The Author Ruchi Dixit फॉलो Current Read पश्चाताप. - 13 By Ruchi Dixit हिंदी फिक्शन कहानी Share Facebook Twitter Whatsapp Featured Books सनातन - 1 (1)हम लोग एक व्हाट्सएप समूह के मार्फत आभासी मित्र थे। वह लगभ... सही या गलत... कहते हैं इंसान वही जिसमें इंसानियत जिंदा हो.... लेकिन कभी कभ... ख़्वाबों की दुनिया में खो जाऊं "मेरी उदाशी तुमे केसे नजर आयेगी ,तुम्हे देखकर तो हम मुस्कुरा... सपनों की राह पर वो लड़की साधारण सी है, लेकिन उसके सपने साधारण नहीं हैं। उसकी... दरिंदा - भाग - 11 अल्पा को इस तरह अचानक अपने घर पर देखकर विनोद हैरान था उसे सम... श्रेणी लघुकथा आध्यात्मिक कथा फिक्शन कहानी प्रेरक कथा क्लासिक कहानियां बाल कथाएँ हास्य कथाएं पत्रिका कविता यात्रा विशेष महिला विशेष नाटक प्रेम कथाएँ जासूसी कहानी सामाजिक कहानियां रोमांचक कहानियाँ मानवीय विज्ञान मनोविज्ञान स्वास्थ्य जीवनी पकाने की विधि पत्र डरावनी कहानी फिल्म समीक्षा पौराणिक कथा पुस्तक समीक्षाएं थ्रिलर कल्पित-विज्ञान व्यापार खेल जानवरों ज्योतिष शास्त्र विज्ञान कुछ भी क्राइम कहानी उपन्यास Ruchi Dixit द्वारा हिंदी फिक्शन कहानी कुल प्रकरण : 15 शेयर करे पश्चाताप. - 13 (5) 2.2k 5.5k निशा का बर्ताव पूर्णिमा के प्रति दिन प्रतिदिन अपमानजनक हो रहा था कि , एक दिन चिल्लाते हुए " हाय राम! तंग आ चुकी हूँ मै इन लोगों से जीना हराम कर रखा है आज को फैसला होकर रहेगा इस घर मे मै रहुँगी या ये |" कहते हुए पूर्णिमा के बेटे को दो थप्पड़ जड़ दिये | चिल्लाने और बेटे के रोने की आवाज सुनकर पूर्णिमा किचन से निशा के कमरे की तरफ भागती है | पूर्णिमा बेटे को चुप कराती हुई "क्या हुआ निशा? " निशा क्या करेंगी जानकर? वो देखिये इतना महँगा लिपस्टिक सेट शादी मे बाहर से मँगवाया था | सब बर्बाद कर दिया , इसे ठीक कर सकती हैं आप? रोज कुछ न कुछ नुकसान माँफ करो दीदी! अब बर्दाश्त नही होगा मुझसे | " यह कह वह कमरे से बाहर चली गई | पूर्णिमा की आँखें उच्छ्वास के साथ भर आई | निशा का कमरा साफ कर अपने कमरे आकर बिस्तर पर इस प्रकार निढाल होती है कि आज न जाने कितना परिश्रम कर लिया हो | तभी अचानक कुछ सोचकर वह अपनी अटैची खोलती है और उसमे से एक लाल रंग का फोल्डर निकालती है और उसे हाथ मे लेकर गहरी सोच मे डूब जाती है कि तभी चेहरे पर आशा की किरण उभर माथे की सिलवटे मिटाने लगती हैं | अगले दिन सुबह गृहकार्य से निवृत्त वह उस फोल्डर को लेकर निकल पड़ती है कि रास्ते मे अचानक किसी को देखकर पूर्णिमा स्तब्ध बीच मे ही बस रुकवा उतरकर उसके पीछे चल पड़ती है | बहुत दूर कई संकरी गल्लियों से गुजरती हुई आगे से बीहड़ मकान के बाहर आकर रुक गई जहाँ किवाड़ मातृ औपचारिकता जैसे एक फटका उठाकर चिपका दिया गया हो , कुछ देर बाहर उसी अवस्था मे खड़ी रही कि सफेद साड़ी मे शुष्क वदन फिर भी मुख पर निर्मला का आभाष कराते वही महिला बाहर निकलती है जिसका पीछा करते पूर्णिमा यहाँ तक पहुँची थी स्वंय मे ही खोई हुई कोई उसे ताड़ रहा है उसे यह भी आभाष न हुआ , जैसे ही चलने को होती है कि पीछे से आवाज सुन "प्रतिमा ! " ठिठक जाती है, आवाज जानी पहचानी बिना पीछे मुड़े ही आँखो से निकल आँसुओं की धार उसके गालो को भिगोने लगती है | पूर्णिमा पुनः आवाज मारती इस बार सामने आकर खड़ी हो जाती है और उसे लिपटकर एकसमान अवस्था मे फूट कर रोने लगी " क्या हुआ प्रतिमा ऐसे कैसे हो गई