खुल्लम खुल्ला- ऋषि कपूर राजीव तनेजा द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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खुल्लम खुल्ला- ऋषि कपूर

सफ़ल फिल्मी सितारों की अगर बात करें तो उनकी आने वाली पीढ़ी एक तरह से कह सकते हैं कि..अपने 'मुँह में चाँदी का चम्मच ले कर' पैदा होती है। उन्हें वह सब ऐशोआराम और विलासिता भरा जीवन एक तरह से बिना किसी प्रकार का संघर्ष या जद्दोजहद किए आसानी से तश्तरी में सजा सजाया मिल जाता है।

इसी तरह शुरुआती कैरियर के मामले में भी आमतौर पर इन स्टार किड्स को किसी किस्म की दिक्कत या परेशानी का सामना नहीं करना पड़ता कि बड़े नाम वाले उनके पिता.. माँ या किसी अन्य नज़दीकी की वजह से उनकी फिल्मों को कहानी, कास्ट..कॉस्ट्यूम डिज़ायनिंग से ले कर फाइनैंस तक के हर मामले में उन सब तथाकथित परेशानियों का सामना नहीं करना पड़ता जिन्हें आमतौर पर किसी अन्य नए चेहरे को करना पड़ता है। बावजूद इन तमाम साहूलियतों के इन सबकी किस्मत का फ़ैसला इनकी परफार्मेंस के हिसाब से आम जनता के हाथ में होता है कि वह इन्हें सर आँखों पर बिठाती है या फिर औंधे मुँह धड़ाम गिरने पर मजबूर कर देती है।

दोस्तों..आज खुल्लम खुल्ला मैं बात करने जा रहा हूँ एक ऐसे स्टार किड की जिसके दादा से ले कर चाचा..मामा वगैरह सब के सब बॉलीवुड फिल्म इंडस्ट्री में बड़ा नाम थे। जी..हाँ.. सही पहचाना आपने। मैं फ़िल्म स्टार ऋषि कपूर और उनकी आत्मकथा 'खुल्लम खुल्ला' की बात कर रहा हूँ। उनके पिता फ़िल्म स्टार राजकपूर ने उन्हें बतौर बाल कलाकार अपनी फ़िल्म 'मेरा नाम जोकर' में एक बड़ा रोल निभाने को दिया। 'मेरा नाम जोकर' के फ्लॉप होने पर उन्होंने अपने बेटे ऋषि कपूर को बतौर हीरो 'बॉबी' फ़िल्म में लॉन्च किया। जो कि बेइंतिहा फ़ायदे का सौदा साबित हुआ। यहाँ यह गौरतलब बात है ऋषि कपूर इससे पहले 'प्यार हुआ इकरार हुआ' गीत के एक दृश्य में बच्चे के रूप में अपनी पहली झलक दर्शकों को दिखला चुके थे।

'बॉबी' फ़िल्म के ज़रिए भारतीय सिनेजगत में एक ऐसे नए सितारे का उदय हुआ जिसने लगातार सफ़लता की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए अपनी पूरी ज़िन्दगी दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया। पहले फेज़ में जहाँ एक तरफ़ उन्होंने स्टीरियोटाइप चॉकलेटी हीरो की भूमिकाएँ निभाई तो वहीं दूसरी तरफ़
अपने कैरियर के सैकेंड फेज़ में उन्होंने हमें चौंकाते हुए चुनौतीपूर्ण भूमिकाएँ निभा कर अनेकों पुरस्कार भी झटके।

रोचक शैली में लिखी गयी अपनी इस आत्मकथा में वे अपने दादा पृथ्वीराज कपूर से लेकर हर छोटे बड़े परिवार के हर सदस्य तथा अपने समकालीनों एवं वरिष्ठ सहयोगियों से अपने संबंधों की बात करते हैं। अपने परदादा वशेशर नाथ जी के बारे में बात करते हुए वह बताते हैं कि वह एक तहसीलदार थे और दिवान साहब के नाम से जाने जाते थे। 46 साल की उम्र में उन्हें नौकरी से जिले बर्खास्त कर दिया गया कि वे अपनो महिला मित्र के घर तक पहुँचने के लिए सुरंग खोदते हुए पकड़े गए थे।

अपनी इस किताब में बड़ी साफ़गोई से ऋषि कपूर स्वीकारते हैं कि एक समय महानायक अमिताभ बच्चन और सुपर स्टार राजेश खन्ना के साथ उनके संबंध सहज नहीं थे। ऋषि कपूर बताते हैं कि 'कुर्बानी' और 'कर्ज़' की रिलीज़ के बीच सिर्फ 1 हफ़्ते का फ़र्क था और 'कुर्बानी' के मुकाबले 'कर्ज़' के कम चलने से वह इस हद तक अवसाद से गिर गए थे कि उन्हें कैमरे का सामना करने से डर लगने लगा था और अपना कैरियर एक तरह से खत्म नजर आ रहा था। इसके लिए वे कभी नीतू सिंह के साथ हाल ही में हुई अपनी शादी को दोषी ठहराते तो कभी अपनी किस्मत को।

ऋषि कपूर बताते हैं कि यश चोपड़ा की फिल्म 'विजय' के एक हादसा साबित होने के बाद 'चांदनी' के निर्माण के दौरान यश चोपड़ा इस कदर मानसिक तनाव में थे कि अगर 'चांदनी' अच्छी नहीं चली तो उन्हें अपनी फ़िल्म निर्माण संस्था बंद कर 'टी सीरीज़' के लिए लघु फिल्में बनानी पड़ेंगी। चांदनी की प्रदर्शन पूर्व कोई सकारात्मक लहर के ना होने और फिल्म पंडितों के इसके डूबने की भविष्यवाणी कर रहे थे। तब ऋषि कपूर ने यश चोपड़ा की डायरी में हर पेज पर बस यही लिखा देखा कि..

