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औघड़ किस्से और कविताएँ-सन्त हरिओम तीर्थ - 13

औघड़ किस्से और कविताएँ-सन्त हरिओम तीर्थ 13

एक अजनबी जो अपना सा लगा

परम पूज्य स्वामी हरिओम तीर्थ जी महाराज

सम्पादक रामगोपाल भावुक

सम्पर्क- कमलेश्वर कॉलोनी (डबरा) भवभूतिनगर

जि0 ग्वालियर ;म0 प्र0 475110

मो0 9425715707, , 8770554097

आँख के महत्व को सभी स्वीकारते हैं। किन्तु आँखों के महत्व को परिभाषित करने में महाराज जी ने अपनी तरह से जो बातें कहीं हैं वे हमारे जहन को उद्वेलित करने में समर्थ हैं। एक बार आप इस रचना को पढ़कर तो देखें, इसे आप जीवन भर नहीं भूल पायेंगे।

आँखें

यूँ तो इजहारे हकीकत के तरीके हैं बहुत,

आँख का अंदाजे बयाँ सबसे निराला है!

आँख में झरने छुपे हैं, आँख में मोती चमन,

आँख में सपने छुपे हैं, आँख में चैनो अमन,

आँख में मस्जिद शिवालय, आँख में गंगो जमुन,

आँख में काशी औ काबा, आँख में भक्ति भजन,

आँख में सागर सफीना, आँख में नीला गगन,

आँख में चारों दिशाऐं, आँख में इश्के वतन,

आँख में सामाँ बहुत हैं, आँख में सारे रतन,

आँख में अपने पराये, आँख में दैरो हरम,

आँख में नफरत मुहब्बत, आँख में रहमो करम,

आँख में गैरत मुरब्बत, आँख में जुल्मो सितम,

आँख में खुसियाँ हजारों, आँख में सब रंजोगम,

आँख में मस्ती गजब की, आँख में रिस्ते जख्म,

आँख में चालो-चलन है, आँख में इन्साँ के ढंग,

आँख में किस्से जहाँ के, आँख में सारे भरम,

आँख में दौलत की गर्मी, आँख में गुर्बत छुपी,

आँख में अस्मत व शौहरत,आँख में जिल्लत छुपी,

आँख में जहमत जहाँ की, आँख में हसरत छुपी,

आँख में जुल्मत हजारों,आँख में रहमत छुपी,

आँख में मासूमियत है, आँख में फितरत छुपी,

आँख में सारी हकीकत, आँख में किस्मत छुपी,

आँख में तर्जे बयाँ है, आँख में कुदरत छुपी,

आँख में मजमून सारे, आँख में सारा जहन,

आँख में अर्श छुपा, बात बचपन की छुपी,

आँख में जर्फ छुपा, लाज कमसिन की छुपी,

आँख में तौर छुपा, हूक जोबन की छुपी,

आँख में दौर छुपा, टीस दुल्हन की छुपी,

आँख में फर्ज छुपा, आह बिरहन की छुपी,

आँख में राज छुपा, पीर जोगन की छुपी,

आँख में मदिरा की शोखी,आँख में दुनियाँ के रंग,

जाँ पे बन जाती है, आँख चढ़ जाये अगर,

जाँ पे बन जाती है, आँख जल जाये अगर,

जाँ पे बन जाती है, आँख झुक जाये अगर,

जाँ पे बन जाती है, आँख भर जाये अगर,

जाँ पे बन जाती है, आँख आ जाये अगर,

जाँ पे बन जाती है, आँख लड़ जाये अगर,

जाँ पे बन जाती है, आँख मिल जाये अगर,

आँख के तेवर बदलते सब बदल जाते हैं रंग,

स्वामी मामा

डबरा म0प्र0 475110

महाराज जी की ‘राष्ट्र को आव्हान ’रचना भी इसी तरह की है। राष्ट्र के प्रति हमारे क्या कर्तव्य हैं,रचना स्व्यम् मुखरित हो उठी है-

