औघड़ किस्से और कविताएँ-सन्त हरिओम तीर्थ 14
एक अजनबी जो अपना सा लगा
परम पूज्य स्वामी हरिओम तीर्थ जी महाराज
सम्पादक रामगोपाल भावुक
सम्पर्क- कमलेश्वर कॉलोनी (डबरा) भवभूतिनगर
जि0 ग्वालियर ;म0 प्र0 475110
मो0 9425715707, , 8770554097
स्वामीजी अकेले कवि ही नहीं वल्कि श्रेष्ठ सटायर लेखक भी रहे हैं। उनकी कहानियाँ एवं सटायर इतने पैने कि आदमी बिषय पर सोचने को मजबूर होजाये।उनके सारे के सारे सटायर व्यवस्था की शल्य क्रिया करने में समर्थ मिलेंगे। नगर में लोग उन्हें कवि रूपमें स्वामी मामा के नाम से जानने लगे थे। मैं उन्हें स्वामीजी कहकर बुलाता रहा। किन्तु जब से मुझे उनका अनुग्रह प्राप्त हुआ है तब से मैं गुरुदेव को महाराज जी कहता हूँ।
‘एक बुद्धिजीवी पागल का सफर नामा’ शीर्षक से पुस्तक के आकार रुप में आपके सटायर संकलित हैं। सम्पूर्ण कृति व्यंय का आनन्द देती है। इसमें आपको कहानी के पढ़ने जैसा आनन्द भी मिलेगा। बानगी के रुप में ये अंश देखें-
दलदल
थाने के सामने तमाशबीनों की अच्छी खासी भीड़ जमा थी। सब बहरे बने एक दूसरे का मुँह जाक रहे थे। कहीं-कहीं खुसुर-पुसुर चल री थी। हर कोई अपने-अपने ढंग से सोचने में लगा था। असलियत का शायद किसी को पता न था। जैसा जिसकी समझ में आता था, पूछने वाले को बता रहा था। एक तबका जरूर कुछ ऐसा था, जो बहुत गमगीन नजर आता था। लगता था, वहाँ के माहौल से उन्हें बेहद तकलीफ अहसास हो रहा हो। किसी में भी तो इतना साहस न था जो आगे बढ़कर किसी पुलिस वाले से पूछ ले कि भाई माजरा क्या है?.... एक नौजवान ने जरूर कुछ साहस दिखने की गुस्ताखी की थी, मगर दीवान जी के हैवानी झपट्टे ने सारा जोश ही ठन्डा कर दिया। ऊपर से पुरखों की शान में कोरस और सुनने को मिला।
भीड़ में से कुछ संभ्रान्त से दिखने वाले लोग,जो एक ओर खढ़े थे, उनके चेहरों पर बजाय उत्सुकता के कुछ प्रश्न्नता का सा भाव नजर आता था।कीमती कपड़ों में चमकती उनकी सेहत बता रही थी कि वह जरूर किसी सरकारी महकमे से ताल्लुख रखते हैं। आहिस्ता-आहिस्ता मेरे कदम भी ठीक उन्हीं के करीब पहुँच गये। वे लोग अपनी बातों में इतने खोये हुये थे कि उन्हें अपने इर्द-गिर्द के लोगों की मौजूदगी की अहसास भी शायद नहीं था।
एक अधेड़ सी उम्र का दिखने वाला आदमी जो शायद किसी अफसरी के ओहदे पर नजर आता था, अपने साथ वालों से कुछ इस तरह बतला रहा था, मानों वहाँ जो कुछ भी घट रहा है सब उसी के हुक्म से हो। करीब खड़े साथी ने अपनी मूछों पर ताव देकर कहा-‘अच्छे-अच्छे तीस मारखाँ यहाँ का लोहा मान गये हैं। यह तो था किस खेत की मूली? बच्चू को अब पता चलेगा। सारी अकल ठिकाने आजायेगी। बड़ा मसीहा बना फिरता था गरीबों का।’।’