"हे ईश्वर.. मेरी मदद कर।"

चांदनी ने बाद में जो सफलता पाई वह तो खैर इतिहास के पन्नों में दर्ज हो चुकी है।

इसी तरह के एक अन्य रोचक किस्से में ऋषि कपूर आगे बताते हैं कि 'चांदनी' फिल्म के बाद 'डर' फ़िल्म के लिए भी उन्हें ही सबसे पहले अप्रोच किया गया था लेकिन नकारात्मक भूमिका के लिए उन्होंने जब ना कर दी तो इसी फिल्म के लिए आमिर खान और अजय देवगन से भी बात की गई। अंततः रोल शाहरुख खान को मिला और बाकी सब तो अब इतिहास बन चुका है।

अपनी आत्मकथा में ऋषि कपूर कहते हैं कि किस्मत से उन्हें डांस वाली बढ़िया गीत और फिल्में मिली एवं साथ ही साथ में ईश्वर का शुक्र भी मनाते हैं कि उनका और गोविंदा का समय एक साथ कभी नहीं आया। क्योंकि वह गोविंदा के समान बढ़िया डांस नहीं कर पाते। अपने कैरियर का एक रोचक वाक्या बताते हुए ऋषि कपूर बताते हैं कि..किस तरह पंचम दा का उनके लिए रेकॉर्ड किया जा रहा गाना 'रुक जाना ओ जाना..हमसे दो बातें कर के चली जाना' देव आनंद जी ने अपनी फिल्म 'वारंट' के लिए माँग लिया था।

इसी किताब में ऋषि कपूर आगे बताते हैं कि उनकी ग़हरी दोस्ती जितेंद्र, प्रेम चोपड़ा और राकेश रोशन के साथ थी लेकिन कुछ ऐसा हुआ कि उनके रिश्ते जितेंद्र और राकेश रोशन के साथ पहले जैसे सामान्य नहीं रहे। जितेंद्र के साथ रिश्तो में मनमुटाव के लिए वह उनकी बेटी एकता कपूर को जिम्मेदार मानते हैं। इसी तरह राकेश रौशन के साथ अपने रिश्तों में फ़र्क आने की बात करते हुए वे बताते हैं कि वे उन्हें अपनी फिल्म मैं रितिक रोशन के पिता का रोल ऑफर किया तो छोटे रोल की वजह से उन्होंने जब अपने कैरियर पर फ़र्क पड़ने की बात कही तो राकेश रोशन ने उन्हें ताना मारा कि.."उनका कैरियर तो कब का खत्म हो चुका है।" इसी बात को उन्होंने बतौर चैलेंज किया और आने वाले समय में राकेश रोशन को अपनी दमदार भूमिकाओं के ज़रिए ग़लत साबित किया ।

ऋषि कपूर स्वीकार करते हैं कि उन्होंने अपनी पहली फिल्म 'बॉबी' के लिए ₹ 30,000/- दे कर अवार्ड खरीदा था। इसी तरह के अनेक रोचक किस्सों में से एक मे ऋषि कपूर, जावेद अख्तर द्वारा उनको दी गई चुनौती का जिक्र करते हैं कि..

"अगर उनकी आने वाली फिल्म 'शोले' ने 'बॉबी' से एक पैसा भी कम कमाया तो वह अपनी कलम तोड़ देंगे।"

इसके साथ ही उन्होंने सलीम-जावेद जोड़ी के सलीम की उस चेतावनी का जिक्र भी उन्होंने किया जिसमें 'त्रिशूल' पिक्चर में उनका दिया रोल करने से इंकार कर देने पर उन्होंने उनका कैरियर खत्म करने की धमकी दी थी।

ऐसे ही अनेक रोचक किस्सों से जुड़ी इस आत्मकथा में कहीं वे स्वीकारते हैं कि वैजयंतीमाला से उनके पिता राजकपूर के अफ़ेयर की वजह से उनकी माँ, बच्चों समेत कुछ महीने होटल में ही रही थी। हालांकि बाद में अपनी आत्मकथा में वैजयंतीमाला ने इस अफ़ेयर को सिरे से नकारते हुए इसे महज़ प्रचार के लिए राजकपूर की शोशेबाजी ही करार दिया था। तो कही ट्विटर पर अपनी साफ़गोई भरी बातों की वजह से उत्पन्न हुए विवादों का जिक्र करते हैं। कहीं अपने बेटे 'रणबीर कपूर' तो कहीं अपनी पत्नी 'नीतू सिंह(कपूर) से अपने संबंधों का जिक्र करते हैं। कहीं अपनी खूबियों का जिक्र करतें हैं तो उतनी ही साफ़गोई से अपनी कमियों को स्वीकारते हैं।

मूलतः अंग्रेज़ी में लिखी गयी इस आत्मकथा में को ऋषि कपूर के साथ मिल कर लिखा है मीना अय्यर ने और इसका हिन्दी अनुवाद किया है उषा चौकसे ने।

ऐसे ही अनेक रोचक किस्सों से सजी इस मज़ेदार आत्मकथा के 260 पृष्ठीय पेपरबैक संस्करण को छापा है हार्पर हिन्दी ने और इसका मूल्य रखा गया है 350/- रुपए। सह लेखिका, अनुवादक एवं प्रकाशक को आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए अनेकों अनेक शुभकामनाएं।