‘राष्ट्र को आव्हान’

मातृभूमि के वीर सपूतो,माँ ने तुम्हें बुलाया है।

लुटा मिटा दो तन मन धन को, यह संदेश पठाया है।।

आपस में लड़ना छोड़ो अब, तुम्हें देख माँ विकल हो रही।

हृदय धधकता फटती छाती,आँखें उसकी सजल हो रहीं।।

तोड़ दयीं सब मर्यादायें, भुला रहे अपना अतीत।

दावानल की अग्नि में अब, झुलस रहे हैं अपने मीत।।

प्रजातंत्र का राज है कहते, लोकतंत्र का नारा है।

लोक कटा है,तत्रं प्रथक है,ऐसा हाल तुम्हारा है।।

हाहाकार, रूदन,क्रन्दन ओ,उत्पीड़न कुन्ठा का ज्वर।

सभी सहन है कैसे तुमको,डूब रहे तुम क्यों मझधार।।

तनी हुई है सबके सर पर,वह देखो नंगी तलवार।

समय गवाया पछताओगे,नहीं बचेगा कोई बार।।

भूल गये क्या उन वीरों को, भूल गये उनका वलिदान?

भूल गये गौरव गाथायें, भूल गये अपनों का ध्यान?

कैसे तुम हो राष्ट्र प्रहरी, कब तक तुम मदहोश रहोगे?

कैसे सहन तुम्हें हैं शोषण, कब तक यूँ खामोश रहोगे?

है नहीं शोभता वत्स तुम्हें, आजादी का उपहास करो।

कुर्सी ,धन ,वैभव की खातिर,अपनों का ही हृास करो।।

है सभी लाड़ले जननी को, क्यों विष के बीज उगाते हो।

सब नष्ट भ्रष्ट हो जाओगे, निज हाथों भाग्य मिटाते हो।।

क्या देख नहीं तुम रहे धरा पर,किसने सबको भरमाया है।

कोई और नहीं, यह दानव है, मानव का वेष बनाया है।।

पर अभी वक्त है चेत करो,दानवता नंगी नाच रही।

मानव का रक्त बचाना है, सन्देश तुम्हें भिजवाया है।।

आव्हान करती है तुमको,वीर धीर तुम हो महान।

कायरता को छोड़ उठो अब,कर दो सब कुछ तुम वलिदान।।

अभी समय है होश सभ्भालो,माँ अब तुमको रही पुकार।

‘क्रान्तिदूत’ बन बिगुल बजा दो,इसमें सबका है उद्धार।।

(स्वामी मामा डबरा म0प्र0 475110)

महाराज जी ‘दीपिका’ रचना के माध्यम से अपना सन्देश हमें यों सुनाते हैं।

दीपिका

क्या करोगे दीपिका घर में जलाकर,

चाँद जब नभ से उतर कर आ गया है।

भावना कैसे दबी अब रह सकेगी,

जब तपन का ज्वार मन में आ गया है।।

कौन कहता स्वर्ग धरती से कहीं अन्यत्र है,

जब सुवासित मलय सा वातावरण सर्वत्र है।

रूप का श्रंगार अब पूरा हुआ,

जब दृगों में आज कोई छा गया है।।

आज सारा भ्रम हृदय का मिट चुका है,

अर्ध विकसित जो था पंकज खिल चुका है,

अब नेह का दीपक जला कर क्या करोगे,

जब स्नेह से आँगन प्रकाशित हो गया है।

युगों युगों से साध मन में पल रही थी,

अपनी परछाँईं स्वयं को छल रही थी,

अब विरह के गीत गाना व्यर्थ है,

जब स्वयं, बटोही द्वार तेरे आ गया है।।

स्वामी मामा डबरा

महाराज जी ‘प्रीति के अच्छरों से’ हमें यों परिचित कराना चाहते हैं।

प्रीति के अक्षर.....