वह अपनी बात खत्म भी न कर पाया था कि तीसरा साथी कह उठा-‘ हुजूर इसमें उसका कसूर भी क्या है? जब अधिकारी वर्ग उसके आते ही बराबर में कुर्सी देंगे, तो उसके भाव बढ़ना तो स्वभाविक ही है। लोगों का क्या है, वह तो इस टोह में रहते ही हैं कि गाँठ की कौड़ी भी न जाये और काम भी बन जाये। जैसे ही उन्होंने इसे बगल में बैठे देखा कि आ पहुँचे। मिन्ओं में, बगैर किसी हिले हवाले के काम कराया और चलते बने। यह भी नहीं कि दस्तूरी भर तो देते जायें। बाबू की तो भली चलाई, बेचारे चपरासी तक के सलाम की भी कोई कीमत नहीं आँकता।’
तभी अगला साथी बोल उठा-‘ मालिक गुस्ताखी माफ हो तो एक बात कहूँ? आप लोग तो सरकार ठहरे, एक ही केश में बारे न्यारे कर लेते हैं,मरना तो हम बाबुओं का है। अब आप ही सोचें, अकेली तनख्वा से होता भी क्या है? अगर ऊपर की आमदानी न हो तो घर वालों को क्या जहर देदें? जिसे देखो वह सरकारी कर्मचारी के ही पीछे पड़ा है। उनसे कोई कुछ नहीं कहता जो दिन-रात गरीबों का शोषण कर, अपनी तिजोरियाँ भरने लग रहे हैं और ऊपर से समाज सेवी का लेबल लगाये हुये हैं।
उसका वाक्य अभी पूरा भी न होपाया था कि करीब खड़े साथी ने नेतागिरी टाइप लहजे में हाथों को मटकाते हुये, बड़े तरारे से कहा-‘हमसे कौन रियायत करता है? हलवाई से लेकर हज्जाम तक, सभी ने तो अपने उस्तरे पैने कर रखे हैं। अनिवार्य आवश्यकता के नाम पर हमारे बच्चों को मिलता ही क्या है? घी नदारत तो दूध में पानी।ऊपर से यह धौंस कि बाबूजी....हर माह इन्सपेक्टर को महिना भर दूध देने के अलावा करारे-करारे नोट देने पड़ते हैं। वह क्या तुम दे दोगे? अगर हमारा दूध पसन्द नहीं है तो कहीं अन्त से ले लो।
इससे बुरा हाल सव्जी मंड़ी वालों का है। कोई सीधे मुँह बात करने को राजी नहीं है। अगर एक सिरे पर लौकी चार रुपये किलो किसी ने कहदी तो पूरी मण्ड़ी का चक्कर लगा आओ सभी के मुँह से चार रुपये किलो ही निकलेगी। मजाल जो कोई एक पैसा कम करदे! अब आप ही बतायें कोई पैसा लिये बगैर किसी का काम करे तो क्यूँ करे। खुद अपने ही मकहमें के लोगों से काम पड़ जाने पर बिना लिये दिये रुख तक नहीं मिलाते, दीगर की तो कहें क्या? क्या कोरे आदर्श से कभी किसी का पेट भरा है? बगैर पैसे तो शमशान में ल्हास भी ठिकाने नहीं लगती!
