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कहो पुस्तकालय! कैसे हो : एक निजी संवाद

"कहो पुस्तकालय! कैसे हो : एक निजी संवाद"

सोच रहा था कि पुस्तकालय जाऊं तथा वहां की स्थिति को देखूं। लेकिन कार्य की व्यस्तता के कारण जाने का अवसर प्राप्त नहीं हो रहा था। आज अचानक बहुत दिनों के बाद पुस्तकालय गया। वहां पुस्तकालय से संवाद करने का अवसर प्राप्त हुआ। पुस्तकालय से संवाद करने के क्रम में पुस्तकालय के दुःख को जानने-समझने का अवसर प्राप्त हुआ।

सबसे पहले पुस्तकालय में ग्रंथों के ऊपर धूल की मोटी परत देखकर अचरज हुआ। पुस्तकालय के स्थान को देखा। एक कोने में पुस्तकालय को स्थापित कर दिया गया था। किसी को दिखाई भी नहीं दे रहा था। जहाँ तक पुस्तकालय का माहौल देखा तो और भी रोने का मन करने लगा। जिस स्थान पर ज्ञान का सृजन हो सकता है वहां पर ऐसी स्थिति क्यों हो गयी? मन कहीं गुम होकर गम में ड़ूब गया। बचपन की याद आने लगी। किस प्रकार हम सब पुस्तकालय के खुलने का इंतजार करते थे। पुस्तकालय के खुलने से पहले ही मुख्यद्वार पर पंक्तिबद्ध होकर खड़े हो जाते थे।

वह पुस्तकालय एकदम जीवंत था। शोध करनेवाले छात्रों की तो भीड़ ही रहती थी। घंटो शोधार्थी ग्रंथागार में बैठे शोभा बढ़ाते रहते थे। सबसे बड़ी बात यह थी कि शान्ति बनी रहती थी। सूई गिरने की आवाज भी स्पष्ट सुनाई देती थी। व्यवस्था का आधार पुस्तक थी। यह पुस्तक शब्द बहुत ही व्यापक है। अभिव्यक्ति के समस्त भौतिक माध्यम पुस्तक से ही व्यक्त होते हैं। केवल पढ़ाई ही उद्देश्य रहता था। उस पुस्तकालय में पुस्तकालय-शिक्षकों, पुस्तकालय-प्रशिक्षकों और पुस्तकालय-कर्मियों को इस प्रकार का प्रशिक्षण दिया गया था कि उन्हें केवल ज्ञान-सृजन अनवरत चलते रहना चाहिए – इसी बात का ध्यान रहता था। उनकी कार्यकुशलता पर किसी को संदेह नहीं था। पुस्तकालय को चलाने की प्रक्रिया के लिए क्या जानकारी चाहिए – उन्हें पता था। पुस्तकालय कर्मियों को उनकी भूमिका के बारे में अच्छी तरह से जानकारी थी। किस प्रकार के छात्रों को किस प्रकार की पुस्तक चाहिए, साथ ही ‘त्वरित सेवा’ – उनकी कार्यकुशलता के उदाहरण थे।

पिछले दृश्यों को याद करते हुए एक झटके से वर्तमान में आ गया। वर्त्तमान में पुस्तकालय के रूप-रंग-आकार में आमूल परिवर्तन आ गया है। परिवर्तन संसार का नियम है। पुस्तकालय की दुनिया में भी एक नए बीज को बो दिया गया है। अब ई-पत्रिकाएं, ई-पुस्तकें, बातचीत करती पुस्तकें पुस्तकालय में आ गयी हैं। डिजिटल युग का असर पुस्तकालय पर साफ़ देखा जा रहा है। अब पुस्तकालय आभासी होते जा रहे हैं। यह स्थिति केवल हमारे आर्यावर्त में है – ऐसी बात नहीं है। पूरे जगत की यही स्थिति है। पुस्तकालय अब डिजिटल युग में पहुँच गए हैं। एक मोबाईल में ही सूर, तुलसी, कबीर, रसखान, जायसी आदि को देख-सुन-पढ़ सकते हैं। पहले केवल पढ़ सकते थे। अब ज्ञान के तीनों स्वरुप उपलब्ध हैं। ई-पुस्तकालय की खोज सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में वृद्धि के परिणामस्वरूप हुई। तकनीक के विकास के कारण जहाँ पुस्तकालय जनसेवा से प्रेरित थे वहीँ अब ई-पुस्तकालय व्यावसायिकता से ओतप्रोत हैं।

वास्तव में इसे ही क्रांति कहते हैं। पहले जहाँ पुस्तकालय के खुलने का इंतजार होता था – वह अब चौबीसों घंटे मुट्ठी में उपलब्ध है। जब इच्छा हो – पढ़ लें। लेकिन जब वास्तविक दुनिया में प्रवेश करते हैं – तो स्थिति बिल्कुल उलट है। नयी पीढ़ी इस डिजिटल क्रांति के कारण उच्छृंखल होती जा रही है। नयी पीढ़ी के ऊपर हमलोग निगाह रख सकते थे। अभी डिजिटल क्रांति के कारण निगाह रखना भी कठिन होता जा रहा है।

सुविधा तो बढ़ी – इसमें संदेह नहीं। पाठक कम समय में अधिक पुस्तक पढ़ सकता है। सामग्री को मुद्रित करवा सकता है। पृष्ठ के गंदे होने या फाड़ने की समस्या से मुक्ति मिल गयी। पहले पृष्ठ को पाठकों द्वारा फाड़ दिया जाता था। ई-प्रारूप के होने के कारण इन बातों पर लगाम लगाना आसान हो गया। लेखन कार्य आसान हो गया। लेखनी तथा अभ्यास-पुस्तिका को लेकर पुस्तकालय में जाने के नियम से छुटकारा मिल गया। लेखकों की तो भरमार हो गयी है। पहले जो भी लेखक लिखते थे – काफी सोचविचार कर लिखते थे। उनकी बातें सारगर्भित होती थीं। अब फ़िल्मी गीतों की तरह लेखक आते हैं और चले जाते हैं। प्रेमचंद, प्रसाद, निराला आदि शायद ही निकलते हैं।

पुरानी बातों को याद करते हैं तो पाते हैं कि मनुष्य को पुस्तकालय की आवश्यकता ज्ञान-अर्जन के लिए ही पड़ी होगी। निःशुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा की आवश्यकता जब मानव ने समझी होगी तो पुस्तकालय की अवधारणा मानव के जेहन में आयी होगी। मनुष्य के मानसिक जगत के विकास और विस्तार के लिए पुस्तकालय का निर्माण किया होगा। श्रुति से तो सभी ज्ञान को एक जगह संचित कर नहीं रखा जा सकता था, अतः उसे संगृहित करने के लिए पुस्तकालय ने आकार लिया होगा।

ई-प्रारूप से अल्प समय में विश्वस्तरीय जानकारी प्राप्त करने का साधन उपलब्ध हो गया। यदि घरेलू पुस्तकालय या निजी पुस्तकालय की बात करें तो स्थानान्तरण के समय ग्रंथों से सहधर्मिणी को बहुत शिकायत रहती थी। साथ ही साथ मित्रमंडली को पुस्तकों को खरीदने की आदत नहीं होती थी। मांगकर पुस्तकों / पत्रिकाओं को ले जाना वे अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते थे। मित्रमंडली बात-बात में ही चाय पीते समय पूछेंगे- इस माह कौन-सी नयी पुस्तकों को आपने खरीदा है? जहाँ तक समाचार पत्र की बात है वह तो पडोसी के घर से होते हुए ही हमारे यहाँ आता था। समाचार पत्र बांटने वाला लड़का कब आता है – इसकी जानकारी पड़ोसियों को मुझसे अधिक रहती थी। अतः डिजिटल होते ही इन सब मुद्दों छुटकारा मिल गया। इन प्रारूप में पुस्तकालय को हम पूरे विश्व में लेकर चल सकते । हम गाँव में रहें या शहर में, देश में रहे या देश के बाहर। सभी जगह पुस्तकालय उपलब्ध रहता है। केवल संगणक से जोड़ने की जरूरत होती है। एक संगणक से दूसरे संगणक को जोड़ते रहना है। एक ही पुस्तक को कई व्यक्ति एक साथ पढ़ सकते हैं। आज के युग में तो कंप्यूटर प्रायः सभी के पास रहता है। क्योंकि आज का युग सूचना का युग है। अतः ऐसे लगता है कि जैसे जादू हो रहा है।

