अक्टूबर महीने की गर्मी: नयी चुनौतियाँ Anand M Mishra द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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अक्टूबर महीने की गर्मी: नयी चुनौतियाँ

अक्टूबर महीने की गर्मी की विभीषिका को देखकर ऐसा लगा कि मानव अभी भी प्रकृति से बहुत पीछे है। पसीने से शरीर लगभग नहा ही गया था। उफ़ यह जानलेवा गर्मी! मनुष्य अभी बेहतर पूर्वानुमान लगा लेता है। विभिन्न प्रकार के तूफानों का नामकरण भी कर लेता है। साधन-सम्पन्न लोग तो वातानुकूलित यंत्रों का प्रयोग कर अपने को आरामदायक अवस्था में लेकर चले जाते हैं। लेकिन साधनहीन लोग किस प्रकार गर्मी के प्रकोप से अपने को बचाएं? यह प्रश्न तो अनुत्तरित ही रह जाता है। आज के समय की मांग जलवायु संकट को कम करने वाली तकनीक की है। साथ ही साथ अधिक फसल किस प्रकार उपजायी जाए – इसके लिए फसलों के की नई किस्म की खोज करने की है। वैसे हमारे वैज्ञानिक दिन-रात इस कार्य में लगे हुए हैं। लेकिन यह प्रयास भगीरथ के अंदाज में ही करना होगा। इस वर्ष के समय को देखते हुए लगता है कि मानसून सामान्य था। न तो अधिक बरसात थी और न ही सूखा। वैसे देश के कुछ राज्यों में बाढ़-से हालात अवश्य बने लेकिन हमारे ईशान क्षेत्र में तो कुल मिलाकर परिस्थिति नियंत्रण में ही लगी। अपने देश की कृषि करीब-करीब मानसून के ऊपर ही निर्भर करती है। यह कृषि की जीवन-रेखा है। देश की बड़ी ग्रामीण अर्थव्यवस्था के मौसम का आकलन किया जाता है। लेकिन इस वर्ष ऐसा लगता है कि गर्मी की विभीषिका इतनी भयावह होगी, इसका पूर्वानुमान शायद नहीं मिला। यदि इसका पूर्वानुमान भी पहले से प्रसारित किया जाता तो मौसम का मूल्यांकन करने में अधिक आसानी होती। वैसे प्रारंभिक शुरुआत में जून में अच्छी बरसात हुई। लेकिन बाद में ऐसा लगा कि बरसात हुई ही नहीं या हुई तो कम हुई। परिणाम गर्मी के रूप में बाहर निकलने लगा। ऐसा लगता है कि मानसून सामान्य से बहुत दूर हो रहा है। यदि मानसून का चक्र बदला तो फिर रोटी का संकट आने ही वाला है। मानूसन के चक्र में परिवर्तन से कृषि कार्यों पर सीधा असर पड़ सकता है। हाल के वर्षों ने संकेत दिया है कि सामान्य मानसून की भी कमी या असमानता अब एक प्रवृत्ति बनते जा रही है। जलवायु विज्ञान इसे ठीक तरीके से बता सकता है। लेकिन इतना तो कह ही सकते हैं कि मानसून अभी अनियमित होते जा रहा है। इसमें कोई दो राय तो नहीं ही होनी चाहिए। यह भी तय है कि उष्मीकरण तथा वैश्वीकरण के परिणामस्वरूप पृथ्वी के तापमान में दो डिग्री की वृद्धि हो सकती है। कुल मिलाकर ऐसा लगता है कि विकास के रफ़्तार के कारण मानव ने अपने लिए जोखिम अधिक उठा लिए हैं। कृषि कार्यों में जोखिम प्रबंधन और भी महत्वपूर्ण होनेवाला है। भारत की अर्थव्यवस्था में इस क्षेत्र का अधिक महत्त्व है। यहाँ कृषि क्षेत्र के विशाल सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक महत्व हैं। अतः कृषि क्षेत्र में जलवायु संकट को कम करने वाली प्रौद्योगिकियों को विकसित करने के मामले में केंद्रीय भूमिका भी बढ़ने वाली होनी चाहिए। ऐसी तकनीक विकसित की जानी चाहिए जो सूखे, गीले और उच्च तापमान होने से फसल उगा पाने में समर्थ हो। मौसम कुछ भी हो – किसान फसल उगा लें। ऐसी किस्मों को विकसित करने की जरूरत है। वैसे हाल-फ़िलहाल समाचार मिला था कि चना की सूखा प्रतिरोधी किस्म भी बाजार में उपलब्ध है। लेकिन इसे और बढाने जरूरत है। और अंत में, ये जलवायु परिवर्तन कृषि योजनाकारों और नीति निर्माताओं के लिए एक महत्वपूर्ण चुनौती पेश करते हैं। उनके सामने कई प्रश्न आने वाले हैं। जिनका समाधान उन्हें खोजना ही होगा। अभी तो अपने वैज्ञानिकों पर भरोसा या विश्वास करने का ही वक्त है।