वह अब भी वहीं है - 5 Pradeep Shrivastava द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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वह अब भी वहीं है - 5

भाग - 5

मैंने देखा कि मैं संकुचा रहा था और वह बेखौफ, बिंदास थी। मैं अब-तक यह सोचकर परेशान होने लगा कि, आखिर ये इसकी दोस्त कैसे हो गई? रातभर दूसरे मर्द के साथ क्या कर रही है? धंधेवाली है तो ये दोस्त क्यों बता रहा है। मुझे लगा फितरती बाबूराम कुछ नया खेल, खेल रहा है। वह मुझे ज़्यादा कुछ सोचने का मौका दिए बिना तेज़ी से बाहर गया और दो पॉलिथिन लिए हुए वापस लौट कर बोला, 'विशेश्वर मैं होटल से खाना लेकर आया हूं, आओ खाते हैं।'

यह कहते हुए उसने बिना किसी संकोच के साथ लाई पानी की बोतल से हाथ धोया और बिस्तर पर ही पेपर बिछा कर खाना निकालने लगा।

तराना भी हाथ धोकर उसी के बगल में बैठ गई। मैंने मना कर दिया कि मैं खाना खा चुका हूं। बिल्कुल इच्छा नहीं है। लेकिन उसके बहुत जोर डालने पर उस रोस्ट्रेट चिकन का एक टुकड़ा लेकर हिलते-डुलते स्टूल पर बैठ कर, माजरा क्या है ? समझने की कोशिश करने लगा। पहले जो टुटही कुर्सी थी, वो कई दिन पहले ही पूरी तरह टूट गई थी, तो उसे बाहर डाल दिया था। मैं धीरे-धीरे चिकन का टेस्ट ले रहा था, लेकिन बीच-बीच में नजर तराना पर खिंच जाती थी। उसका बेपरवाह अंदाज मुझे परेशान कर रहा था। उसके बहुत ज़्यादा खुले कपड़े, अटपटे ढंग से हटे हुए दुपट्टे, खाने के तरीके से यही लग रहा था कि, वह कोई घरेलू महिला नहीं है।

अचानक ही बाबूराम ने मुझे चौंका दिया। उसने पैंट में पीछे खोंसी शराब की बोतल निकाल कर शराब गिलास में उड़ेली, मैं संभल भी नहीं पाया था कि, उसने और चौंका दिया तराना की गिलास में भी डाल कर। फिर मेरे पीछे पड़ गया। मैं बड़ी मुश्किल से उसे मना कर सका।

बाबूराम की इस हरकत से मैं बहुत परेशान हो उठा। गुस्सा भी बहुत आ रही थी। मगर इतने दिनों में यह भी जान गया था कि, बाबूराम केवल दंदफंदी ही नहीं, बेहद खुराफाती भी है और छुटभैए टाइप के जरायम पेशा वालों से भी संपर्क रखता है। उसका मुख्य काम ऑटो चलाना नहीं, दंदफंद है। ऑटो तो एक बहाना है। खैर खाना-पीना खत्म हुआ और जमीन पर बिस्तर भी लग गया। उन दोनों ने जिद करके मुझे चारपाई पर ही सोने को विवश कर दिया था। चारपाई का सारा बिस्तर जमीन पर था। मेरे लिए सिर्फ़ एक तकिया बची थी।

इस बीच मैंने देखा कि शराब का असर दोनों पर हो चुका था। दोनों अब बातें न सिर्फ़ ज़्यादा तेज आवाज़ में कर रहे थे, बल्कि बेवजह हंस भी रहे थे। अचानक बाबूराम उठकर खड़ा हुआ और बड़ी गर्मी है कहते हुए शर्ट, बनियान, पैंट उतार दी। सिर्फ़ एक अंगौछा पूर्वी स्टाइल में लपेट लिया और तराना से बोला, 'तू भी कपड़े उतार दे, गंदे हो जाएंगे तो सवेरे क्या पहनेगी।'