तू ? क्या हाल हो गया तेरा ? यहाँ कैसे एक साथ कई सारे प्रश्न पूर्णिमा ने पूँछ डाले | पूर्प्णिमा के प्रश्नो ने जैसे प्रतिमा के हाथ धर दिये हों वह बिना कुछ कहे फिर से फूट -फूट कर रोने लगी | पूर्णिमा प्रतिमा को सम्भालती हुई " बता क्या हुआ ? और तेरा ये हाल ? प्रतिमा " तक्दीर ने किया है? " तू तो अपने पति के साथ थी न? कहाँ है वो ?" पूर्णिमा एक बार फिर से दहाड़े मारकर रोने लगी | इस बार पूर्णिमा उसे शान्त करा ध्यान बाँटने की कोशिश करने लगी | कुछ देर इधर उधर की बाते करने के बाद प्रतिमा पूर्णिमा को अन्दर उसी आठ बाई दस के कमरे मे ले जाती है एक मुँह वाले चूल्हे के बगल मे छोटा सा सिलेन्डर वही दूसरे कोने मे सिरहाने पर दरी के साथ लिपटा चद्दर जो सोने के बाद समेट कर रखा गया था , दो चार बर्तन एक छोटा सा नीला डिब्बा संभतः इसमे भोजन बनाने का कुछ सामान होगा में कुछ ढूँढती हुई अंततः पानी का ग्लास पूर्णिमा को थमाते हुई " कैसी पूर्णी ?" मै ठीक हूँ तू कैसी है ? पूर्णिमा ने प्रतिमा की आँखों मे गौर से देखते हुए | प्रतिमा के आँसू आँखो से पुनः झाँकने लगे जो अभी कुछ देर पहले ही विश्राम को प्राप्त हुए थे | तभी पूर्णिमा की नजर प्रतिमा के पति की तस्वीर पर गई पूर्णिमा को समझते देर न लगी वह प्रतिमा से लिपट दोनो ही दहाड़े मार रोने लगीं | पूर्णिमा प्रतिमा को सम्भालती हुई "इतना कुछ बदल गया तूने मुझे बताया भी नही ?" " चल अब मेरे साथ चल !" कहते हुए पूर्णिमा प्रतिमा की बाँह पकड़ उठाने की कोशिश करती है कि तभी " कहाँ ले चलेगी पूर्णी मुझे तू तुम तो स्वंय अपने भाई भाभी के आधीन हो |" यह सुन पूर्णिमा ठिठक कर प्रतिमा की तरफ आश्चर्य से भर देखने लगी " हाँ पूर्णी मै तेरे घर गई थी भला जाती भी क्यों न तेरे अलावा मुझे मेरे दुखः मे अपना कोई न लगा | सारे रिश्ते नाते सब झूठे समय ने सबके मुखौटे उतारकर रख दिये | जो समय की अनुकूलता मे हार्दिक आत्मीयता प्रदर्शित किया करते थे | ऐसे समय पर केवल तेरी याद आई पर वहाँ पहुँचने पर तेरे बारे मे पता चला | बच्चे कैसे है पूर्णी ? अच्छे है | अब तो वे दोनो बड़े हो गये होंगे | पूर्णिमा "हम्म ! " प्रतिमा अच्छा और बता जीजाजी फिर लौटकर नही आये तेरे घर छोड़ने के बाद? सबकुछ यहीं पूँछ लेगी या मेरे साथ चलेगी भी ? " कहाँ ले चलेगी पूर्णि मुझे? पूर्णिमा "अपने साथ " तू तो खुद आधीन है |" पूर्णिमा नही ! आज से नही !! अब मेरी सहेली ,मेरी दोस्त , मेरी ताकत तू जो आ गई हम अपना आशियाना खुद बनायेंगे | " अब बाते बन्द कर चल मेरे साथ | दोनो चलने को होती है तभी प्रतिमा पूर्णिमा के हाथों से गिरा लाल रंग का फोल्डर ठाते हुए बहन जी यह तो यहीं गिराकर पड़ी | ओह ! पूर्णिमा अपनी गल्ती का अहसास करती झट से प्रतिमा के हाथ से ले लेती है | प्रतिमा सशंकित मुद्रा मे क्या है पूर्णी इसमे ? सब बाद मे बताऊँगी पहले यहाँ से चल | घर मे जैसे ही दाखिल बेटे के रोने की आवाज सुनाई पड़ती है जो बाहर रोता हुआ पूर्णिमा की ही प्रतिक्षा कर रहा था | पूर्णिमा ने उसे गोद मे उठाकर आँसू पोछते हुए हृदय से लगा लिया और उसे चुप कराती हुई " देख मै अपने साथ किसे लेकर आई हूँ " माँछी " | प्रतिमा पूर्णिमा के हाथ से बेटे को लेकर बहलाने लगती है थोड़ी देर मे ही वह प्रतिमा से इस प्रकार घुल गया जैसे वह उसे पहले से ही जानता हो | ‹ पिछला प्रकरणपश्चाताप. - 12 › अगला प्रकरण पश्चाताप. - 14 Download Our App