पश्चाताप भाग -5 Ruchi Dixit द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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पश्चाताप भाग -5

सुबह प्रतिमा से मिलने न जा पाने के कारण, पूर्णिमा रात भर उसी के बारे मे सोचती रही | आखिर क्या हुआ होगा ! क्यो नही आ रही! कही बिमार तो नही हो गई न! मै कल जरूर जाकर पता करूँगी ! चाहे कुछ भी हो जाये ! | यही सोचते हुए पूर्णिमा को कब नींद आ गई पता ही न चला, पति से पूर्णिमा के संवाद तो पहले से ही बन्द थे, किन्तु उसकी नजदीकी का वह कभी विरोध न करती , किन्तु आज प्रतिमा की चिन्ता पति की इच्छा का भी उलंघन कर गई| सुबह उठते ही जैसे ही वह प्रतिमा के घर जाने के लिए तैयार होती है , इससे पहले ही कुण्डी खड़कने का आवज आती है जिसे सुन वह गेट खोलती है | सामने प्रतिमा बड़ा सा सूटकेस और एक बैग लिए , थोड़ी दूरी पर दो सूटकेस और एक बड़े बैग के साथ उसका पति शायद प्रतिमा का ही इंतजार कर रहा था | पूर्णिमा आश्चर्य से कुछ पूछती, इससे पहले ही ,प्रतिमा बोल पड़ती है, "इनका ट्रान्सफर बरेली हो गया है ! इसलिए हमे जाना होगा !| यह बात सुनते ही पूर्णिमा की आँखो मे आँसू आ गये | तुम जा रही हो! मुझे अकेला छोड़कर! कैसे रहुँगी तुम्हारे बिना! |प्रतिमा ने थोड़ा उत्साहित शब्दों से पूर्णिमा को समझाते
हुए अब आप अकेली कहाँ हो ! हमारी गुड़िया रानी है न !और अब तो आपके पति भी घर आ गये हैं ! | " पर, तुम्हारी कमी कोई पूरी नही कर सकता! | पूर्णिमा की बात सुन प्रतिमा की आँखों मे भी आँसू आ गये | दोनो सहेलियाँ लिपटकर रोने लगी | तभी पीछे से प्रतिमा के पति की आवाज आती है, "अरे भई ! चलो न हमे देर हो जायेगी ! |" प्रतिमा खुद को सम्भालती हुई, पूर्णिमा के आँसू पोछते हुए, "तुम्हारी भी कमी कौन पूरी करेगा? मेरी एक ही तो सहेली हो तुम! | हम दुबारा मिलेंगे ! तुमसे मिलने आती रहुँगी न!, तभी पति के दुबारा आवज मारने पर हड़बड़ाते हुए प्रतिमा, पूर्णिमा के हाथ मे एक लाल रंग का पैकेट पकड़ाती हुई , यह मेरी गुड़िया के लिए है | पूर्णिमा कुछ कह पाती इससे पहले ही चलते -चलते आप अपना और गुड़िया का ध्यान रखना | प्रतिमा का जाते हुए आखिरी शब्द आप उदास मत होना ! मै आपसे मिलने आऊँगी! , यह कहते हुए वह ओझल हो जाती है | पूर्णिमा गेट पर ही खड़ी देर तक उसी रास्ते को निहारती रही, जिसपर प्रतिमा अभी गई थी | आज पूर्णिमा को ऐसा लग रहा था , जैसे उसकी सबसे कीमती चीज कही खो गई हो | प्रतिमा का जाना उसे अंदर ही अन्दर कचोट रहा था | उसका मन आज किसी काम मे नही लग रहा था | रह -रह कर उसे अपनी और प्रतिमा के बीच की बाते हँसना, ठठोली करना याद आ रहा था | वह पुरानी यादों मे इस प्रकार खोई थी कि कभी ठहाके मार हँस पड़ती तो कभी स्थिति का भान होते ही उसकी आँखें भर आती | प्रतिमा को गये छः महीने बीत चुके थे, सारी शिकायतो को भूलकर, पूर्णिमा पति की तरफ आकर्षित होने लगी थी | उसे लगने लगा था कि अब सबकुछ ठीक हो गया है | कि एक रात पूर्णिमा ने अपना वह ट्रंक खोला जिसमे वह अपनी बेटी के लिए पैसे इक्ट्ठा किया करती थी, ट्रंक खेलते ही मानो उस पर बिजली गिर पड़ी हो | उसमे से पैसे गायब थे | वह समझ नही पा रही थी कि यह कैसे हुआ, उधर पूर्णिमा का पति भी काम पर जा रहा हूँ ! यह बोलकर दो दिन से घर नही आया था | अब तक की सारी जमा पूँजी जाने से पूर्णिमा पूरी तरह टूट चुकी थी | उसका किसी काम मे मन न लगता कि अचानक एक दिन कुछ ऐसा मिलता है , जिससे वह समझ जाती है , कि यह सब उसके पति ने किया है | उसे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि जैसे किसी ने उसे धोखे से जहर पिलाकर तड़पता छोड़ दिया हो | एक बार तो मन किया कि खुद को समाप्त ही कर इस पीड़ा से ही मुक्त हो जाये किन्तु तभी, उसे अपनी सहेली प्रतिमा की बात याद आने लगी जो अक्सर वह दोहराया करती थी "ज़िन्दगी संघर्षो का मेला है, हर कोई जूझता यहाँ अकेला है | , अपने ही शत्रु यहाँ आप लड़ना पड़ता है , अपनो के दिए जख़्म खुद आप साफ करना है |" अचानक बगल मे लेटी बच्ची पूर्णिमा की तरफ करवट लेते हुए उसका ध्यान अपनी तरफ खींच लेती है | उसके मासूम चेहरे को देखकर पूर्णिमा को अपनी जिम्मेदारी का अहसास हो आता है | लगभग तीन महीने बीत चुके थे पति का कुछ पता न था, अचानक एक दिन ,एक दम्पति जो लगभग साठ, पैसठ वर्ष की उम्र के लग रहे थे , चेहरे से काफी संतुष्ट और खुशमिजाज़ पूर्णिमा से मिलने आये उन्हें देखकर पूर्णिमा बोली "क्षमा करें मै आपको पहचान नही पा रही हूँ ! कृपया अपना परिचय दे" मुस्कुराते हुए बुजुर्ग महिला बोली मै मुन्ना की माँ की सहेली हूँ ये मेरे पति हैं | मुन्ना की माँ और मेरी दोस्ती बचपन से थी, हमारे पिता जी और तुम्हारी सास के पिता जी दोनो ही आपस मे जिगरी दोस्त थे | मुन्ना की माँ ने प्रेम विवाह किया था ,पहले तो उसके पिता जी इसके खिलाफ थे | किन्तु अपनी इकलौती बेटी से बहुत प्यार करने की वजह से बाद मे वे भी मान गये थे | मुन्ना के पिता जी की आदत अच्छी नही थी इसलिए सारी जायदाद उन्होने अपनी बेटी के नाम ही किया | उनके मरने के पश्चात मुन्ना की माँ को परेशान कर करके सारी जायदाद बेच डाली, मुन्ना की माँ को कैंसर हो गया | जायदाद के नाम पर केवल एक यही मकान रह गया था | मुन्ना छोटा था, यह मकान बचा रहे इसलिए , मुन्ना की माँ चोरी छिपे चतुराई से वसीयत बदल मुन्ना के बच्चो के नाम कर गई | यह पेपर मेरे पास तब से ही सुरक्षित है, मुन्ना को इसकी कोई खबर नही है | अब यह तुम्हारी अमानत है इसे अपने पास रख्खो | यह कहते हुए वसीयतनामा पूर्णिमा के हाथ मे थमा जैसे ही चलने को तैयार हुए कि पूर्णिमा दोनो के पैर छूती हुई, अंकल, आँटी बैठे मैं चाय बनाकर लागी हूँ !|
नही! नही! बेटा इसकी आवश्यकता नही! हम दोनों ही शुगर पेशेन्ट हैं! जब से चीनी बन्द हुई हमने चाय पीनी भी छोड़ ही दी ! | क्रमशः...