सुलेख की समस्या Anand M Mishra द्वारा बाल कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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सुलेख की समस्या

कोरोना संकट के बाद विद्यालय खुल गए हैं। बच्चों का आना शुरू हो गया है। एक परिवर्तन जो स्पष्ट दिखाई देता है – वह है उनकी अभ्यास पुस्तिका। बच्चों की अभ्यास पुस्तिका देखने से एक बात का पता लगता है कि पहले से मौजूद मुद्दों के अलावे अब सुलेख की समस्या आनेवाली है। पहले जहाँ बच्चों की अभ्यास पुस्तिका को देखने से मन गदगद हो उठता था। सोने के अक्षरों की तरह लिखावट से मन मंत्रमुग्ध हो जाता था। अब उन्हीं बच्चों की अभ्यास पुस्तिका को देखकर मन खिन्न हो जाता है। इतना तो निश्चित है कि बच्चों ने जब से कंप्यूटर, मोबाइल आदि का प्रयोग करना आरम्भ किया है – उनके सामने लिखने की समस्या आ गयी है। बच्चे लिखना पसंद नहीं करते। कंप्यूटर पर ही टंकन के कार्य को करना पसंद करते हैं। पहले जहाँ बच्चे विद्यालय में दिए दत्तकार्य को हाथ से करते थे, वहीँ बच्चे अब कंप्यूटर से मुद्रित करवा कर लाते हैं। इससे बच्चों की मौलिकता तथा रचनात्मकता समाप्त हो जाती है। इससे निश्चित रूप से उनकी लिखने की क्षमता में कमी होगी। लिखने से वे भागेंगे। शिक्षा भी उसी प्रकार की बनायी जा रही है। सीबीएसई द्वारा कक्षा नवीं से लेकर बारहवीं तक के बच्चों के लिए बहुविकल्पीय प्रश्नों पर आधारित परीक्षा होनेवाली है। इसमें ओएमआर पत्रक पर परीक्षा ली जाएगी। पूरी प्रक्रियाओं के दौरान लिखने की बात ही नहीं है। इस स्थिति के लिए भले ही हम कोरोना को कोस लें। लेकिन इन परिस्थितियों का दूरगामी प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। बच्चे भी अब आभासी कक्षा का आनंद लेना पसंद करते हैं। लिखने की आदत छूटने की वजह से बच्चों के लिखने की क्षमता घटने के साथ-साथ उनकी भाषा भी बिगड़ रही है। बच्चे खुलकर बोल भी नहीं सकते हैं। भाषा में इतनी अशुद्धियाँ रहती हैं कि कह नहीं सकते। रही-सही कसर लघुसन्देश की प्रक्रिया ने बिगाड़ दी है। लघुरूप से लिखने से किसी भी भाषा का विकास नहीं हो सकता है। भले ही थोड़ी देर के लिए वह उचित लगता हो। खासकर यह समस्या अंग्रेजी में अधिक है। हिंदी में मात्राओं की गलतियां और अंग्रेजी में शब्दों के लघुरूप की वजह से भाषा काम चलाऊ या चलताऊ हो गई है। हमारे समय में अध्यापक हस्तलेखन या सुलेख पर अधिक ध्यान देते थे। सुलेख के लिए अलग से अंक दिए जाते थे। बच्चे भी काफी संभल कर लिखते थे। लेकिन अत्यधिक प्रतियोगिताओं के कारण समय बदल रहा है। इतना तो निश्चित है कि लिखने का मन होने से रचनात्मकता में वृद्धि होती है। बच्चों में एकाग्रता बढ़ती है। अब बच्चे कक्षा में अभ्यास पुस्तिका में कुछ लिखना ही नहीं चाहते। लिखने के लिए कहने से बाजार से खरीद लेते हैं। बाजारवाद शिक्षा के क्षेत्र में धडल्ले से आ गया है। बच्चों की पढ़ाई के लिए सहायता-सामग्री की भरमार बाजार में है। विभिन्न प्रकार के टेस्ट पेपर, सैंपल पेपर बाजार में आने से उन्हें लिखने की जरूरत नहीं लगती है। अभ्यास-पुस्तिका के नहीं होने से उनकी लिखने की गति एकदम घट जाती है। परीक्षा के समय उनकी शिकायत समय के कम होने की रहती है। उनकी परीक्षा अधूरी रह जाती है। कंप्यूटर पर टंकण से बहुत-से बच्चों की उंगलियां सुन्न होने की शिकायत मिली है। कागज पर लिखने से इस प्रकार की समस्या को कभी जानने-सुनने का अवसर नहीं मिला है। अब एकमात्र उपाय तो यही लगता है कि बच्चों में लिखने की आदत वापस बनाने के लिए सुलेख को पुनः अपनाना ही होगा। अच्छी लिखावट से ही किसी के व्यक्तित्व की पहचान हो सकती है।