तभी अन्दर से फिर शहर कोतबाल की चिघाड़ सुनाई दी-’ क्यूँ एक ही रात में घवड़ा गये? बड़े बुजदिल नजर आते हो! जरा सी तिमारदारी भी पसन्द नहीं आई! असली प्रमाणपत्र तो थाने से ही प्राप्त होता है। बिना पुलिस का आशीर्वाद प्राप्त किये और दस-बीस झूठे-सच्चे मुकदमे लदे भला कौन नेता बन सका है? बीस साल की नौकरी में सैकड़ो नेता और नामी डकैत बना डाले हैं। सुना नहीं फलाँ का नाम? आजकल कितना बोल बाला है उसका। सब इन्हीं हाथों का कमाल है। पहले ,तुम्हारी तरह उसके सिर पर भी आदर्शवाद का भूत सबार था! यहाँ से निकलते ही नेता बन जावोगे, फिर हमारे बीच का फर्क जाता रहेगा। दुनियाँ एकरंगी दिखाई देगी। कहीं पानीदार हुये तो सीधे बीहड़ों की हवा लोगे। फैसला तुम्हारे हाथ है। यह तो जजमान की मर्जी पर है, हम तो दोनों के साथ शुरू में एक ही सलूक करते हैं। यही तो एक मात्र वह जगह है जहाँ आने वाले हर इन्सान को एक ही नजर से देखा जाता है।’
‘नहीं दरोगा साहिब, नहीं! मुझे समझने की कोशिश करो! यह आदर्शवाद नहीं, वक्त का तकाजा है। जो लोग पढ़े-लिखे और समझदार हैं,वे ही अन्जान लोगों को राह न बतलायेंगे तो आने वाली पीढ़ी को सिर्फ भटकओ के अलावा, विरासत में और मिलेगा ही क्या?.....मैं नहीं चाहता कि सियासत में धकेला जाउँ। आज की इस दलदल में मुझे मत फेंको। इसकी सडाँध मेरे अन्तर में छुपी मानवता का दम तोड़ देगी।’
अब वो शाँत हो गया था।
पहरे पर खड़े संतरी की आँखों से टपके दो आँसू, उसका अभिनन्दनकर रहे थे। कल ही तो उसने अपना खून देकर उसके जवान बेटे की जान बचाई थी। भीड़ में खड़े लोगों की भी आँखें नम होगईं थी।
अगले दिन अखबार की सुर्खियों में लोगों ने पढ़ा-बीहड़ों का दुर्दान्त डकैत पुलिस मुट भेड में मारा गया, बाकी साथी अंधेरे का लाभ उठाकर भागने में सफल। शासन द्धारा विशिष्ट सेवा पुरस्कारों की घोषणा। नगर के गणमान्य व्यक्तियों और विभिन्न संस्थाओं द्धारा अधिकारियों का नागरिक अभिनन्दन।
( स्वामी मामा डबरा)
महाराज जी कवि एवं सटायर लेखक ही नहीं वल्कि इस रचना के माध्यम से वे एक लघु कथाकार के रूपमें भी हमारे सामने आते हैं। उनके इस चिन्तन पर एक दृष्टि डाल कर तो देखें-‘
प्रश्न चिन्ह
मनफूल के बारबार समझाने के पश्चात भी राजू ने एक ही रटन लगा रखी थी। ‘बापू मैं स्कूल नहीं जाऊँगा। वह विज्ञान वाले सार फिर मार लगायेंगे। रोज रोज मार खानी पड़ती है।मैं कई बार गिड़गिड़ाकर कह चुका हूँ कि मेरे वापू सरकारी मुलाजिम नहीं हैं। टयूशन का बोझ वह नहीं सह सकते। मगर मेरे कहने का उनपर कुछ भी असर नहीं होता। इनसे तो पहिले वाले सर ही अच्छे थे, जो कम से कम मजबूर तो नहीं करते थे। अब तो पूरी कक्षा के सामने वेइज्जत होना पड़ता है! मुझे जाने के लिये मत कहो, मैं तुम्हारे पाँव पड़ता हूँ। मुझे मत भेजो।’
