ऑफ़िस - ऑफ़िस - 2 R.KapOOr द्वारा हास्य कथाएं में हिंदी पीडीएफ

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ऑफ़िस - ऑफ़िस - 2

मेरे पास पहुंचते ही उसने अपने पांव के पास पड़ा पीकदान उठाया और एक पिचकारी दे मारी उसमें और वापस पीकदान को अपने पांव के पास रख दिया। मुझे बाहर चपरासी के कहे शब्द याद आ गये "साहब बड़े ही कड़क हैं उनके सामने मुंह में कुछ ठूंस के जाना....

तभी मेरी नज़र उसके ठीक पीछे दीवार से चिपके एक स्टिकर पर पड़ी, जिसपर लिखा था...
"अपने आसपास सफ़ाई बनाये रखने की आदत ही हमें अपने शहर को स्वच्छ बनाये रखने के लिये प्रेरित करती है"
जी में आया कि उसे अपने पीछे लगे स्टिकर की याद दिलाऊं मग़र मैं चुप रहा।

मुझे लग रहा था उसकी पीक से निकल कर कीटाणु मुझ पर हमला करने के लिये मेरी तरफ़ दौड़े चले आ रहे हैं । दिल में आया कि वो कीटाणु मुझ तक पहुंचे उससे पहले ही मैं वहां से भाग जाऊं। शायद अंदर आते ही जिस गंध को मैंने महसूस किया था वो यहीं से आ रही थी।
"हां बोलिये कैसे आना हुआ ?" जैसे किसीने सड़क पर पड़े कचरे को साइड में फुटपाथ पर कर दिया हो, अपने मुंह में भरे कचरे को एक तरफ़ सरकाते हुए, वो बड़ी मुश्किल से बोला ।

वो जितना भारी भरकम था उसकी आवाज़ उतनी ही दुबली पतली थी, उसे सुनने के बाद लगता नहीं था कि यही बोल रहा है । ऐसा लगता था जैसे आवाज़ को डब किया गया हो।
"जी एक अर्ज़ी देनी थी" मैं शिष्टाचार से बोला ।
इतना कहना था कि उसने ऊपर से लेकर नीचे तक अपनी आंखों से मेरा एक्सरे कर लिया।
उसके इस तरह देखने से मुझे महसूस होने लगा कि कहीं मैंने कोई गलत बात तो नहीं कह दी ! लेकिन सामने वाले पर प्रेशर बनाने की उसकी ये अदा मुझे अच्छी लगी ।
"बैठो" फ़िर वो अपनी दुबली पतली आवाज़ में बोला ।
मैंने कुर्सी खींची और बैठ गया।

कुर्सी पर बैठने के बाद कुछ देर तो मैं उसे देखता रहा, मगर उसकी गर्दन थी कि ऊपर होने का नाम ही नहीं ले रही थी। ख़ैर कुछ देर बाद ही सही उसने गर्दन ऊपर की और मेरी तरफ़ देख कर बोला
"हां बोलो क्या कह रहे थे तुम ?"
मैं बोला "जी ये अर्ज़ी देनी है"
"कैसी अर्ज़ी ?" एक तो वो जब भी बोलता तो मुझे भरम ये होता था कि कोई और बोल रहा है...पर अब मैं अपने मन को विश्वास दिलाने की कोशिश कर रहा था कि ये वही व्यक्ति की आवाज़ है जो मेरे सामने बैठा है।
"जी घर सड़क के पास ही है और सड़क में बड़े बड़े गड्ढे हो गये हैं, बारिश आयेगी तो बड़ी दिक्कत हो जायेगी" उससे आग्रह वाले स्वर में बात करते हुए मैंने अर्ज़ी उसकी तरफ़ बढ़ा दी ।
उसने अनमने ढंग से अर्ज़ी मेरे हाथ से लेकर उस पर नज़र डाली और तपाक से बोला "ये क्या है ?"
अभी मैं उत्तर देने के लिये मुंह खोलने ही जा रहा था कि उसके मोबाईल की रिंग बजी "आजा शाम होने आयी, मौसम ने ली अंगड़ाई, तो किस बात की है लड़ाई, तू चल मैं आयी...." पूरी रिंग बजने के बाद उसने मोबाईल उठाया...

क्रमशः .........

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