समीना उस दिन बाबूराम से ज़्यादा मुझे वह तराना आश्चर्य में डाल रही थी। अपनी समझ से उसने बड़ी धीमी आवाज़ में एक बेहद अश्लील बात कही और उठकर खड़ी हो गई। उसके कदम लड़खड़ा रहे थे। फिर भी उसने कपड़े उतारने में फुर्ती दिखाई। कुर्ता उतार दिया, सलवार भी उतार दी। बचे रहे कपड़े के नाम पर बस वही दो टुकड़े, जिसके लिए तुम कहती थी कि, 'ये साले तन पर बेड़ी जैसे लगते हैं, कसे रहते हैं तन पर।' और तुम सिर्फ़ कहती ही नहीं थी, बल्कि अधिकांश समय पहनती भी नहीं थी। खैर और विस्फोट होना अभी बाकी था। तराना-बाबूराम की ओछी हरकतें तेजी से बढ़ रही थीं। अचानक बाबूराम कुछ लड़खड़ायी सी आवाज़ में बोला, 'विशेश्वर थोड़ी देर ऑटो में आराम कर ले। बाहर मौसम बहुत ठंडा है, तेरा पसीना सूख जाएगा, बढ़िया लगेगा।'

उसकी मंशा समझते मुझे देर नहीं लगी। उसे मन ही मन भद्दी-भद्दी गालियां देता हुआ मैं बिना कुछ बोले बाहर ऑटो में बैठ गया। मेरे जैसे लंबे-चौड़े आदमी को ऑटो में कहा आराम मिलता। सो मैं इधर-उधर टहलता, फिर बैठता। हर बार बाबूराम को गरियाता। उन दोनों की आवाजें मैं बाहर भी बीच-बीच में सुन रहा था। तराना की कुछ बातें सुनने के बाद मैंने मन ही मन कहा, देखने से लगता ही नहीं कि, इतनी बेशर्म होगी। बड़वापुर में भी दोस्त न जाने कितनी धंधेवाली लाते थे, लेकिन वो सब तो इसके सामने कुछ हैं ही नहीं। समीना गजब यह कि यह सोचने के बावजूद उसकी आवाज़, बातों से मैं अपने भीतर उत्तेजना भी महसूस कर रहा था, जो बढ़ती ही जा रही थी।

तराना का वह भरा-पुरा, लंबा-चौड़ा बदन रह-रह कर आंखों के सामने कौंध जा रहा था। यह बेचैनी, गुस्सा, खीझ भरा आधे घंटे का समय बीता होगा कि बाबूराम बाहर आया। मेरे कंधे पर हाथ रख कर उखड़ी-सी आवाज़ में बहकते हुए बोला, 'यार मेरे रहते तेरे को परेशान होने की जरूरत नहीं है। यहां हर चीज को मैं हैंडिल कर लेता हूं। तुझे भी सिखा दूंगा। देख चुटकी बजाते मैंने नौकरी और रहने की जगह दोनों दिला दी न। आज औरत का भी मजा ले। जा अंदर, तराना इंतजार कर रही है तेरा, फिदा है तेरे पर फिदा। छा गया है तू उस पर।'

उसकी आवाज़ इतनी तेज़ थी, कि अंदर तराना ने निश्चित ही सुनी होगी। समीना पहले से मेरे अंदर उत्तेजना की जो आग सुलग रही थी, वह बाबूराम की बातों से एकदम भड़क उठी। मेरी ऊपरी बनावटी ना-नुकुर पर बाबूराम का आग्रह भारी पड़ा। आखिर मैं यही चाह रहा था। किसी औरत को भोगने का यह मेरा पहला अवसर था। सो तराना जैसी मंझी हुई खिलाड़ी के सामने मैं अनाड़ी नजर आया। उसने मेरी खिल्ली भी उड़ाई। बेवजह की मर्दांगी दिखाने से उसे कुछ तकलीफ हुई थी, जिसका उलाहना उसने मुझे सुबह जाते समय दिया। और हर बार की तरह बाबूराम मुझसे फिर कुछ रुपए झटक ले गया।

समीना मैंने उसी दिन पहली बार किसी औरत को बिना कपड़े के एकदम बेपरवाह होकर सोते भी देखा था। वह अपना दुपट्टा ही ओढ कर सोई थी, क्योंकि ओढ़ने के लिए वहां कोई चादर तो थी, दुपट्टा भी इतना अस्त-व्यस्त ढंग से ओढे थी कि, उसका बदन नाम-मात्र को ही ढंका था। इतना ही नहीं कमरे में दो-दो मर्द भी हैं, तराना को इसकी भी तनिक परवाह नहीं थी। मेरा दुर्भाग्य देखो कि उस रात मैं बिल्कुल नहीं सो सका।

दोनों बेसुध सो रहे थे और मैं ट्रकों की आवा-जाही के कारण बार-बार उठ रहा था। और जब ट्रक चले जाते तो तराना का खुला बदन न सोने देता। मैं उठ-उठ कर बैठ जाता। घूर-घूर कर देखता उसे। मन करता कि दुपट्टा उसके बदन के जिन चंद हिस्सों को ढंके हुए है वह भी खुल जाएं, दुपट्टा हट जाए।

समीना तुम मेरी इस हरकत को कमीनापन कहती कि, मैंने व्याकुल होकर एक बार उसका दुपट्टा हटा देने की कोशिश भी की थी। मगर वह कुछ ऐसे उसकी कमर के नीचे दबा था कि हटा नहीं सका। ज़्यादा जोर लगाने पर उसके जाग जाने का डर था। जानती हो उस समय मैं बाबूराम से डर रहा था। जबकि वह ताकत में मेरा आधा भी न रहा होगा।

ऐसी ही ऊंच-नीच घटनाओं के साथ यहां नौकरी करते हुए चार महीने पूरे हो गए और मुझे उस जगह से कहीं और जाने की घंटे भर को भी फुरसत नहीं मिली थी। सेठ ने मेरी जी-तोड़ मेहनत और ईमानदारी का यह ईनाम दिया कि, मुझ पर ढेरों काम का बोझ लाद दिया था। चार महीना पूरा होते ही मैं मचल उठा उस आदमी के पास जाने के लिए, जिसने फ़िल्मों में काम दिलाने के लिए मुझे कुछ महीनों बाद बुलाया था। धर्मशाला में रहते हुए जब भटका करता था तब उससे मुलाक़ात हुई थी।

मैं उस दिन लाख बाधाओं के बावजूद वहां पहुंच ही गया। वह आदमी भी मिला, उसे देखकर मैं खुशी के मारे फूल के कुप्पा हो गया कि, चलो चार महीने बाद आज फिल्म में काम मिल जाएगा। उसके अर्दली की जी-तोड़ मिन्नतों हाथ-पैर जोड़ने के बाद मैं करीब तीन घंटे बाद उससे मिल पाया। मगर उसने मुझे पल भर में ऐसे दुत्कारा मानों मैं घर में अचानक ही घुस आया गली का कोई आवारा कुत्ता हूं। उसने साफ कहा, 'जा कहीं काम-धंधा कर, फ़िल्मों में काम करेगा। कभी देखा है खुद को आइने में। किसी कोल माइन से निकलकर आया हुआ लगता है।' उसकी यह बात पूरी होने से पहले ही उसके स्टाफ ने मुझे बाहर कर दिया।

बुझे मन से वापस लौटा तो सेठ की गालियां और नौकरी से निकाल दिए जाने की धमकी सुनी, साथ ही एक दिन की पगार काटने का आदेश भी। उस दिन गुस्सा, क्षोभ के कारण खाना भी नहीं खाया। वह बेचारे मजदूर बुलाने आए थे लेकिन मैंने मना कर दिया था।

समीना इसके बाद मैंने उस सेठ की नौकरी आठ महीने और की। वहां ज़िंदगी के एक से एक अनुभव मिले। और बाबूराम का नित्य नया चेहरा भी देखने को मिला।

उसकी संगत का नतीजा था कि मैं थोड़ी बहुत शराब भी पीने लगा और औरतों में दिलचस्पी बढ़ती गई। बाबूराम की बदौलत हर हफ्ते कोई न कोई तराना कमरे पर आती। और हम-दोनों उससे जी भर संसर्ग करते। कई बार अगले दिन पछतावा होता, मन में आता ऐसे तो मेरा सपना पूरा होने से रहा।

मगर फिर किसी तराना की बात आते ही सब भूल जाता। इस दौरान जितनी तरानाएं लेकर बाबूराम आया, उनमें कोई भी बीस-पचीस से ज़्यादा की नहीं थीं। सिर्फ़ एक को छोड़कर जो करीब पैंतालीस-छियालीस की थी। जिसने बातें भी बड़ी अच्छी-अच्छी की थीं । वह इस धंधे में इसलिए थी, क्योंकि उसको और पति को मिलने वाली तन्ख्वाह परिवार के लिए पर्याप्त न थी। बच्चों के अच्छे लालन-पालन, पढ़ाने-लिखाने के लिए पैसों की कमीं आड़े न आये इसलिए महीने में तीन-चार दिन रातें कहीं और किसी के साथ बिताकर ठीक-ठाक कमाई कर लेती थी। उस उमर में भी उसने खुद को बहुत संभालकर रखा था। अपने कस्टमर से ऐसे पेश आती थी कि, वह उससे एक बार फिर मिलने की जरूर सोचता।