तभी राजू का सहपाठी सूरज यह कहते हुये कमरे में घुसा ‘अरे ओ राजू! क्या आज भी स्कूल जाने का इरादा नहीं है? कल से तो नगर के सभी स्कूल-काँलेजों में,अनिश्चितकालीन हड़ताल रहेगी। वो गणित वाले सर थे न ,गोस्वामी जी। किसी छात्र ने उनके छुरा घोंप दिया है। वेचारे सिसक भी न सके, उसी वक्त दम तोड़ दिया। कितने भले थे गोस्वामी सर?नाराज होना तो जैसे वे जानते ही न थे। कभी कोई छात्र, कुछ पूछने के लिये उनके घर चला जाता, तो वे अपने बच्चों की तरह प्यार करते थे। कहते थे’भई पढ़ाना, लिखाना तो हमारा फर्ज है।क्या स्कूल, क्या घर? विद्यार्थियों से अलग से पैसा लेना सामाजिक बुराई है। सरकार हमें वेतन देती है। हमें इसी में अपना खर्च सीमित रखना चाहिये। बच्चे पढ़ लिखकर योग्य बने और नाम रोशन करें,अध्यापक के लिये इससे बड़ा गौरव और पुरस्कार हो ही क्या सकता है? फिर अपना देश तो अभी बहुत पिछड़ा है। इसे प्रतिभायें चाहिये।’
कुछ रुककर वह फिर कहने लगा,’खुले आम नकल के युग में भी कोई कुछ न कर सके तो इसमें दोष किसका है? जब कोई अपनी काँपी में कुछ लिखेगा ही नहीं तो फेल तो होना ही है। कौन नम्बर दे देगा? इसमें शिक्षक का क्या कसूर? फिर गणित के विषय में तो वह दो नम्बर से पास था। किसी ने उसे गुमराह करके भड़का दिया था। कम से कम सर से पूछ तो लेता, मगर कौन कहे। सिर फिरे ने आव देखा न ताव,पेट फाड़कर रख दिया।’ इतना कह कर वह फफक-फफक कर रो दिया।
सूरज की बात सुनकर मनफूल का मन भी भारी होगया था। उसने हाथ की चिलम अपने बचपन के साथी को थमाते हुये कहा,’देखा दीनू? क्या बुरा वक्त आ गया है। एक अपना जमाना था न खाने की फिक्र थी न सोने की। स्कूल से आकर बस्ता फेंका और चल दिये खेल के मैदान में।खूब मस्ती की छनती थी। टयूशन मरी का तो नाम भी नहीं सुना था। रही छुरे बाजी की बात ?बाप रे बाप, भला इतनी हिम्मत किसमें थी कि जो कोई सर के सामने बोल तक जाये? स्कूल में सर और घर में पिताजी। मारे डर के वैसे ही कपड़े खराब हो जाते थे। याद है न, वह ताल वाली घटना? जब सर ने हमें छलाँग लगाते देखकर कैसी खबर ली थी? घर तक जाकर चर्चा नहीं की। करते भी कैसे? उल्टी डबल मार घलती। आजकल तो लोग,बाग बातबात पर अपने बच्चों की हिमायत लेकर पहुँच जाते हैं, बेशक सारा कसूर उनके लाड़ले का ही क्यों न हो।’
मनफूल की बातों को सुनकर दीनू ने भी कह दिया,’भैया, अब पहले जैसे मास्टर भी कहाँ रहे हैं? बच्चों के प्रति ममता नाम का तो भाव ही नहीं बचा है। हो भी कैसे? सरकार की शिक्षा नीति और किताबों की तरह मास्टर भी तो रोज रोज बदल जाते हैं। अब तो सभी को अपने अपने फायदे की पड़ी है। बला से देश का भविष्य चौपट होजाये। इक्कीसवीं सदी का नागरिक कैसा होगा? अब तुम्हीं सोच लो!