प्रीति के अक्षर लिखे अब जायेंगे,

तो हृदय के कपट स्वतः खुल जायेंगे,

मूक रहना फिर कठिन होगा ,प्रिय,

रहस्य नयनों से सभी खुल जायेंगे,

प्रीति के अक्षर.....

तो हृदय के......

स्नेह के पथ पर ज्युँही,

आरूढ़ तुम हो जाओगी,

देख कर दर्पण, प्रिय

खुद से ही तुम शर्माओगी,

और अधूरे स्वप्न, तव

साकार फिर हो जायेंगे।

प्रीति के अक्षर.....

तो हृदय के......

स्पर्श पा वायू तुम्हारा,

गंधमय हो जायेगी,

पा प्रियतम को निकटतम,

खुद की सुध खो जयेगी,

स्नेह आलिंगन-मधुर पावन, प्रिये,

लख, शुष्क पल्लव भी हरे हो जायेगे।

प्रीति के अक्षर.....

तो हृदय के......

पा निमंत्रण स्नेह का

हर कली मुस्कायेगी,

पुष्प अधरों पर खिलेंगे,

हर तपन बुझ जरयेगी,

मन को समझाना कठिन होगा, प्रिय जब

तार चुनरी के सभी रंग जायेंगे।

प्रीति के अक्षर.....

तो हृदय के......

प्रस्फुटित होंगे अधर पर,

बोल गीतों के थिरकते,

नींद से बोझिल नयन,

थक जायेंगे जब राह तकते।

रोक पाना फिर कठिन होगा,प्रिय,

लाज के बन्धन सभी खुल जायेंगे।।

प्रीति के अक्षर.....

तो हृदय के......

( स्वामी मामा डबरा)

कालचक्र कविता में महाराज जी ने समय की गति के स्वरूप को बड़े ही सुन्दर भावों में संजोया है।

कालचक्र

शून्य में राह तक रहा था,

चाहे अनचाहे, अचेतन में,

भूल बैठा था निज का भान।1।

खोया खोया सा, कहीं झाँक रहा था,

डूब गया था, शायद कुछ खोज रहा था,

पर क्या, कहाँ, कुछ भी नहीं ध्यान।2।

किन्तु, यह सच है मैं यहाँ न था,

शायद अंधकार में, कुछ सोच रहा था,

पर क्या, कुछ याद नहीं, सचमुच वेसुध था।3।

चौका, कुछ ठिठका, समाधी टूट गई,

धीरे धीरे , कुछ आहट पाकर अकस्मात,

जैसे नींद में था,आँख खुल गई।4।

शायद कोई पीछे पीछे, चुपके चुपके,

आ रहा है, पीछा कर रहा है,साये की तरह,

पर कौन , और क्यों? 5।

ओह! तो तुम हो अतीत, लेकिन,

तुम तो इतने भयानक न थे,

नहीं नहीं ,भ्रम है, विचित्र क्रम है।6।

तो क्या तुम भविष्य हो?

नहीं नहीं , वह तो मधुर है,

सलौना है,सुनहरी है, सुन्दर है।7।

अच्छा तो तुम वर्तमान हो?,

शुष्क-चर्म, अस्ति-पिंजर,

आत्मा रहित ,चलते फिरते इंसान हो।8।

ओह! कितना भयानक रूप है,

न दुख है न सुख , न जीवन, न मृत्यु,

ठीक नर कंकाल का स्वरूप है।9।

नहीं ये भी नहीं, तो फिर कौन हो?

तो सुनो!

मानव न सहीं मानव की प्रतिछाया हूँ , मतदाता हूँ,

स्मृति हूँ, आशा हूँ, अहसास हूँ जीवित हूँ, इंसान हूँ,

चौको मत, मैं अतीत हूँ ,भविष्य हूँ, वर्तमान हूँ।10।

स्वामी मामा डबरा

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