कबीरदासजी किसी विश्वविद्यालय में नहीं गए थे. लेकिन उनके ज्ञान के बारे में किसी को संदेह नहीं है. अपने अनुभव को उन्होंने काफी सुंदर तरीके से नपे-तुले शब्दों में बयान किया है. इसका कारण क्या रहा होगा? यह विचारणीय है. उन्होंने अपने मस्तिष्क में ‘कबाड़’ को जमने नहीं दिया होगा. हमेशा सफाई की होगी. बात भी सही है. ‘कबाड़’ की सफाई होती ही रहनी चाहिए. ‘कबाड़’ घर में हो या दिमाग में – नियमित सफाई से ही बात बनती है. मनुष्य के पास सबसे खतरनाक उसकी बुद्धि होती है. बुद्धि के साथ-साथ विवेक का होना आवश्यक है. लेकिन विवेकी मनुष्य का मिलना आज के समय में मिलना दुर्लभ है. कबाड़ की सफाई से कभी-कभी मूल्यवान वस्तु भी प्राप्त हो जाती है. उस वक्त काफी ख़ुशी होती है. वैसे बहुत-से महानुभावों को ‘कबाड़’ जमा करने का शौक भी होता है. जब उनका स्थानान्तरण होता है तो आवश्यक सामानों से अधिक ‘कबाड़’ ही देखा गया है. नुमाइश भी वे ‘कबाड़’ का ही करते हैं. मनुष्य इस बात को भूल जाता है कि कबाड़ बेमतलब का स्थान ही लेता है. उस स्थान पर कुछ नयी वस्तु भी रखी जा सकती है. कबाड़ ही यदि हम जमा करने लगेंगे तो अविष्कार के लिए समय कैसे निकाल सकेंगे. एक सज्जन अपने घर में पुराने रेडियो, टीवी सेट आदि दिखाकर काफी प्रसन्नता व्यक्त कर रहे थे. ऐसा लगा कि उन्होंने संग्रहालय खोल रखा है.
बुद्धि की तेज आंधी में मनुष्य असहाय होकर उड़ते रहता है. वह क्या कर रहा है – इसका पता नहीं चलता है. इससे बचने का एक ही उपाय है – अज्ञानी बनकर इस संसार में रहा जाए. अज्ञानी बनकर रहने में नुकसान होने की संभावना कम है. एक स्थान पर एक व्यक्ति 12 वर्षों से कार्यरत है. अवकाश के लिए आवेदन किसे देना है – यह पता ही नहीं है. वह अपने सहकर्मियों से पूछता है – आकस्मिक अवकाश के लिए आवेदन कहाँ देना है? अब दिमाग की बत्ती तो इस प्रश्न से बुझ ही जायेगी. जिससे यह प्रश्न पूछा गया है – उसे पता ही नहीं चलता है कि क्या उत्तर दिया जाए? सिवा इसके उस व्यक्ति को विभागाध्यक्ष के पास भेज दिया जाए. अज्ञानता का यह एक सटीक उदाहरण है. इस कदर अपने को प्रस्तुत करना कि सामनेवाले को दांत पीसने के अलावे और कोई काम नहीं रहे. हमारा स्वविवेक कहीं किसी ओट में जाकर छिप गया है. क्या करना चाहिए – कौन-सी बात पूछने लायक है – इसका ध्यान भी नहीं रह गया है. बस अज्ञानता व्यक्त करना ही एकमात्र कार्य रह गया है.
इस समाज में मिलते-जुलते अथवा विरुद्ध विचारों वाले भी एक साथ रहते पाए गए हैं. श्रीराम-लक्ष्मण के विचारों में काफी भिन्नता थी. लेकिन दोनों भाई सुख-दुःख में साथ रहे. जितने व्यक्तियों की भीड़ दिखायी देती है – उतनी ही भीड़ विचारों तथा सपनों की भी होती है. सपने तो सपने ही होते हैं. यथार्थ में उतारने के लिए तो कठिन मेहनत करनी होती है. व्यापारी दिन-रात लक्ष्मी के बारे में सोचता रहता है. पूजन भी वह लक्ष्मी-गणेश का करता है. धनलिप्सा उसे होती है. इसीलिए धन कमाने के पहले वह शुरुआत में ही श्रीगणेश की पूजा कर लेता है. नहीं तो लक्ष्मी-गणेश में तो कोई संबंध ही नजर नहीं आता है. व्यापारी अपने बच्चों को भी धन के बारे में ही सोचने के लिए कहता है. व्यापारी के अनुसार जो सोचेंगे – वही बनेंगे.