"हाँ संध्या यह शालिनी ही है, क्या तुम जानती हो इसे?"
"हाँ मैं जानती हूँ बहुत ही घमंडी और एकदम तुनक मिजाज़ लड़की है वह। वैभव जब हम नौवीं कक्षा में थे तब यह लड़की किसी दूसरे स्कूल से हमारे स्कूल में आई थी। बहुत ही मगरूर टाइप की लेकिन बहुत ही होशियार, साथ ही उतनी ही ख़ूबसूरत भी । उसे आने के बाद ऐसा लग रहा था कि अब इस क्लास में सिर्फ़ वह ही वह है उसके आगे कोई भी टिक ना पाएगा। यही तो थी उसकी मानसिकता। जिस दिन वह आई थी उस दिन मैं अनुपस्थित थी। अगले दिन जब मैं क्लास में आई तब मुझे देखते ही उसका मुँह बिगड़ गया और कुछ ही दिनों में वह यह भी समझ गई कि यह है जो उसे टक्कर दे सकती है। फिर भी उसे अपने ऊपर पूरा कॉन्फिडेंस था कि उसे कोई हरा ही नहीं सकता । वैभव हुआ यूँ कि नौवीं कक्षा में पूरी क्लास में मैं फर्स्ट आ गई और वह हो गई सेकेंड । इस बात को वह हज़म नहीं कर पाई, उसे इतना अपमानित महसूस हुआ कि उसने हमारा स्कूल ही छोड़ दिया। जाते वक़्त वह मुझे चैलेंज करके गई कि देख लेना दसवीं बोर्ड में तो वह पूरे शहर में टॉप करेगी। अगले वर्ष 10वीं की परीक्षा के जब रिजल्ट आए तब भी मैंने ही पूरे शहर में टॉप किया था और वह तब भी दूसरे स्थान पर थी। तब मैंने सोचा था कि क्या अब शालिनी यह शहर भी छोड़ कर चली जाएगी ? बस उसके बाद वह कहाँ गई, क्या हुआ, मुझे कुछ नहीं पता, मतलब मैं अपनी पढ़ाई में व्यस्त रही। उसके विषय में कभी कुछ सोचा ही नहीं।"
“वैभव मुझे लगता है मैं उसे भूल गई थी किंतु शायद वह मुझे नहीं भूली। मुझे समझ नहीं आ रहा वैभव कि हमारी सगाई के बाद यह बदला वह तुमसे ले रही थी या मुझसे या फिर हम दोनों से? मुझे लगता है कि वह हमारे बारे में सब जानती थी । तुमने उसके प्यार को ठुकराया और सगाई मेरे साथ की, जो उसकी नज़रों में उसकी सबसे बड़ी कॉम्पिटिटर या यूँ कह लो कि दुश्मन थी। हमारी सगाई के बाद उसने तुम्हारे ऊपर यह इल्ज़ाम लगाया। यह इत्तिफ़ाक़ नहीं है वैभव, यह जान बूझकर, सोची समझी साज़िश है। तुम्हारे ऊपर इल्ज़ाम लगाने के बाद उसने वह कॉलेज भी छोड़ दिया। मुझे समझ नहीं आता कि उसके घर वाले कैसे हैं, जो कभी उसे किसी बात के लिए मना नहीं करते?"
"हाँ संध्या तुम ठीक कह रही हो। मैंने पता लगवाया था, वह बहुत ही बड़े घर की इकलौती शहज़ादी है। जहाँ उसकी हर ज़िद, हर ख़्वाहिश पूरी की जाती है। इसीलिए तो उसे किसी भी बात की फ़िक्र ही नहीं होती जो उसके मन में आता है बिना सोचे समझे करती है। उसे इस कॉलेज में आकर नौकरी करने की भी कोई ज़रूरत नहीं थी।"
"आश्चर्य की बात तो यह है वैभव कि तुम्हारी उस प्रोफ़ेसर ने शालिनी की बातों पर भरोसा कैसे कर लिया। यदि कोई ध्यान से सोचे और समझे तो उसे यह बात तुरंत समझ आ जानी चाहिए थी कि वह झूठ बोल रही है। किसी भी लड़की के साथ कोई भी लड़का दिन-दहाड़े भरे कॉलेज में ऐसा कैसे कर सकता है। सोचने वाली बात है परंतु शायद किसी ने भी यह सोचने की कोशिश ही नहीं की।”
“हाँ संध्या मैंने तुमसे पहले भी कहा था कि यह हमारा दुर्भाग्य है कि लड़कों को शक के कटघरे में तुरंत खड़ा कर दिया जाता है। इसी का फ़ायदा शालिनी जैसी लड़कियाँ उठाती हैं। संध्या नारी तो नारायणी है यही कहा जाता है ना पर हर नारी नारायणी हो यह ज़रूरी तो नहीं।”
“अब तुम बिल्कुल चिंता नहीं करो वैभव, अपने पति की इज़्ज़त की रक्षा करना मुझे अच्छी तरह आता है। एक स्त्री ने तुम्हारे चरित्र पर दाग लगाया है, अब एक स्त्री ही तुम्हें इस दाग से मुक्त भी करवाएगी।”
“लेकिन कैसे संध्या?”
क्रमशः
रत्ना पांडे वडोदरा, (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक