औघड़ किस्से और कविताएँ-सन्त हरिओम तीर्थ 15
एक अजनबी जो अपना सा लगा
परम पूज्य स्वामी हरिओम तीर्थ जी महाराज
सम्पादक रामगोपाल भावुक
सम्पर्क- कमलेश्वर कॉलोनी (डबरा) भवभूतिनगर
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महाराज जी की कलम समय-समय पर विभिन्न विषयों पर चलती रही है। चाहे नारी के जीवन पर उनकी पीड़ा हो ,चाहे अकाल की विभीषिका का चित्रण करना हो, वे हर विषय में तन्मय होकर उसकी तह तक पहुँच कर ही रहते हैं। उस विषय का कोना-कोना आपको बोलते बतियाते दिखाई देगा।
विभीषिका
अकाल। जीवन की तवाही के गर्त में ढकेल देने का कू्ररतम पैगाम। वैसे भी प्रकृति हर वर्ष गिरगिट की तरह विविध रंगों में रूप बदल-बदल कर, ताण्डव नृत्य करती रहती है लेकिन बीसवी शताव्दी का सबसे भयंकर प्राकृतिक प्रकोप सन्1979 में हुआ। जिसने अधिकाँश राज्यों में लाखों लोगों का सर्वस्व लील डाला। करोड़ों रुपये की सम्पति स्वाहा हो गई।
तारे और........ विजली। फिर वही खुला आकाश। न जाने इस वर्ष प्रकृति क्या करने वाली थी। लगता था कि...... चारों तरफ त्राहि-त्राहि मचने वाली है। देखते-देखते काले वादल आकाश में विलीन हो जाते थे, पानी का दूर-दूर तक नामो निशान न भी था। अभी तो पूरा का पूरा साल सामने पड़ा था। सारा मौसम यूँ ही बीत गया, लेकिन अम्बर में छाते काले मेघ बिना धरती की प्यास बुझाये यूँ ही गरजते रहे और खिसकते रहे। करोड़ों रुपये की फसलें देखते- देखते नष्ट होगईं। इस आकस्मिक आई प्रकृतिक विपदा में एक वार तो राष्ट्रिय प्रगति का चक्का ही जाम कर डाला।
कोई नहीं जानता था कि प्रकृति का यह रूप कँपा देने वाला, जीता जागता नाटक इस साल पूरे देश को अपने जबड़ों में दबोच लेगा। अकाल की विभीषिका से परिचित प्रबुद्ध लोग स्वयं देख सकते थे कि किस कदर मौत अपने साम्राज्य का विस्तार करने की लालसा में इन्सान और इन्सानियत को लील लेने के लिये उन्मत हो रही थी। लगता था , पता नहीं कब मानवीय व्यवस्था काल के क्रूर पंजों में कसकर चकनाचूर हो जावे।
यूँ तो हर वर्ष कहीं न कहीं अकाल के कदम पड़ते ही रहते हैं किन्तु इस भीषण अकाल ने तो आग में घी डालने जैसा काम किया है। जहाँ देखो वहीं अकाल से पीड़ित अर्धनग्न शरीर, चिथड़ों में लिपटीं अवलायें, चीखते चिल्लाते मासूम बच्चे और भूख- प्यास से तडप कर मरते पशुओं के पिंजर ही पिंजर नजर आते थे। कल तक घर के आँगन में ठुमक-ठुमक कर चलने वाली भोली-भाली बालिकाओं को आज, राह की भिखारिन बनी, दर दर की खाक छानते देखकर किसका हृदय नहीं रोयेगा? इस दृश्य को देखकर तो पत्थर की मूर्ति के भी आँसू टपक पड़ेंगे।
धरती से उठती हुई मरीचिका, आने वाले भविष्य की कठिन परिस्थितियों की ओर इंगित कर रही थी। सूखी नदी नाले, पोखर और ताल, और ठूठ से खड़े पहाड़, आज हमारी प्रगति का कच्चा चिट्ठा उजागर करने पर तुले थे। जगह-जगह से फटी हुई इन लम्वी-लम्वी दरारों से छत-विछत घरती माँ, चीख-चीख कर पूछ रही थी- क्या यही है प्रगति का वह मानचित्र, जिसमें आज तक हर वर्ष देश के गरीब मजदूरों के गाढ़े पसीने से वसूले गये करोड़ों रुपये खर्च किये गये हैं? कहाँ गये इस मुल्क के रहनुमा जो बार बार मानवाधिकार की बात कह कर मन चाही मुराद पूरी करने का देने आते थे? क्या देश का सरकारी तंत्र भी आज निकम्मा, स्वार्थी और विफल नहीं रहा? जरा नेतागण और इस देश के प्रशासक अपने स्वार्थ और अर्कण्यता की गिरफ्त से बाहर निकल कर देखें और सोचें कि इस अकाल नें भविष्य के गर्भ में कितनी भयंकर और भयावह तस्वीर अंकित की है जिसमें अगणित नर-नारियों और मासूम बच्चों के मुर्दा और जिन्दा कंकाल, जगह-जगह लूटमार, अग्नि काण्ड, भृष्टाचार, साम्प्रदायिक दंगे, बलात्कार, हिंसक बारदातें और रोटी के टुकड़े के लिये जगह-जगह अपना तन बेचती, इस देश की मातायें -बहिनें और बेटियाँ, जैसे अनेकों जधन्य कलंक छुपे हैं। क्या कोई राष्ट्रिय नेता या धर्मान्ध प्रचारक इन भटकते फिरते नर कंकालों को पहचान कर बताने का दावा कर सकता है कि यह किस राजनैतिक दल या सम्प्रदाय विशेष के हैं? लेकिन नहीं। क्यों कि उनका विषय तो कुछ और ही रहा है। जिस दिन वह इसको पहचानने का दावा कर सकेंगे उससे पहिले तो शायद उभय पक्ष ही बदल चुका होगा।
कहने के लिये आज तक , हर साल कहीं न कहीं पड़ते अकाल और वहाँ के पीड़ित इलाके वासियों की स्थिति सुधारने के नाम पर इस देश का शासन वेशुमार धन खर्च करता आ रहा है। लेकिन सिवाय सरकारी फायलों में लगी रिपोर्टों के अलावा वास्विक प्रगति के नाम पर हर ओर शून्य ही नजर आता है।
एक तरफ साक्षात चलता-फिरता, इस धरती का नारायण भूख से विलखता हुआ अर्धनग्न ,लक्ष्मी के लिये दर-दर की ठोकरें खाने लग रहा है और उधर, इस देश के धर्मान्ध मजहबी नेता धर्म- प्रसार के नाम पर नित्य नये-नये अखाड़ों को जन्म देने में होड़ लगाये हुये हैं। जब पूजा करने वाला भक्त ही भूख से तड़प-तड़प कर अपने प्राण तज देगा तो इन करोड़ों रुपये से निर्मित पूजाघरों और स्वयंसिद्ध भगवानों की अट्टालिकाओं का क्या बनेगा। एक ओर साक्षात् ईश्वर भूखा हो और दूसरी तरफ हम धर्मात्मा बनने का ढोंग करते रहें। यह कहाँ का इन्साफ है? इसे प्रशासन की अकर्मण्यता कहें या शासकों की अदूरदर्शिता या फिर उन धन्नासेठों की हठधर्मिता, जो आज भी अपनी जंग लगती हुई दौलत पर सांप की तरह फन फैलाये जिन्दा लाशों का व्यापार करने लग रहे हैं।क्या सारी मानवता पाषण हो कर रह गई है? क्या इस मुल्क में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं बचा जो उन करोड़ों रुपयों का, जो इन इन गरीबों के लिये राहत के नाम पर खर्च हुआ हैउसका , लेखा-जोखा देख कर असलियत का पर्दा फाश कर सके,साथ ही उन मुल्क के दावेदारों को यह समझने के लिये सम्भव हो पायेगा, दमन और उत्पीड़न सहने की भी एक सीमा होती है?
सम्भव है सत्ताकी मखमली गद्दी पर आसीन जनता के इन मालिकों को अभी यह अहसास नहीं कि जब विषमता का प्रतिशोध दावानल बनकर भस्मीभूत करने पर उतर जाता है तो आज, चन्द सिक्के और दाने-दाने को मोहताजी में दर-दर भटक रहे हैं, वही मूक और निर्जीव प्रतिमा दिखने वाले लोग ‘युग पुरुष ’ बन जाते हैं। भूखे लोगों की आह पर तो‘बोलशेविक क्रान्ति’ का जन्म- दाता लेनिन जारशाही को भी टूक-टूक करने में सफल होगया था।
जब-जब धरती के बेटों पर जुल्म हुआ है तब-तब यहाँ प्रलय हुई है। जिन्दा रहने के लिये , भारत माँ के दामन पर दाग लगाने की कुचेष्टा करने वाले इस माटी में पैदा नहीं होते इस देश की धरती बहुत गर्म है। इतिहास इस बात का गवाह है कि नारी की कोख से जन्मे नर ने जब-जब मदान्ध होकर उसकी लाज लूटने का दुःसाहस किया है, तब तब नारी ने अपने सम्मान की रक्षा की है। इस देश की आजादी की लड़ाई में भी नारी पुरुषों से कभी पीछे नहीं रहीं। जब-जब राष्ट्र पर विपदाओं के घोर वादल मड़राये है इसने अपनी मांग का सिन्दूर तक भारत माता के चरणों में समर्पित कर दिया है। नारी के महत्व को कम करके आंका जाना समाज की भयंकर भूल होगी। नारी फिरभी नारी है, पीढ़ी चाहे जो भी हो इसे हर परिस्थिति में लोहा लेना आता है। नारी को अवला कहने वाले लोगों ने सम्भव है, नारी के उस अदम्य साहस को भुला दिया है जब नारी ने मानव समाज को बचाने के लिये, स्वयं को सवला सिद्ध करने तमें कोई कोर कसर नहीं रहने दी। आज भी नारी के अदम्य साहस के वर्णन से इतिहास के पृष्ठ भरे पड़े हैं।
आर्थिक विषमता प्रकृति की देन नहीं, जिसका मुकावला सब मिलकर भी न कर सके। जरूरत तो सिर्फ संगठित होकर सक्रिय और सचेत होने की है। जिस घर का प्रहरेदार सशक्त और जागरुक होता है उसमें चोर तक घुसने का साहस नहीं कर सकतें। आर्थिक विषमता और गिरते हुये मानवीय मूल्यों से किसी भी देश की सरकार के लिये अकेले निपटना सर्वथा असम्भव रहा है, और हमारा यह समझ बैठना कि शासन इन पर कावू पाने में उदासीन रहा है यह बात अधिक महत्वपूर्ण नहीं है अपितु इस सम्वन्ध में जो जटिल वाधायें होती हैं उनको भी अनदेखा नहीं किया जाना चाहिये। वास्तव में यह एक ऐसी विकराल समस्या बन चुकी है जिस पर त्वरित कोई संतोष जनक हल खोज पाना किसी भी सरकार के लिये सम्भव नहीं है। किन्तु यदि पूरे राष्ट्र की जनता इस समस्या को एक गम्भीर चुनौती के रूप में स्वीकार करके‘ जो जहाँ है, जिस स्थिति में है’ इसको समूल नष्ट करने का संकल्प लेले तो निश्चय ही देश का प्रत्येक नागरिक प्रगति के पथ पर अग्रसित होता दिखाई देगा।
वक्त किसी को बख्शा नहीं करता। आज समय का तकाजा है कि देश के राजनैतिक और सामाजिक संस्थाओं के वरिष्ठ नेतागण, और इस देश के धनी लोग अपनी सस्ती लोकप्रियता के प्रलोभन से मुक्त होकर इस गम्भीर समस्या को मानव सभ्यता के मस्तिष्क पर लगा कलंक मानकर इसके दूरगामी परिणामों की ओर गम्भीरता पूर्वक विचार करें, अन्याथा जब कहीं आग लगती है तो उसकी लपटें, अपने और पराये में भेद नहीं किया करती। इस देश की यह परम्परा रही है कि जब भी किसी विपदा ने इस पर आक्रमण किया है, सभी देश वासियों ने अपने समस्त भेदभाव और प्रलोभनों को त्यागकर एक संगठित शक्ति से उसका सामना किया है। कौन कह सकता है कि आर्थिक विषमता एक असाधारण राष्ट्रीय प्रकोप से कम है।
स्वामी मामा
यह कृति मैंने गुरु सेवा समझ कर संकलित की है। यों तो जब से महाराज जी डबरा में आये थे तभी से इस महापुरुष की मुझ पर कृपा रही है। मेरी भूलने की आदत के बाबजूद जो कुछ याद रहा है ,उन बातों को ही इस में स्थान मिल पाया है। अनेक बातें कहने से छूटी हैं या कुछ बातें विस्तार पा गईं है ,उन सब बातों में मेरा ही दोष है इसके लिये परम पूज्य गुरुदेव तथा आप सबसे क्षमा प्रार्थी हूँ।
महाराज जी का चिन्तन तो बहुत वृहद है। चलते -चलते गुरुदेव से उनके चिन्तन के कुछ पर्ण मिले हैं उन्हें भी आत्मसात करने का प्रयास करें-
हमारी इच्छाओं और लालसाओं का कोई अंत नहीं है। वह असीमित है। और उन्हें ही पूरा करने के लिये वार वार जन्म लेना पड़ता है। यदि इच्छाओं पर अंकुश लग जाये तो फिर इस चक्र से सहज ही मुक्ति मिल जायेगी किन्तु ऐसा सम्भव बन नहीं पाता क्योंकि प्रत्येक इच्छा पूर्ति से पहले दूसरी कई इच्छाओं को जन्म दे देती है और यह क्रम वढ़ता ही जाता है। मृत्यु पर्यन्त इच्छाओं का सिल सिला जारी रहता है। अन्ततः हमारी यह देह छूटने से पहले हमारी देह का निर्माण हो जाता है। एक केद से छूटते ही हमें उससे भी अधिक सुद्रढ़ जेल की सलाखों में उाल दिया जाता है। हमारा प्रत्येक वर्तमान जनम पिछले जनम से अधिक और वर्तमान जनम से अगला जनम अधिक बन्धन युक्त होता है। आप जरा गम्भीरता पूर्वक सोचकर देखें। हमें किन किन उलझनों का जीवन में सामना करना पड़ता है। कैसी कैसी विपदाओं और लज्जाजनक परिास्थितियों से जूझना पड़ता है। पूरे जीवन में शायद ही कभी शान्ति और सुख की नींद आइ होगी। हाँ वेशर्म और कृतघ्न व्यक्ति की बात प्रथक है। किन्तु अन्य विवके इस बात को शील व्यक्ति भली भॉति स्वीकार करेगा कि सुख के पल खोजते खोजते सुख तो नहीं मिला स्वयम् ही इस शरीर को छोड़कर चल दिये। ऐसा इसलिये हुआ कि मार्ग और प्रयास सही नहीं थे। जिनमें सुख खोजा वह तो दुःख के वृक्ष थे उनमें सुख का फल कैसे मिलता। जहाँ सुख मिलता है उस दिशा से तो सदैव बचते रहे। और इसका पता तब लगा जब मृत्यु के दूत आ पहुँचे। फिर न वैभव काम आता है न नाते रिस्तेदार भाई बन्धु कुटुम्व, कवीला ओहदा, अधिकार सब धरे रह जाते हैं। इसलिये समय रहते हमें इसका प्रबन्धकर लेना चाहिए पीछे पश्चाताप न हो।
इसी प्रकार दूसरे पर्ण में-
भगवान प्रेम स्वरूप है । प्रेम ही सच्ची साधना है। मनुष्य का मुख्य कार्य है जीव की सेवा करना। सारा जीवन सेवा में ही व्यतीत होना चाहिये, साथ यह भी याद रखना चाहिये कि सेवा के वदले किसी से प्रतिदान लेना या उसकी सेवा उपकार समझकर की जा रही है यह भावना भी मन में आने न पाये, तभी वह सेवा का रूपले पायेगी। मनुष्य मात्र ईश्वर का अंश होता है।उसकी सेवा ईश्वर की सेवा है यह कभी नहीं भूलना चाहिये। ऊँ विश्व रूपाय परमात्मने नमः। दिनांक 21.4.17
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