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30.8.2021
आखिर बारिश थमी। जीने की आशा प्रबल हुई। सुबह होते ही एक एक करते वह ओपनिंग में से ऑक्सीजन बोतलें आई। एक मजबूत रस्सी आई।
एक बचावगीर अब दिगीश को ले कर सीढ़ी पर करता था उसने जैसे तैसे अर्ध बेहाश दिगीश को तो जगा कर सीढ़ी से रस्सी तक और बाहर भेजा लेकिन उसके खुद के हाथ से सीढ़ी की पाईप छूट गई। वह सीधा गहरे कीचड़ और गंदे पानी में जा गिरा। उसकी एक भयावह चीख गुफ़ा में गूंज रही। तोरल ने अपनी तीखी आवाज़ में बूम दी - "आपका एक सेवक मारा गया।"
ऊपर से सर्चलाईट जैसा प्रकाश आया। ओपनिंग अभी भी करीब सौ फीट ऊंचे था। दोनों बाजू चट्टानें। आखिर रस्सी ऊपर की ओर खींची गई और नीचे आई तब साथ मे चिट्ठी थी - 'यह रास्ता फिलहाल बंद करते हैं। दूसरी ओर चौड़ा ओपनिंग करके आप सबको बचाते हैं। इस तरफ सब आ जाएँ।'
एक ओर मैं और तोरल। दूसरी ओर बच्चे। उन बच्चों को सामने छोड़ कर जाना उचित नही लगा पर यही रास्ता था।
तोरल मुझे लिपटी और मैं रस्सी पकड़ रहा। ऐसे ही हमें खींच लीया गया।
लगा जैसे शायद फिर बारिश होगी। तब पानी वह दो स्थानों के बीच में से इतना भर जाएगा कि बाकी आठ बच्चों को बचाना असंभव होगा।
काम तेज़ी से हुआ। डिटोनेटर से उस ओर एक बड़ा और चौड़ा दूसरा ओपनिंग बनाया गया।
अरे! कुछ ही दूर एक बड़े खड़क के पीछे से तो हम आए थे। वही तो रास्ता था! हम एक ही मार्ग उस पानी के बहाव से बचने की कोशिश में चूक गए थे और फंस गए थे।
सामने की ओर कीसी के अब जिंदा होने की उम्मीद कम थी। सब का पता मिलने के बाद भी तीन दिन बीत गए थे। वे सब आठ आठ दिन से सब पानी और खुराक के बिना थे। साँस भी पूरी नहीं ले पाते थे।
शुक्र हो भगवान का। सब अर्ध बेहाश अवस्था में आंखों पर पट्टी बांधे लाए गए। आठ दिन के अंधेरे के बाद सब की ऑंखे सीधा प्रकाश नही झेल सकती थी।
अंत में वही साहसवीर मनीष को लाया गया। उसने आंखे खोली।
सब को अस्पताल में भर्ती किए। फेफड़े, डंख, भूखमरा- सब का ईलाज करना था।
मुझे अब पता चला कि हमारे न आने से उन साइकिले, उस चरवाहे द्वारा सूचना और इन सब से बड़ा बचाने का अभियान खुद सरकार ने हाथमें लिया था और यह असंभव लगता कार्य पार कीया था।
कुछ शुरू में पेंसिल टोर्च से और बाकी अस्पताल में पड़े मेरी याददास्त से लिखी मेरी यह डायरी सभी के लिए यादगार बन गई।