( स्वामी मामा 7.11.86 डबरा)
‘नारी नर की खान है ’में नारी की व्यथा कथा का वर्णन है। इस रचना में देखने की बात यह है कि वाक्य विन्यास बहुत लम्वे हैं। जब तक वाक्य पूरा नहीं होगा तब तक हम भावों में बँधे चले जाते हैं।
नारी नर की खान है।
हम में से कौन नहीं जानता कि नारी नर की खान है। नारी माँ है। नारी उत्थान के नाम पर खरबों रुपया आज तक नष्ट करने वाले समाज सुधारकों ने नारी के नाम को जितना उछाला है शायद ही किसी से छुपा हो। कहने के लिये के लिये आज का पुरुष समाज नारी के शिक्षा और विकास के बारे में वढ़ा चढ़ाकर बड़ी-बड़ी बातें करता है। हमारे देश के संविधान में भी नारी के समान अधिकार और उत्थान का बखान किया गया है किन्तु शिक्षित नारियों का प्रतिशत कितना है, फिर उन शिक्षित में से सुखी जीवन कितनों का है अथवा शिक्षित नारियों के जीवन में शिक्षा किस रूप से महत्वपूर्ण सिद्ध हुई, यदि इन बातों का हिसाब लगाकर देखा जाये तो स्थिति अधिक लज्जास्पद हो जाती है।
पुरुष कभी सहन नहीं कर सकता कि नारी कभी उसकी दासता से मुक्त हो जाये। नारी को शिक्षित करने के पीछे भी या तो पुरुष का अपना स्वार्थ रहा है या फिर कुछ असमर्थताऐं जो विवाह के लिये सभ्य कहलाने वाले समाज ने आवश्यक शर्त के रूप में लगादी है ताकी शिक्षित बन्धु चायपार्टीयों और उत्सवों में पुरुषों का साथ दे सके अथवा विवाह के पश्चात वर पक्ष को लाभाँन्वित कर सकें। समाज में कम ही ऐसे परिवार होंगे जहाँ नारी के लिये शिक्षा आदर्श के रूप में स्वीकार करके इसका महत्व आँका गया हो।
धन के अभाव में आर्थिक कठिनाइयों से जूझते हुये जब नारी का विवाह नहीं हो पाता अथवा विलम्व से होता है अथवा पति के दुर्व्यवहार के कारण उसे नौकरी करना पड़ती है तब उसका शिक्षित होना उसे जीवित रहने का आधार तो बन जाता है किन्तु जीवित रहने के इस आधिकार के लिये उसे किन परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है इसका अनुमान तो केवल नारी ही लगा सकती है।
नरी तो जननी है ,आज भी घोड़ेगाड़ी के समान कार्य कर अपना जीवन बिता रही है। इसका जीता जागता उदाहरण देश के उन नगरों और मंडियों में प्रत्यक्ष देखा जा सकता है जहाँ सामान ढोने वाली गाडियों और ठेलों में पशु के स्थान पर महिला और पुरुष उसे खीचते हैं।
स्वाधीनता का जन्मगत अधिकार है तो सिर्फ मनुष्यत्व को ,केवल अमनुष्यत्व को नहीं। जिसमें मनुष्य की भावना नहीं है उसे तो जीने का भी अधिकार नहीं है, स्वतंत्रता तो दूर की बात है।
आज भी अधिकाँश क्षेत्रों में ग्रहस्थी का सारा कार्य, यहाँ तक कि आजीविकोपार्जन से लेकर चौके चूल्हे तक का कार्य नारी ही करती है और पुरुष वैभव भोगता है।
नारी की नारकीय स्थिति का एक और कारण भी है, वह है दहेज जो आज अपने को सभ्य समाज के ठेकेदार मानते हैं और नारी उत्थान तथा दहेज के विरोध में बड़े-बड़े भाषण झाडते हैं । उनके अपने वर्ग में नारी पुरुष के लिये उपदेशक की बस्तु से कुछ अधिक नहीं किन्तु इस व्यवसाय को सभ्य समाज द्वारा अपनाये जाने के कारण कथनी में बुरा और करनी में अनुकरणीय समझा जाता है। विवाह के लिये नारी को आर्थिक तराजू में तोला जाता है। दहेज के अभाव में कितनी ही नारी जन्मपर्यन्त मात्त्व के सुख से वंचित रह जाती हैं। कितनी ही सुन्दर-सुशिक्षित और प्रतिभावान नारी प्रतिभायें दहेज के भूखे भेड़ियों के कारण नष्ट- भ्रष्ट कर दी जातीं हैं। नारी की कोख से जन्मेंपुरुष का संविधान ही अलग है। जिसमें नारी के लिये सिवाय यातना-आजीवन दासता-अपमान -तिरस्कार-मानसिक घुटन और इन सब के साथ सहन शीलता का उपदेश। कैसी विडम्वना है!