अतः आज के समय में परम्परागत पुस्तकालय अपनी पहचान खोते जा रहा है। क्योंकि इसमें समय अधिक लगता है। स्थान अधिक लगता है। खर्च अधिक होता है। हानि अधिक होती है। शीघ्रता से जानकारी प्राप्त करने के लिए डिजिटल ग्रंथालय अपनी पकड़ मजबूत बनाते जा रहे हैं। उच्च शिक्षा को प्राप्त करने के लिए तो डिजिटल प्रारूप ही सहायक साबित होते जा रहे हैं।

अतः अब पारम्परिक पुस्तकालय के स्थान पर पूर्णरूपेण शिक्षा देने के लिए नेट या वेबसाइट आधारित पुस्तकालय का चलन बढ़ते जा रहा है। यह विभिन्न तकनीकों को मिलाकर प्रस्तुत की जानेवाली पद्धति है। इसमें पाठक जब चाहे ऑनलाइन या मांग पर अपनी मनचाही पुस्तकों को पढ़ सकता है।

पुस्तकालय से संवाद करते हुए जाना कि पारंपरिक पुस्तकालयों में धन की कमी एक महत्वपूर्ण समस्या है। वैसे धन की कमी तो आदिकाल से ही महत्वपूर्ण समस्या रही है। धन के कारण ही महाभारत जैसे युद्ध को देश को देखना पडा। महर्षि वाल्मीकि को इन घटनाओं को लिपिबद्ध कराने के लिए भगवान श्रीगणेश से विनती करनी पड़ी। जहाँ तक विद्यालयों की बात है तो पेशेवर पुस्तकालय-शिक्षक की नियुक्ति तो होती ही नहीं है। जैसे-तैसे काम चला लेने की बात की जाती है। किसी प्रकार खानापूर्ति कर लेना ही मुख्य उद्देश्य रहता है। नयी पुस्तकों का आना तो अब दूर की कौड़ी हो गयी है।

देशी-विदेशी लेखकों का अकाल पुस्तकालयों में साफ़-साफ़ देखा जा सकता है। पुस्तकालय के नाम पर एक कमरा आबंटित कर दिया जाता है। वहां पर केवल सरकारी कामकाज ही निबटाए जाते हैं। प्रायः शिक्षक भी प्रयास नहीं करते कि बच्चे पुस्तकालय तक पहुँचें और किताबों से परिचित हो सकें। हालांकि कोरोना महामारी के कारण बच्चे पुस्तक पढ़ भी नहीं सकते हैं। कारण यह है कि लगभग बच्चे दो वर्षों से विद्यालय से दूर हो गए। इसका परिणाम यह हुआ कि बच्चे पारंपरिक पढ़ाई से दूर हो गए। रही-सही कसर ऑनलाइन शिक्षा प्रणाली ने पूरी कर दी। अब बच्चे मोबाइल से चिपके रहते हैं। अब एक ही विकल्प है कि किताबें दिखाकर कहानियाँ को सुनाया जाए। यह युक्ति यदि सफल रहती है तो बच्चे पुनः पुस्तकालयों में आने लगेंगे। उन्हें कहानियों को सुनाने के लिए वृद्ध भी आयेंगे। लेकिन यह दूर की कौड़ी लगती है। आज किसी के पास समय नहीं है कि पुस्तकालय के बारे में सोचा जाए। पुस्तकों के पन्ने को पलटकर देखा जाए। जन्मदिन के अवसर पर उपहारों की झड़ी लग जाती है लेकिन उपहार में पुस्तकों को दिया जाए – ऐसी सोच रखने वाले अभिभावक, माता-पिता देखने में कम ही मिलते हैं। पारंपरिक पुस्तकालय की स्वीकार्यता समाज में बढे। इसकी व्यवस्था की जानी चाहिए। शिक्षा शास्त्र का अन्तर्निहित सत्य यही है कि कहानियाँ बच्चों को ज़बर्दस्त तरीके से लुभाती हैं। आज जब नाना-नानी, दादा-दादी आदि एकल परिवार होने के कारण साथ में नहीं रह सकते हैं तो ऐसी स्थिति में पारंपरिक पुस्तकालय में जान डालने से समाज का बहुत भला हो सकता है।

इतने में फिर किसी ने बुला लिया तथा यादों को समेटे पुस्तकालय से बाहर आ गया। ऐसा लगा कि संस्कार के लिए तो पुस्तकालयों का होना आवश्यक है।

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