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टेढी पगडंडियाँ - 24

टेढी पगडंडियाँ

24

गुरजप अपने ब्लाक निकालकर खेल में मगन हो गया था । किरण वहीं पीढा बिछाकर चूल्हे के पास बैठ गयी । चूल्हे पर चढाई हुई खीर खौलने लगी तो वह सब्जी की जुगाङ में लग गयी । हाथ काम में व्यस्त थे और मन अपने घोङे भगाने में लीन था ।

निरंजन को उसके हाथ के करेले कितने पसंद थे और कटहल की सब्जी तो वह पूरे चटकारे ले लेकर खाता था । ब्रैड को अंडों में डुबोकर जब वह शैलो फ्राई करती तो वह सूंघता हुआ सीधा चौके में ही चला आता और वहीं पटरी बिछा एक एक गरम गरम उतरता हुआ पीस खुद भी खाता और उसे भी खिलाता जाता । कितना मना करती थी वह – पहले बना तो लेने दे । फिर आराम से खा लूँगी पर नहीं , उसे गरम गरम खुद भी खाना होता और उसे भी खिलाना होता । इन चार पाँच महीनों में ढेर सारा प्यार लुटाया था निरंजन ने उस पर । शायद तमाम जिंदगी में जितना मिलना था , उतना । फिर एक दिन उसकी साँसों का और प्यार का कोटा पूरा हो गया तो चल दिया सुरग में । उसने ठंडी साँस ली – कहाँ चला गया तू निरंजन ।
उस दिन जब बसंत ने निरंजन के मरने और संस्कार होने की बात बताई तो उसे कितनी देर तो विश्वास ही नहीं हुआ था । ऐसा कैसे हो सकता है । ऐसे कोई किसी को सुनसान जंगल बियाबान में भटकने के लिए छोङकर कैसे जा सकता है । कल तक तो वह सारे जमाने के सामने चट्टान की तरह खङा था कि मैं इसकी बाँह पकङकर लाया हूँ । चाहे जो हो जाये , मैं इसको कभी नहीं छोङ सकता और यूँ अचानक छोङकर चल दिया । कैसे भरोसा करले इस बात पर ।
कई दिन तक वह बार बार मेन गेट खोलकर खङी हो जाती । देर देर तक सङक देखती रहती । शायद निरंजन अभी कहीं से अपनी जीप दौङाता हुआ प्रकट हो जाएगा । आकर कहेगा – लोग बकते हैं तो बकें । मुझे किसी की परवाह नहीं है । मैं तुम्हे किसी हाल में नहीं छोङ सकता । कभी भी नहीं । मेरा गुरनैब हमारे साथ है न और अब तो हमें भाई और भाभी का आशीर्वाद भी मिल गया है तो डरना क्यों । तू बिल्कुल घबराना नहीं किरण । यह एक जट्ट की जुबान है ।
वह कहाँ घबरा रही थी । शुरु में उसे डर लगता था । घबराहट होती थी पर अब तो उसने नियति को स्वीकार कर लिया था । जिस चाची के संबोधन से उसे चिढ होती थी , अब कानों को सुख देने लगा था । निरंजन से उसका मोह जाग रहा था । अब तो वह निरंजन के बेटे की माँ बनने वाली थी । अब तो उसने अपना घर बसाना था । अब तो उसे अपनी कोठी सजानी थी और निरंजन उसे मझधार में गोते लगाने के लिए छोङकर किसी अनजान दिशा की ओर बढ गया था ।
करते करते पाँच दिन बीत गये थे । ये पाँच दिन उसे जी चिङिया मर चिङिया करते हुए बीते थे । वह इंतजार करती रह गयी । निरंजन को न आना था , न वह आया । इस बीच उसकी अस्थियाँ चुन ली गयी और गुरनैब अपनी बुआ के लङकों के साथ जाकर कीरतपुर में उन्हें ब्यास में विसर्जित भी कर आया ।
गुरनैब खुद बेहाल हुआ पङा था । वह बार बार खुद को कोसता । उसे पछतावा हो रहा था कि उसने चाचा को अकेला क्यों छोङा । वह वहीं कोठी में क्यों नहीं रुका रहा । थोङा रुक कर इंतजार कर लेता तो क्या हो जाता । अगर वह साथ होता तो दुश्मन की हिम्मत नहीं होती । अगर वह साथ होता तो चाचा ऐसी अन्यायी मौत नहीं जाता । कर्बला की लङाई में हुसैन भी इसी तरह धोखे से मारा गया था । और आज निरंजन वैरियों के हत्थे चढ गया था । यूँ ट्रक से कुचल दिया वैरियों ने । बेचारा चाचा । आखिरी वक्त कितना तङपा होगा । किस किस को पुकारा होगा । कितने घंटे पङा रहा सङक पर । किसी को दिखा नहीं । अगर दिखाई दे जाता तो उसी समय डाक्टर के पास ले जाते और चाचा बच जाता । वह सोचता और उसकी आँखें आँसुओं से भर आती ।
गुरनैब को पाँचवें दिन किरण की याद आई । उसका पता नहीं क्या हाल होगा । उसने मोटरसाइकिल निकाली और कोठी की ओर चल दिया । निरंजन के इंतजार में किरण ने दरवाजा खुला ही छोङ रखा था । किरण आँगन में ही चारपाई बिछाए दरवाजे पर टकटकी लगाये बैठी थी । उसकी गुलाबी रंगत इन चंद दिनों में ही पीली पङ गयी थी । मैले कुचैले कपङों और उलझे बालों में वह पूरी फकीरनी लग रही थी । इन चार दिनों में ही बेहद कमजोर हो गयी थी वह । उसे इस हालत में देखकर गुरनैब का इतने दिनों से रोका गया सब्र का बाँध बेकाबू होकर बह निकला । वह हिलक हिलक कर रोता रहा ।
किरण के लिए गुरनैब दोस्त जैसा था । हर सुख दुख का राजदार । छोटे सरदार से उसका रिश्ता डर और अविश्वास से उपजा था जबकि गुरनैब का रिश्ता भरोसे का रिश्ता था । इस समय रोते हुए वह बिल्कुल बच्चा लग रहा था । किरण ने उसके कंधे पर हाथ रखकर उसे चुप कराया तो खुद पर काबू न रहा । वह भी रो पङी ।
अचानक गुरनैब को ख्याल आया – किरण , तूने आज क्या बनाया है । किरण संकोच से भर गयी । उसने तो इतने दिन से कुछ बनाया ही नहीं था । न उसका मन किया , न बनाया । गुरनैब जान रहा था कि किरण ने चार पाँच दिनों से कुछ नहीं बनाया । और खाने का तो सवाल ही नहीं होता ।
तू ऐसा कर उङद चने की दाल बना ले । मुझे भी रोटी खानी है ।
किरण ने धोकर दाल चढा दी । तङका देकर गरम गरम फुलके उतारे और थाली में डालकर ले आयी – ले खा । यही है । और तो कुछ घर में है नहीं । आज इसे से गुजारा करना पङेगा ।
तू अपनी थाली भी यहीं ले आ ।
तू पहले खा ले । मैं बाद में खा लूँगी ।
नहीं , तू अपनी रोटी लेकर आ वरना मैं भी नहीं खाऊँगा ।
किरण झक मारकर अपनी थाली ले आई । दोनों सिर झुकाये रोटी तोङते रहे । रोटी गले से नीचे जा नहीं रही थी पर जिंदा रहने के लिए खाना तो जरुरी था न । दो फुलके खाकर गुरनैब उठ खङा हुआ – अब मैं चलूँगा । सुबह फिर आऊँगा ।
किरण ने सिर हिलाकर सहमति दी । गुरनैब बीस मिनट बाद ही लौटा तो राशन के साथ फल और सब्जियाँ लेकर । लिफाफे किरण को पकङाये – अपना ध्यान रखना । और मोटरसाइकिल भगाता हुआ चला गया ।

बाकी कहानी अगली कङी में ...

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