“वैभव तुम्हारी बेगुनाही का कहीं ना कहीं, कुछ ना कुछ, सबूत तो अवश्य ही होगा और मैं उसे ढूँढ कर रहूँगी।”
अब संध्या के दिमाग़ में केवल एक ही फितूर था कि किसी भी तरह से वैभव को उतने ही मान-सम्मान के साथ उसी कॉलेज में वापस लेकर जाना होगा, पर कैसे? बहुत विचार विमर्श करने के बाद उसने ख़ुद उस कॉलेज में पढ़ाने के लिए आवेदन पत्र दे दिया। उन्हें भी इस समय लेक्चरर की ज़रूरत थी। उन्होंने तुरंत ही संध्या को इंटरव्यू के लिए बुला लिया। कुछ ही दिनों में संध्या को वह नौकरी मिल गई।
संध्या को उसी कॉलेज में नौकरी मिलने की बात सुन कर निराली ने चिंतित होकर कहा, “संध्या बेटा क्या उसी कॉलेज में नौकरी करना ठीक रहेगा?”
“हाँ माँ, आप बिल्कुल चिंता नहीं करो। मैं जो भी कर रही हूँ, बहुत ही सोच समझकर कर रही हूँ।”
वंदना को जब पता चला तब उसने भी संध्या को फ़ोन करके कहा, “भाभी मैं जानती हूँ आपने कुछ तो सोचा ही होगा। बस डर लगता है, आप अपना ख़्याल रखना।”
“वंदना डरने की कोई बात नहीं है, मैं अपना पूरा ख़्याल रखूँगी।”
अपने विनम्र स्वभाव के कारण जल्दी ही संध्या की सब से दोस्ती हो गई। स्टूडेंट भी उसे बहुत ही इज़्ज़त देते थे क्योंकि वह पढ़ाती ही इतना अच्छा थी। कुछ ही समय में संध्या ने प्रोफ़ेसर मलिक से दोस्ती कर ली, जो कि उस घटना की चश्मदीद गवाह थीं। दोनों की काफ़ी अच्छी पटने लगी थी। एक दिन संध्या अपने फ्री पीरियड में स्टाफ रूम में बैठकर कॉलेज का एल्बम देख रही थी। एल्बम देखते-देखते अचानक ही वह उठ कर खड़ी हो गई। छुट्टी लेकर वह तुरंत ही अपने घर चली गई।
उसने वैभव को फ़ोन करके कहा, “वैभव जल्दी से घर पहुँचो?”
“क्यों क्या हुआ संध्या?”
“तुम घर आओ फिर बताती हूँ। टेंशन बिल्कुल मत करना क्योंकि चिंता की कोई बात नहीं है।”
वैभव भी उसी वक़्त छुट्टी लेकर घर पहुँच गया। आते ही उसने पूछा, “क्या हुआ संध्या?”
“वैभव तुम्हारे कॉलेज की उस समय की ग्रुप फोटो है क्या? जब तुम और शालिनी एक साथ पढ़ रहे थे।”
“हाँ संध्या बिल्कुल होगी, ढूँढना पड़ेगा। लैपटॉप में सभी फोटो स्टोर करके रखी हैं।”
“ढूँढो वैभव, वही तुम्हारी बेगुनाही का सच्चा सबूत होगा।”
वैभव ने ढूँढ कर कॉलेज का वही ग्रुप फोटो निकाल कर संध्या को दिया जिसमें पूरी क्लास के साथ शालिनी भी उस फोटो में बिल्कुल वैभव के आगे खड़ी थी।
दूसरे दिन संध्या वह फोटो लेकर कॉलेज पहुँची। सबसे पहले उसने प्रोफ़ेसर मलिक से बात करना ठीक समझा परंतु कॉलेज में नहीं कहीं बाहर। वह सोच रही थी इत्मीनान से बैठकर बातें करनी है, समय लगेगा। इसी बात को ध्यान में रखकर उसने प्रोफ़ेसर मलिक से कहा, “मलिक मैम आज सर में थोड़ा दर्द है, चलो ना कैंटीन चलते हैं।”
“अरे संध्या मेरा घर तो पास ही है, चलो ना मैं तुम्हें अदरक वाली बढ़िया मसाला चाय पिलाती हूँ।”
संध्या की तो मानो लॉटरी ही लग गई। वह तुरंत ही तैयार हो गई। वह मलिक मैम के साथ उनके घर आ गई। चाय पीने के बाद संध्या ने कहा, “मैम मैं आज आप के साथ एक बहुत ही ख़ास बात करने के लिए आई हूँ। सर दर्द तो सिर्फ़ एक बहाना था।”
“बोलो ना संध्या क्या बात है? एकदम उदास, मायूस सी लग रही हो।”
“हाँ मैम उदासी तो इसी कॉलेज ने दी है।”
“यह क्या कह रही हो संध्या? क्या हुआ है साफ़-साफ़ बताओ?”
“मैम मैं आप को भूतकाल में ले जाना चाहती हूँ। उस पुरानी घटना की याद दिलाना चाहती हूँ जो कुछ समय पहले इसी कॉलेज में घटी थी। जिसकी चश्मदीद गवाह आप बनी थीं।”
“क्या कह रही हो संध्या?”
“हाँ मैम आप मेरी पूरी बात को पहले बहुत ध्यान से, शांत मन से, इत्मीनान से सुन लेना। उसके बाद ही अपनी प्रतिक्रिया देना। मैम मुझे आप यह बताइए कि एक लड़का कॉलेज के स्टाफ रूम में दिन दहाड़े जबकि पूरा कॉलेज हाज़िर है। रूम का दरवाज़ा बंद करके क्या किसी भी लड़की के साथ बदसलूकी कर सकता है? क्या उसे इस बात का डर नहीं होगा कि शोर मचेगा और रूम के बाहर भी जाएगा? कभी भी कोई भी रूम में आ सकता है।”
मलिक मैम समझ गईं और उन्होंने कहा, “संध्या क्या तुम यह कहना चाह रही हो कि मैंने झूठ कहा था? मैंने जो देखा वही तो सच माना और उसी का साथ दिया। मेरी किसी से कोई दुश्मनी तो नहीं थी ना? वैभव तो मुझे बहुत पसंद था। कितना होनहार लड़का था, कितना अच्छा पढ़ाता था। मैं उसके साथ जानबूझकर भला ऐसा क्यों करुँगी संध्या?”
क्रमशः
रत्ना पांडे वडोदरा, (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक