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औघड़ किस्से और कविताएँ-सन्त हरिओम तीर्थ - 2

औघड़ किस्से और कविताएँ-सन्त हरिओम तीर्थ 2

एक अजनबी जो अपना सा लगा

परम पूज्य स्वामी हरिओम तीर्थ जी महाराज

सम्पादक रामगोपाल भावुक

सम्पर्क- कमलेश्वर कॉलोनी (डबरा) भवभूतिनगर

जि0 ग्वालियर ;म0 प्र0 475110

मो0 9425715707, , 8770554097

मन मस्तिष्क में चलने वाले विचार की प्रतिध्वनि भी कहीं होती है। यह कहकर महाराज जी एक प्रसंग कहने लगे- सन्1951 ई0 चल रहा था। बात कलकत्ते की है। उन दिनों काम की तलाश में महाराज जी विरला के किसी अधिकारी के निवास पर गये थे। उस समय कमरे में कोई नहीं था। ये जाकर कुर्सी पर बैठ गये और उनके आने की प्रतिक्षा करने लगे। उसके सामने टेविल पर खुले सिक्कों का ढेर लगा था। उस समय एक आने की भी बहुत कीमत होती थी।एक आने में आदमी का पेट भर जाता था। ये दो दिन से भूखे भी थे। इनके मन में आया क्यों न इनमें से कुछ लेलिया जाये। किन्तु मन ने इसे अस्वीकार कर दिया। कुछ क्षण बाद वह मैंनेजर बाथरुम से निकला। उसने आते ही कहा-’ मैंने तुम्हें काम करने के लिये बुलाया भी था। किन्तु इस समय कोई काम नहीं है। अतः तुम जासकते हो। मुझे लौटना पड़ा। मैं समझ गया कि मन मस्तिष्क में चलने वाले विचार की प्रतिध्वनि भी कहीं होती है।

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एक दिन महाराजजी कहने लगे-जब मैं आठ वर्ष का था। हमारे नगर में महूवाला ताल था। बच्चे उसमें तैरते रहते थे। मैं तैरना नहीं जानता था। मैं भी अन्य बच्चों की तरह उसमें कूद गया। हाथ पैर फड़फड़ाने लगा। किनारा दूर था। जाने कैसे पानी में सीधा होगया। यों मुझे कुदरतने तैरना भी सिखाया।

ऐसे ही प्रभूकी मुझपर अपार कृपा रही है। मैं चितौड़ के किले में जाता रहता था। वहाँ एक गोमुख है। नीचे अथाह जल भरा है। मैंने ऊपरसे उसमें छलांग लगा दी। मैं पानी में काफी गहराई तक पहुँच गया । मेरा मुँह खुल गया। उसमें पानी भरने लगा, उसी समय मैं वेग से ऊपर आगया। यों प्रभू की कृपा से मेरी जान बची।

यह कह कर वे कुछ छणों तक चुपचाप बैठे रहे। फिर कहने लगे कि मैं डबरा में कु0कमला टांक को प्रति दिन देखने जाया करता था। उसका हार्ट सुकड़ गया था। मरणासन अवस्था हो गई थी। एक दिन उसने पूछा कि क्या गुरु बिना गति नहीं होती?’

मैंने कहा-’हाँ।’

वह बोली-’ काश! मेरी दीक्षा होगई होती।’

मैंने उसे समझाया -’ किसी को भी गुरु मान लो। यह तो श्रद्धा की बात है। सामने भगवान शंकर का चित्र है, वह तो सभी गुरुओं के गुरु हैं।’

तभी वह बोली-’ मैं आपसे दीक्षा लेना चाहती हूँ।’

’कल तैयार रहना।’यह कहकर महाराजजी चले आये थे।

दूसरे दिन महाराजजी जब वहाँ पहुँचे, वह नहा धोकर तैयार बैठी थी। उन्हें देखते ही बोली-’ आज मैंने बहुत दिनों में स्नान किया है। मैं दीक्षा के लिये तैयार हूँ।’उसके बाद महाराजजी उसके पास पड़ी कुर्सी पर बैठ गये और उसे दीक्षा प्रदान करदी।