जहाँ तक इतिहास में दृष्टि जाती है नारी जीवन की इस व्यथापूर्ण गाथा का प्रारम्भ कब से हुआ बस यही प्रतीत होता है कि प्रकृति की इस अनुपम कृति की यह शायद नियति ही है! अन्यथा समय -समय पर युग पुरुष अवतरित होते ही रहे हैं ,जिन्होंने इस दिशा में परिवर्तन लाने का अदम्य साहस दिखाया है किन्तु जब परिणाम की ओर ध्यान जाता है तो शिवाय शून्य के कुछ प्रतीत नहीं होता। शायद इसका कारण पुरुष में छिपी इसकी स्वार्थ पूर्ण अहम भावना ही हो सकती है जो पाश्विकता के बलपर नारी को इस स्थिति में रखकर सदैव उस पर शासन करना चाहता है। कहीं आदर्श और नैतिकता के नाम पर नारी को हंसते-हंसते प्राणोर्त्सग करने को बाध्य होना पड़ा तो कहीं किसी और रूप में। पुरुष को नारी की प्रगति सदा ही असह्म रही है।
यदि आर्थिक पद्धति न्याय और मानवीय सिद्धान्तों पर आश्रित होती तो समाज को नारी आश्चर्य जनक रुप से लाभाँन्वित कर सकती और जिस कार्य के वह योग्य है ,उसे करके स्वयं को उदात्त बनाती परन्तु वर्तमान उत्पादन और वितरण की व्यष्टिपरक व्यवस्था में हर एक आदमी का हाथ पडौसी के विरुद्ध आचरण करने में लगा है और जब तक एक दूसरे के मुँह का कौर पूरी तरह छीन नहीं लेता उसे चैन नहीं आता। एक की हानि दूसरे का लाभ सामान्य सिद्धान्त बन गया है। वह भी छल और कपट जीवन का दर्शन बना हुआ है। धन के लिये प्रतियोगिता तो लोभ-कपट और इसी जैसे अन्य जघन्य असामाजिक कृत्यों की शिक्षा देती है जिसके परिणाम स्वरूप नारी के चरित्र के बहुमूल्य लक्षणों से हाथ धोने पड़ते हैं।
यद्यपि स्त्री और पुरुष में यौन आर्कषण प्राकृतिक है इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि यह मात्र दो भौतिक शरीरों का मिलन ही है अपितु यह दो आत्माओं का ही शुद्ध आध्यत्मिक धोल है जो सृष्टि का सृजन कर उसे वैभवशाली और उन्नति के शिखर तक पहुँचाते हैं।
उन सभी संस्थाओं और विचारों की सामाजिक और सार्वजनिक रूप से निन्दा की जानी चाहिये जो नारी को अपने प्रकृति प्रदत्त गुणों के उच्चतम विकास में अवरोध बनता हो।नारी और पुरुष दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं अतः किसी को यह अधिकार नहीं है कि वह इनका प्रथक-प्रथक मूल्याँकन करे। और मान अपमान में एक को श्रेष्ठ और दूसरे को कनिष्ठ ठहराये। समाज में जैसा व्यवहार पुरुष के साथ हो बैसा ही नारी के साथ भी होना चाहिये। समान व्यवहार के सिद्धान्त को मानते हुऐ हमें यह बात अवश्य ही ध्यान में रखनी चाहिये कि नारी और पुरुष दोनों ही मानव हैं। दोनों ही सद्गुणी और पापी,चतुर और मूढ, बुद्धिमान और मूर्ख, प्रिय और निंध तथा निर्दयी और दयावान होते हैं और रहेंगे