकोड़ लिया और हद ये कि दो दिन से वही सब्ज़ी मेरे टिफ़िन में भर भर के दे रही है"
फ़िर उस मैडम की तरफ़ देखते हुए बड़े ही प्यार से बोले "ये तो अच्छी हैं जो रोज़ मेरे लिये भी कुछ ना कुछ बना कर ले आती हैं"
"सर आपतो मुझे शर्मिंदा कर रहे हैं" उसने शर्मा कर गर्दन नीचे करते हुए कहा।
मैं मन ही मन सोचने लगा "आप क्यों शर्मिंदा हो रही हैं, शर्मिंदा तो मैं हो रहा हूं कि मैं इसकी कुर्सी पर क्यों नहीं हूं ? सरकारी तनख्वाह और साथ में ये मज़े !"
"यार क्या तुम्हारे घर कोई पंगा नहीं होता सब्ज़ी को लेकर ?" उसने मुझे सवाल किया।
"जी होता था पहले" मैंने मटर छीलते हुए कहा "लेकिन अब मैं रविवार के दिन उसे आज़ादपुर मंडी साथ में ही ले जाता हूँ और दोनों की सहमति से सब्ज़ी ले आते हैं, पूरे हफ़्ते की सब्ज़ी एक साथ, थोड़ा रेट में भी फ़र्क पड़ जाता है।" मैंने मटर के दानों को उसकी थैली में डालते हुए कहा।
"अरे यार आइडिया तो अच्छा है"
फ़िर उसने कुछ सोचते हुए कहा "अज़ादपुर मंडी ! तो तुम रहते कहां हो ?"
"जी विकासपुरी" मैंने जवाब दिया तो वो उछल पड़ा।
"हद कर दी यार तुम तो मेरे पड़ोसी निकले, मैं जनकपुरी में रहता हूं, अभी थोड़े महीनों पहले ही शिफ़्ट हुआ हूं, पहले द्वारका रहता था, वो बड़ा दूर पड़ता था।" उसने अजीब सा मुंह बनाते हुए कहा ।
फ़िर पता नहीं उसे क्या सूझी, चपरासी की तरफ़ देखता हुआ बोला "तू एक मिनट खड़ा हो"
चपरासी चौंकता हुआ खड़ा हुआ तो उसने कहा "टेबल पर ये जो अर्ज़ी पड़ी है उसे लपेट कर इनकी जेब में डाल"
चपरासी ने वो अर्ज़ी उठाई और उसे तय कर के मेरी जेब में डालने आया तो मैं दबी आवाज़ में बोला "लेकिन सर......"
"ना....अब तुम कुछ भी नहीं बोलोगे" उसने ऐसे अंदाज़ में बोला जैसे भर पेट खाना खाने के बाद मैंने कहा हो "बस अब और कुछ नहीं चाहिये" और वो जबर्दस्ती रसमलाई मेरी प्लेट में डालता हुआ कह रहा हो "ना...ये तो लेना ही पड़ेगा, अब तुम कुछ भी नहीं बोलोगे"

तब तक चपरासी भी जबर्दस्ती उस अर्ज़ी को मेरी
जेब में डाल चुका था।

थोड़ा रुक कर वो फ़िर बोला "यार किसी दिन भाभीजी को लेकर आओ घर पर"
"जी ज़रूर पहले आप आइये" मैंने भी उसे निमंत्रण दे डाला।

"और अब तू जा सब के लिए चाय ले आ" चपरासी की तरफ़ देखते हुए उसने कहा "हमारे पड़ोसी हैं, बगैर चाय के कैसे जाने दे सकते हैं"

जब तक वो चाय लेकर आया मेरे मटर छिल चुके थे। सभी ने साथ बैठ कर चाय पी, चाय ख़तम होते ही उसने बोला "मिलते हैं, मैं आता हूँ मैडम को लेकर तुम्हारे घर और हां मैं भी अब से रविवार उसे साथ में ले जा कर अज़ादपुर मंडी से ही सब्ज़ी लाऊंगा, वो भी पूरे हफ़्ते की एक साथ, तांकि रोज़ रोज़ कद्दू पेठा न खाना पड़े"
उसने कागज़ के एक पुर्ज़े पर मेरा पता लिखा और खुद ही खड़ा हो कर बोला "मिलते हैं"

और मैं घौंचु "जी" कह कर उससे हाथ मिला कर ये सोचता हुआ बाहर निकल आया कि क्या तरकीबी आदमी है, अर्ज़ी भी नहीं ली और मुझसे मटर छिलवाये वो अलग ।

साली अर्ज़ी पर शुरू हुई बात सब्ज़ी पर ख़तम हो गयी।
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