कुछ दिनों पश्चात चिकित्सा के लिये उसे भिलाई ले जाया गया। उसकी हालत देख कर डाक्टर आश्चर्य करने लगे कि इस हालत में वह जीवित कैसे है और यहाँ तक आ कैसे गई! कोई चमत्कार ही है।

वह वहाँ से लौटकर आगई। कुछ दिनों बाद एक रोज जब महाराज जी उससे मिलने गये। वह बोली-’ गुरुदेव ,मेरा अन्तिम समय निकट दीखता है।’

महाराजजी बोले-’अधिक जीने की इच्छा है क्या? किन्तु इस शरीर से तो जीवन जीने का कोई अर्थ नहीं’

उसका उत्तर था-’आप ठीक कहते हैं। इसलिये इस शरीर के जाने में ही भलाई है।

महाराज जी बोले-’ अब तुम एक क्षण भी मत गवाओ। साधना में डूब जाओ।’

यह कहकर महाराज जी चले आये थे। दूसरे दिन ही वह जगत छोड़ गई। यों महाराज जी ने चलते- चलते एक राहगीर का उद्धार कर दिया।

वे फिर कहने लगे,ऐसा ही एक किस्सा और याद आ गया है। इस नगर के प्रसिद्ध कपड़ा व्योपारी गोपीराम कुकरेजा जी की माता जी की दीक्षा का है।

किसी की दुःख-तकलीफ के बारे में पता चला कि महाराज जी उसकी मदद करने पहुँच जाते। यह उनके स्वभाव में शामिल था। इसी क्रम में वे गोपीराम कुकरेजा जी की माँ को देखने पहुँच गये।बोले-‘माताराम कैसी हैं?’

वे बोलीं-‘रामजी ने आपको मेरे पास भेज दिया है। अब मैं आराम से जा सकूँगी।’

महाराज जी ने माताजी को कुछ समय पूर्व ही दीक्षा दी थी। यह भेद केवल उनकी छोटी पुत्रवधू ही जानती थी,जो सदैव उनकी सेवा में रहती थी।

महाराज जी बोले-’ अब आप अपने इष्ट का जाप करतीं रहें। समझलें आप मुक्त हो गईं।’

इसके दो तीन दिन बाद ही वे चल बसीं थीं।

मैं गुरुनिकेतन शिवकालोनी डबरा जाता रहता था। गुरुदेव जो भी काम करते वह दत्तचित्त होकर करते थे। उनके अपने सिद्धान्त को वह सर्वोपरि मानते थे। एक दिन की बात है ,रात्री के आठ बजे का समय रहा होगा। मेरी आश्रम से चलने की तैयारी थी ,उसी समय मन्दसौर से आये एक साधक ने दरवाजे पर दस्तक दी। महाराजजी ने स्वयम् दरवाजा खोला। उसे देखकर बोले-‘तुम बिना सूचना किये कैसे चले आये?’

‘वह गिडगिड़ाने लगा तो गुरुदेव को दया आ गई । उन्होंने पूछा-

‘ अपना आसन साथ लाये हो या नहीं ?’

वह डरते-डरते बोला-’गुरुदेव ,चलते समय घर पर छूट गया।’

गुरुदेव बोले-’फिर यहाँ क्या लेने आये हो ? पिकनिक मनाने आये होगे। अच्छा है, आइये,रात्री का भोजन कीजिये और अभी दस बजे वापसी की ट्रेन है, उससे चले जाओ। हमारी बातें पसन्द हो तो अन्दर आ सकते हो।’वह साधक अन्दर आगया था।

गुरुदेव , साधना के प्रति इतने सख्त हैं। उन्हें प्रमाद बिलकुल पसन्द नहीं है। उस दिन मुझे लगा-‘ गुरुदेव ने उस साधक को ही नहीं वल्कि हम सभी को साधना के प्रति सचेत रहने की हिदायत दी है।

इन दिनों वे अक्सर इन पन्तियों को गुनगुनाते रहते हैं-

इन नैनन ने, पर दोष लखे,

पर आपने दोष कबहुँ न लखे।

गुणगान किया निज तन- धन का,

औरन के गुण कबहुँ न रुचे ।।

पर निंदा सुनी, इन कानन ते,

मुँख निंदा रस का पान किया।

नीति अनीति का भान तजा ,

मन भाया तैसे भेाग किये।।

एक दिन महाराज जी अमरकन्टक यात्रा का वृतान्त सुनाने लगे-’मैं ,अपनी माता जी, आपकी माताजी और राजू ड्रायवर सहित डबरा से अपनी कार से यात्रा के लिये रवाना हुये़। कार राजू ड्रायवर चला रहा था। अमरकन्टक पहुँचने से पाँच किलोमीटर पहले एक छोटी नदी मिली। उसमें बहुत ही कम पानी प्रवाहित हो रहा था। लेकिन कार बीच नदी में जाकर फस गई। राजू ने कार निकालने का बहुत प्रयास किया। किन्तु कार नहीं निकली तो हम सभी धूनीवाले दादाजी का स्मरण करने लगे। इतने में कुछ दूरी पर पदचापें सुनाई पड़ीं। कुछ ही देर में मजदूर महलाओं के साथ एक व्यक्ति आता दिखाई दिया। वह व्यक्ति धोती और कमीज पहने था। उसके एक हाथ में बीड़ी थी। दीखने में पतला -दुबला बहुत ही साधरण सा दीखने वाला अधेड़ उम्र का था।

राजू ड्रायवर ने उनसे कार निकलबाने की याचना की। वह व्यक्ति बोले-’स्टेरिंग पर बैठो और कार स्टार्ट करो। राजू ने कार स्टार्ट की। वे एक हाथ में बीड़ी लिये पानी के अन्दर घुसे तथा अपने दूसरे हाथ को कार से लगाया ही था कि कार झटके से बाहर निकल गई। मेरे मुँह से निकला-’ दादाजी महाराज की जय। मेरे जयकारे को राजू और माताजी ने भी दोहराया- ‘दादाजी महाराज की जय ।’

वे औरतें अपने रास्ते पर चलीं गई। नर्मदे हर कहते हुये वे भी उन झाड़ियों में कहीं खेा गये।

मैं समझ गया-धूनी वाले दादाजी ही हमारी मदद करने आये थे।

बात कहते- कहते महाराजजी एकाग्रचित्त हो जाते थे। बीच में डिस्टर्व किया जाना उन्हें पसन्द नहीं था।

कुछ क्षण बाद महाराजजी बोले-‘ मुम्वई में बाणगंगा नामक स्थान पर भी एक संत के दर्शनों का सौभाग्य मिला। वे अपने में ही मस्त रहते थे, न किसी का लेना न किसी का देना।

बात उन दिनों की है , जब मैं शुरू- शुरू में डबरा नगर में आया था । गौरी शंकर बाबा उन दिनों तहसील प्रगंण में तहसीलदार रायजादा के न्यायालय के बाहर वरामदे में तख्त पर बैठे रहते थे’। मैं पहली बार में ही उन्हें देखते ही पहचान गया था कि ये कोई साधारण व्यक्ति नहीं हैं , ये तो दिव्य महापुरुष हैं। उनके सामने से जितनी बार भी गुजरता था उतनी ही बार मेरी गर्दन खुद व खुद उनके समक्ष झुक जाती थी। वे बैठे-बैठे मस्ती में झूमते रहते थे। एक दिन मैं उनके लिये फल ले आया तो उन्होंने सहजता से ग्रहण कर लिये। जब इसका पता तहसीलदार रायजादा को लगा तो वे मुझ से बोले-’बाबा तो किसी से कोई चीज ग्रहण ही नहीं करते किन्तु आश्चर्य है आपसे फल ग्रहण कर लिये। आप तो बड़े भाग्य वाले हैं। मैंने रायजादा जी से कहा-’ यह उनकी कृपा है। मुझ पर तो महान संन्तों की कृपा जीवन भर होती ही रही है,वर्ना यह जीवन चलताही कैसे! मेरा तो आधार ही यही है।’

इस प्रसंग के ध्यान में आते ही आपके मन में एक प्रश्न उभरेगा-क्या ऐसे साधक अब भी हैं?

परमश्रद्धेय गुरुदेव स्वामी हरिओम तीर्थ जी के गुरुदेव स्वामी शिवोम् तीर्थ जी महाराज की कृति ‘अन्तिम रचना’ में इस प्रश्न का उत्तर महाराज श्री ने यों दिया है-शक्तिपात् विद्या के साधकों की दो धारायें हैं,-एक स्थाई दूसरी अस्थाई। एकान्तप्रिय साधकों की धारा स्थाई है। इसकी लय सदैव अखन्ड बनी रहती हैं। किसी भी परिस्थिति में इसकी निरन्तरता में अन्तर नहीं आता। बाबा की तरह इसके साधक महातपस्वी,महात्यागी,जन-समाज में रहते हुये जन-समाज से दूर,साधना में रत एवं दैवी शक्तियों से सम्पन्न होते हैं।

जब संसार में अस्थाई धारा का प्रचार-प्रसार बढ़ जाता है तब भी स्थाई धारा भूमिगत प्रवाह शील बनी रहती है। स्थाई धारा के महापुरुष शक्ति सम्पन्न होते हुये भी प्रायः किसी को दीक्षा नहीं देते। वे तो शक्ति के उत्थान के लिये साधना में लगे रहते हैं।

यही प्रसंग चित्त में लिये मैं गुरु निकेतन पहुँचा। महाराज जी मेरा प्रश्न भाँपते हुये बोले-’क्या सोच रहे हो? मेरा जन्म ही महापुरुष की कृपा से हुआ है।’

मैंने प्रश्न किया-’ गुरुदेव , यह कथा बिस्तार से कहें।’

प्रश्न सुनकर वे सँभलकर बैठते हुये बोले-’ मेरे एक बड़े भाई थे जिनका ढाई वर्ष की उम्र में ही देहान्त हो गया था। मेरे बाबाजी बाबूजी और मेरी माँ को लेकर साईंखेड़ा गये थे। यह बात मैंने अपनी माँ से सुनी है।

उन दिनों साईंखेड़ा में अवधूत संत धूनीवाले दादाजी केशवानन्द जी महाराज की ख्याति चारों ओर फैल रही थी। वे मानव के कल्याण में लगे थे। जब ये सब उनके समक्ष बैठे थे तो एक आदमी किसी तरल पेय से भरा पात्र लेकर आया। उसने वह पात्र उनके समक्ष रख दिया। यह देखकर धूनीवाले दादा जी मेरी माँ से बोले-’इसे पीजा मोड़ी।’

उनका आदेश सुनकर मेरी माँ ने मेरे बाबूजी की ओर देखा। उन्होंने इशारा कर दिया-पीजाओ। मेरी माँ उस स्वादिष्ट द्रव्य को पी गई। उसके बाद पास बैठी औरत से मेरी माँ बोली-’मुझे मेरी खेाली तक पहुँचा दो। उसने मेरी माँ को खेाली तक पहुँचा दिया। वहाँ पहुँचकर माँ लेट गईं। उन्हें बेहोशी आगई। जब आरती के बाद बाबाजी और बाबूजी लौटकर आये तो मेरे बाबूजी ने उन्हें देखा। उन्होंने अपने बाबूजी को बतलाया कि ये तो बेहोश पड़ी हैं।

बाबाजी बोले-’ इसके लिये तो दादाजी के पास ही जाना पड़ेगा।’

उनकी आज्ञा पाकर, मेरे बाबूजी दादाजी के पास पहुँचे। दादाजी बड़बड़ा रहे थे-’नीबू काहे न चुसा देत।।’

रात के दस बज रहे थे। निब्बू कहाँ से आते! उसी समय वहाँ कोई निब्बू लेकर आया। दादाजी ने दानों निब्बू उनकी ओर फेंक दिये। वे निब्बू लेकर चले आये। मेरे बाबूजी ने सड़ासी से मेरी माँ का मुँह फाड़ा और बाबाजी ने उनके मुँह में निब्बू निचोड़ दिया।

इसके कुछ समय बाद मेरी माँ को भारी उल्टियाँ हुईं। तीसरे दिन तक माँ बेहोश ही रहीं। बेहोशी में ही दुद्धी नदी पर जाकर स्नान कर अपने कपड़े धो लाईं । सामान्य होने के पश्चात सम्भवतः चौथे दिन प्रातः दादाजी के दर्शनों के लिये गईं।

उसी समय एक महिला चार जलते हुये आटे के दीपक लेकर आई। दादाजी मेरी माँ से बोले-’इन चारों को खाजा।’

उनकी आज्ञा पाकर मेरी माँ ने हमेशा की तरह बाबूजी की ओर देखा। उन्होंने इशारा कर दिया-खा जा।.......और मेरी माँ उन चारों जलते हुये दीपकों को एक-एक करके खा गईं। जिसके परिणाम स्वरूप हम चारों भाइयों का जन्म हुआ।

अगले दिन जब मेरी माँ दादाजी के पास पहुँची तो उन्होंने उन्हें जल से आचमन कराया और मंत्र दीक्षा से अनुगृहीत कर दिया। माँ धन्य होगई।

सुना है वे किसी को दीक्षा नहीं देते थे। मेरी माँ बड़ी भाग्यश्शाली हैं कि धूनीवाले दादाजी महाराज ने उन्हें दीक्षा प्रदान कर उनके सभी मनोरथ सिद्ध कर दिये।

यह कहकर महाराजजी तनकर बैठते हुये बोले-’धूनीवाले दादाजी के मुझे जीवन भर दर्शन होते रहे हैं। एक बार मैं तेरह-चौदह बर्ष का था, गौरखी के वायीं तरफ भटनागर साहब का पता पूछते हुये चला जारहा था किन्तु वह जगह नहीं मिल रही थी। उसी समय दादाजी महाराज एक गली में जाते दिखे। मैं समझ गया और उसी गली में मुड़ गया। थोड़ा ही आगे बढ़ा था कि उस भटनागर साहब का मकान मिल गया। इसी तरह जीवन भर समय-समय पर मुझे विभिन्न रूपों में दादाजी के दर्शन होते रहे हैं।

सन्1986 की बात है, मैंने रहने के लिये शिवकालोनी डबरा की गली नम्बर तीन में किराये से मकान लेलिया था। मैं हरयाणा से अपनी माँ और आपकी माँजी को लेकर डबरा के लिये रवाना हुआ। मेरे साथ में सामान से भरा बड़ा बक्सा, एक बड़ी बाल्टी उसमें भी सामान भरा था एवं सिलाई की मशीन थी। इतने सामान के साथ कैसे यात्रा की जाये ?बड़ा भारी संकट पैदा होगया था। हम कैसे भी रेवाडी से ट्रेन पकड़कर पुरानी दिल्ली आगये। वहाँ से हमें निजामुद्दीन स्टेशन आना था। जब कोई उपाय नहीं दिखा तो मेरी माताजी कहने लगीं कि चिन्ता मत कर दादाजी सब व्यवस्था करेंगे।

उसी समय एक हट्टा-कट्टा युवक पास आकर बोला- चलो, मैं आपका सामान पहुँचा देता हूँ। हमारे मना करने पर भी उसने सारा सामान अपने सिर पर लाद लिया। वह स्टेशन से बाहर निकल आया और उसने निजामुद्दीन स्टेशन जाने वाली बस में हमारा सामान ठूँस दिया। और केवल दो रुपये लेकर चला गया। बस ने हमें सामान्य किराये में निजामउद्दीन स्टेशन पर उतार दिया। वहाँ से डबरा आने वाली ट्रेन से हम डबरा आगये। हमारे जीवन की यह घटना भी दादाजी महाराज के नाम अर्पित होगई है।

साईंखेड़ा में धूनीवाले दादाजी के नाम की धूम मची थी। एक औरत अपनी मरी हुई बच्ची को धूनी स्थान के पिछवाड़े डालकर मेरी माँ के समीप आकर बैठ गई। आरती के पश्चात दादाजी उससे बोले-’मोड़ी भूखी है उसे दूध तो पिला।’जब उसने यह बात नहीं सुनी तो दादाजी ने उसे एक डन्डा मारा तव वह औरत अपनी बच्ची के पास गई तो उसने उसे रोते हुये पाया। यह आँखों देखी घटना मेरी माँ मुझे सुनाया करतीं थीं। ऐसे दादाजी ही मेरे इष्ट हैं। उन्होंने मुझे पग-पग पर सँभाला है। धीरे-धीरे यह स्थिति बनी है कि हर साधू-संत में मुझे मेरे इष्ट धूनीवाले दादाजी ही नजर आते हैं।

मैं उन दिनों मनीराम जी के मकान में रहता था। बात सन 78-79 की है। एक दिन मैं डबरा के रेल्वे स्टेशन पर टहल रहा था। बूदा-बाँदी हो रही थी फिर भी चौड़े में एक संत लेटे थे। उनके पास में ट्रँजिस्टर बज रहा था। एक टोकरी में कुछ सामान रखा था। मझे लगा-कहीं बाबाजी झपकी लग गई तो कोई उनका ट्रँजिस्टर पार कर देगा। यह सोचकर मैंने बाबाजी से कहा-’बाबाजी, टीन सेड में चले जायें। पानी से बचाव हो जायेगा।’

वह संत अटपटी भाषा में बोला-’ये बरसात बहुत परेशान कर रही है। मैं इसे रोके हुये हूँ। मैं अन्दर नहीं जाऊँगा।’

उसी समय मेरी निगाह उनकी डलिया पर पड़ गई। उसमें धूनीवाले दादाजी की फोटो रखी थी। मैंने उनसे कहा-’ आपकी डलिया में धूनीवाले दादाजी की फोटो है।’

वे बोले-’ तुम इन्हें जानते हो!’

मैंने उत्तर दिया-’ हाँ, ये मेरे आराध्य हैं।’अब मैंने उनकी ओर गौर से देखा। कानों में बड़े-बड़े कुन्डल पहने छोटे दादाजी की तरह लग रहे थे।

मैंने पूछा-’ कहाँ ठहरेंगे?’

वे बोले-’ भट्ट जी सी0 एम0 ओ0 के यहाँ।’

उनकी बात सुनकर मैं चला आया था। दूसरे दिन मैं जानकारी लेने भट्ट जी सी0 एम0 ओ0 के यहाँ जा पहुँचा। वहाँ उनसे मुलाकात हो गई। वे छीपानेर के रहने वाले संत थे। इस तरह दादाजी ने उनसे अनायास पहचान करादी थी। जिसे मैं आज तक नहीं भूल पाया।

मेरे बाबाजी ने किसी के विश्वास में आकर नेपाल के कजलीबन में सिलीपर की लकड़ी काटने का ठेका ले लिया। जिस के कहने से ठेका लिया था उसके मन में पाप आगया । उसने बाबाजी को जहर दे दिया। बाबाजी कैसे भी बच गये! जब साईंखेड़ा में दादाजी के दर्शन करने पहुँचे तो देखा दादाजी जोर -जोर से कह रहे थे-

बजाते थे तुन-तुनी। और खाते शक्कर घी।।

आग लगे इस जंगल में।जो अबके बच गया जी।।

मेरा मोड़ा बसे कजलीवन में।।

यों धूनीवाले दादाजी ने उनके जीवन को बचाने में जो कृपा की थी उसे महसूस करा दिया।

ऐसे ही एक ठेकेदार ने बाबाजी पर झूठा मुकदमा लाद दिया। बाबाजी के पास कोर्ट से सम्मन आगया। बाबाजी अकेले ही कोर्ट पहुँच गये। जज बोला-’ इसने तुम पर झूठा केस चलाया है ? इस बात का तुम्हारे पास कोई गवाह है।’

उनकी बात सुनकर बाबाजी कोर्ट से बाहर निकले। सामने आकर एक व्यक्ति बोला-’आपको गवाह की जरुरत है। चलो मैं आपकी गवाही दिये देता हूँ।’वह आदमी उनके पीछे-पीछे कोर्ट में पहुँच गया । जज समझ गये कि माजरा क्या है! ‘

जज ने उन्हें बाइज्जत बरी कर दिया। ...और ठेकेदार पर झूठा मुकदमा चलाने के लिये मुकदमा चला दिया।

बाबाजी जब धूनीवाले दादाजी के दर्शन करने गये तो वे जोर-जोर से कह रहे थे-’करनाल , करनाल।

ऐसी थी उनकी महिमा।

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