इसमें कोई दो राय नहीं कि एक ही सोच..विषय एवं एक ही ध्येय को ले कर हर एक की अपनी अपनी समझ..मत..सोच..विचार एवं अप्रोच हो सकती है। इसी तरह upsc के अभ्यर्थियों के संघर्ष..सफलता..असफलता को ले कर उनकी तमाम तरह की जद्दोजहद को किताब के ज़रिए हिंदी में सामने लाने का दुरह कार्य बहुत से लेखकों ने अपने अपने ढंग..समझ एवं खुद के द्वारा तय किए गए मापदंडों के अनुसार किया है।
उनमें से किसी ने सतही तौर पर खुद की देखी भाली घटनाओं को बस जस का तस शब्दों में उतार दिया तो किसी ने उसी सच्चाई में अपनी तरफ़ से कल्पना या फिर हास्य का मिश्रित तड़का लगा उसे पठनीय बनाने का प्रयास किया।
दरअसल मेरे हिसाब से जब भी कभी एक जैसे विषय को ले कर लिखी गयी किताबों को पढ़ने का मौका मिले तो उनकी पठनीयता का सारा दारोमदार उसके अलग ट्रीटमेंट पर आ कर टिक जाता है।दोस्तों..आज मैं इसी upsc के विषय पर आधारित एक ऐसे उपन्यास के बारे में बात करने जा रहा हूँ जिसे उसके लेखक सुरेंद्र मोहन जी ने 'हौसले की ऊँची उड़ान' शीर्षक दिया है।
इस उपन्यास को पढ़ते वक्त मन में ऐसे ही उमड़ते घुमड़ते एक ख्याल मन में आया कि..
किसी भी किताब को लिखने से पहले लेखक के मन में यह विचार आना बेहद ज़रूरी है कि इस किताब के भावी पाठक कौन होंगे? क्या इसे महज़ आत्म संतुष्टि के लिए या किसी खास तबके या उम्र के लोगों के लिए लिखा जा रहा है अथवा इस किताब की व्यापक पहुँच बनाने के इरादे से इसे आम जनमानस के लिए लिखा जा रहा है?
खैर..तमाम तरह के विचारों और ख्यालों को तिलांजलि दे अब सीधे सीधे चलते हैं इस उपन्यास की कहानी की तरफ़।
इस उपन्यास में std बूथ पर कार्य करने वाले एक ऐसे निम्न मध्यवर्गीय युवा की बात है जो तमाम तरह के उपहास..उपेक्षा..हताशा और अवसाद के बीच भी अपनी ज़िद.. अपनी हिम्मत..अपनी लगन अपनी अथक मेहनत एवं जिजीविषा के बल पर आई.ए.एस बनने का सपना देखता है और एक दिन थोड़ी बहुत तब्दीली के साथ अपने,खुद के द्वारा तय किए गए लक्ष्य, को हासिल भी कर लेता है।
इस उपन्यास में कहानी है कचहरी में वकील के यहाँ बतौर मुंशी कार्य कर रहे मोहन के पिता रामकृष्ण की दिक्कतों भरी मजबूरी एवं बेबसी की। जो अपने तमाम चाहने के बावजूद भी ना अपने जर्जर हो रहे घर को ठीक से मेंटेन कर पाता है और ना ही अपने बच्चों का सही से पेट भर पाता है। बावजूद इसके वह फिर भी अपनी तरफ़ से भरसक प्रयास करता है कि उसका बेटा मोहन पढ़ लिख कर किसी अच्छे मुकाम तक पहुँच जाए।
इस उपन्यास में कहानी है उस ममतामयी माँ, छाया की जो सदैव अपने बेटे की सलामती एवं कामयाबी की दुआ माँगती रहती है। इसमें बातें हैं उस स्नेहिल छोटे भाई एवं छोटी बहन की जो अपनी बचत तक मोहन पर न्योछावर कर देते हैं कि उसे किताबें खरीदने या फ़ीस भरने में दिक्कत ना हो। इसमें बातें हैं उस घमंडी अकडू शोरूम मैनेजर, जिसने मोहन का 22 दिनों का मेहनताना तक देने से इनकार कर दिया था, समेत उन सभी यार दोस्तों और जान पहचान वालों की जिन्होंने सदैव मोहन के सपनों का मखौल उड़ा उसे हरदम नीचा दिखाने का प्रयास किया। इसमें बातें हैं जीवटता से भरे उस मोहन की, जिसमें लोगों के तानों और प्रताड़ना भरी बातों ने एक बड़ा अफ़सर बन, सबका मुँह बन्द करने का ज़ुनून भरा।
कहीं इस उपन्यास में सरकारी लालफीताशाही के चले फैलोशिप के पैसों के समय पर ना आने की बात जानने को मिलती है। तो कहीं इसमें उसी फैलोशिप के मिलने वाले पैसों से घर पक्का करवाने, चमकता दमकता टाइलों वाला मय शॉवर शौचालय बनवाने एवं बढ़िया पौष्टिक भोजन..नए कपड़े, बढ़िया मोबाइल के साथ साथ वुडलैंड के महँगे वाले जूते लेने के भी मंसूबे पाले जाते दिखाई देते हैं।
इस उपन्यास में कहानी है गिर कर उठते.. उठ कर गिरते और फिर संभल संभल कर उठते उस मोहन की जो तमाम तरह की विपरीत परिस्थितियों के बावजूद अपनी ज़िद.. अपनी मेहनत..अपनी जिजीविषा..अपनी हिम्मत के बल पर सफ़लता को तो पा लेता है लेकिन...