भी। अतः एक को अत्याधिक सम्मान देना अथवा अपमानित करना वह भी किसी लिंग विशेष को आधार मानकर न केवल अन्याय ही है वरन मानवीय सिद्धान्तों के विरुद्ध भी है । नारी और पुरुष दोनों ही प्रकृति की समान रूप से महत्वपूर्ण रचना हैं। इनमें समानता को आधार मानकर ही समाज का उत्थान सम्भव है। पुरुष के जन्म के पश्चात उसके विकाश की प्रथम क्रियास्थली माँ की गोद और उसका परिवारिक वतावरण भी शान्तिमय है तो शिशु भी स्वस्थ और सुसंस्कृत होगा। यदि जननी स्वस्थ होगी तो नागरिक स्वस्थ होगा। जब नागरिक स्वस्थ होगा तो समाज स्वस्थ होगा।स्वस्थ समाज सुदृढ़ राष्ट्र का दर्पण है। अतः भद्र व्यक्तियों के योग्य नारी को शिक्षित किया जाना चाहिये, जिससे कि वह अपने पति के कार्य में तथा समस्याओं में एक कुशल सहायक की भूमिका निभाने के साथ-साथ सभ्य और चरित्रवान बालकों की माँ कहलाने का भी गौरव प्राप्त कर सके। उन्हें इस उत्थान में स्वतंत्रता पूर्वक अपना स्थान बना सके।
योग्य बनाया जाये कि वह प्रकृति प्रदत्त प्रतिभा को विकसित करें किन्तु यह बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि जिस प्रकार स्वछंद विचरण की स्वतंत्रता का कभी-कभी गलत अर्थ लगाकर पुरुष पतन के गर्त में चला जाता है, ठीक उसी प्रकार यदि नारी भी स्वयं को निरंकुश समझकर गलत अर्थ लगा बैठें तो वह भी सम्पूर्णतः नष्ट होने से नहीं बच सकती। नारी का नष्ट होना समाज के लिये अधिक घातक है क्योंकि वह जननी है। साथ ही नारी पुरुष के लिये सर्वाधिक आर्कषक की वस्तु होने के कारण वह उसे जीवन के अधोविन्दु तक ले जा सकती है।समानता का आधार और स्वतंत्रता का अधिकार सदगुण और ज्ञान वृद्धि में होना चाहिये न कि पतन में। स्वतंत्रता और समानता का अर्थ स्वयं में प्रकृति प्रदत्त प्रतिभा और गुणों का विकास कर स्वयं को सामाजिक-आर्थिक- राजनैतिक क्षेत्रों में शिक्षा पाने योग्य बनाना है न कि स्वयं के स्वार्थ कि लिये दूसरों को हानि पहुँचाना।
योग्य और सुलक्षण नारी वह है जो स्वयं के सदगुणों को विकास कर कुशल गृहणी के रूप में सभ्य शिशुओं की माँ कहलाने का गौरव प्राप्त कर सके। किसी महान दार्शनिक ने लिखा है कि जो नारी मातृत्व को तिलाँजलि दे देती है। वह उस पुरुष के समान है जो आत्महत्या कर लेता है। पुरुष जीने के लिये जीता है जब कि नारी अपने बच्चों के लिये जीती है। नारी भोग की वस्तु नहीं है,जब तक इसे अर्थ की तराजू से तोला जायेगा तब तक राष्ट्र अंधकार मय वातावरण में रहेगा, यह ध्रुव सत्य है इस तथ्य पर पर्दा डालना अपनी प्रगति के साथ क्रूर मजाक करना है।
स्वामी मामा
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