लगभग पूरी तरह से सीरियस नोट पर चल रहे इस उपन्यास में राहत का एक पल भी चेहरे पर मुस्कुराहट लाता हुआ प्रतीत हुआ जिसमें मोहन, अपनी प्रेमिका, छाया को पहली बार प्रेम पत्र लिखने की बात सोचते समय, उसे प्रभावित करने के मकसद से, चूहे के खून से प्रेम पत्र लिखने की सोचता है।
कहीं इस उपन्यास में मूलतः अंग्रेज़ी में लिखी गयी 'आई.ए. एस' की किताबों के हिंदी अनुवाद के एकदम चलताऊ किस्म के होने का पता चलता है । तो कहीं इस उपन्यास के कथानक में एक और चीज़ प्रभावित करती दिखाई देती है कि उपन्यास का नायक मोहन, जो कि एक गरीब परिवार का लड़का है, अपने बड़े भाई की शादी में अपने लिए नए कपड़े खरीदने के बजाय उन्हीं पैसों से अपनी अपनी आई.ए.एस की तैयारी हेतु किताब खरीदना बेहतर समझता है।
कहीं यह उपन्यास इस बात ओर 'सोलह आने सही' की मोहर लगाता दिखाई देता है कि..
कोई भी व्यक्ति स्थायी रूप से अच्छा या बुरा नहीं होता। यह सब परिस्थितियों पर निर्भर करता है और इन्सान उन्हीं के अनुसार कार्य करता है। कहीं यह उपन्यास ग़रीब के शरीर की उस निवेश से तुलना करता दिखाई देता है जिसमें..जितना मर्ज़ी खर्च करने पर याने के मेहनत करने पर भी मूलधन कम नहीं होता अर्थात शरीर कभी कमज़ोर नहीं पड़ता।
सीधी..सरल भाषा में लिखे गए इस उपन्यास की कहानी कहीं कहीं बिना किसी लागलपेट या भारी उतार चढ़ाव के बुद्धिजीविता से भरी बातें करती दिखाई दी। पूरे उपन्यास मे कुछ जगहों पर एक जैसी बातें बार बार रिपीट होती हुई दिखाई दी तथा वर्तनी की त्रुटियों ने भी अपनी तरफ़ ध्यान खींचा।
अंत में चलते चलते एक महत्त्वपूर्ण बात कि...
यह सही है कि बड़े..लंबे वाक्य लेखक के लेखन सामर्थ्य एवं कौशल को प्रचारित एवं पाठकों को प्रभावित करते हैं लेकिन उनमें भी ऐसा होना चाहिए कि बढ़ते वाक्य के साथ पाठक को नयी जानकारी इस प्रकार मिलती जाए जो कि उसकी स्मृति में साथ साथ अपनी जड़ जमाने में सक्षम हो । इसके बजाय ऐसा नहीं होना चाहिए कि...'आगे दौड़ और पीछे छोड़।' उपन्यास के शुरू में ही मेरा इस बात की तरफ़ ध्यान गया जब मुझे उपन्यास के पहले पेज याने के पेज नंबर 9 पर दिखा दिखाई दिया कि..
"मोहन के शरीर की हड्डियों पर हैंगर की तरह लटका सस्ता स्वेटर स्वयं को सर्द थपेड़ों को रोकने में नाकाफी होने की ग्लानि से आस्तीनों को बगल में दबाए अपनी पराजय पर मोहन की पतली सी गरदन को निगल लेना चाहता था, लेकिन यह आसन भी मोहन को कड़कती ठंड से छुटकारा दिलाने में नाकाफी ही था।"
यूँ तो यह उपन्यास मुझे लेखक की तरफ़ से उपहारस्वरूप प्राप्त हुआ मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि बढ़िया क्वालिटी में छपे इस 200 पृष्ठीय उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है प्रभात पेपरबैक्स ने और इसका मूल्य रखा गया है 300/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।