उजाले की ओर-----संस्मरण Pranava Bharti द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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उजाले की ओर-----संस्मरण

उजाले की ओर --संस्मरण

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नमस्कार मेरे सभी स्नेही मित्रों को

पता है ,जब कभी युवाओं से मुखातिब होते हैं तो हमें लगता है हम फिर से युवा हो गए हैं |

किसी भी परिस्थिति में आपके बुज़ुर्गों को आपके साथ की ज़रूरत होती है |

चाहे वह सुख हो अथवा दुख ! बुज़ुर्ग अपने युवाओं से कोई भी बात साझा करके बड़े आनंदित होते हैं |

उन्हें लगता है कि वे अपने अनुभवों से अपने बाद की पीढ़ी को कुछ दे रहे हैं |

साथ ही युवा पीढ़ी से वे बहुत कुछ सीखते हैं और अपने जीवन में उतारकर बेहतर जीवन जी सकते हैं |

मैं नहीं जानती कि हमारी नई पीढ़ी इन आदर्शों पर चल सकी अथवा नहीं किन्तु यह सही है कि

हमने अपनी आगे की पीढ़ी से भी बहुत कुछ सीखा है और सीख रहे हैं |

हमारी आगे की पीढ़ी हमसे कितना सीख पा रही है ,यह उनसे बात करके ही पता चल सकता है |

सबसे करीबी दोस्त अपने माता-पिता व घर के बुज़ुर्ग होते हैं | क्योंकि वे हमें ऐसे -ऐसे गुर देते हैं जो हमें कहीं न कहीं काम आते ही है |

हम बालपन से सुनते आ रहे हैं कि अन्न का अपमान नहीं करना चाहिए |

मुझे अच्छी प्रकार याद है कि हमारी नानी,दादी कहती थीं कि अन्न का एक दाना भी नाली में नहीं जाना चाहिए |

उस समय हमें उसका अर्थ पता नहीं चलता था ,बड़े होने पर महसूस किया कि जितना खाना एक घर में बचता है ,

उससे एक पेट भर सकता है |

जीवन का कोई भी दौर क्यों न हो ,बड़ों के द्वारा बताई गई बातें हमें कहीं न कहीं काम दे ही जाती हैं |

चाहे हम कहीं भी क्यों न हों ---

"बिना पहचान के किसी का खाना नहीं खाना चाहिए --" नानी कहतीं और हमें वे पुराने विचारों वाली लगतीं |

अब भला,इस उम्र में जब न जाने कितने सोशल मीडिया हैं ,दोस्त तो बनते ही रहते हैं | चाहे हम किसी यात्रा में भी क्यों न हों ---

एक संस्मरण याद आ रहा है | वैसे गुजरात में इस प्रकार के बहुत कम अपराध होते हैं |

लेकिन भई ,होते तो हैं ही | मानव-जाति में हर प्रकार के लोग मिलते हैं चाहे कारण कुछ भी क्यों न हों |

हाँ,तो एक थे कड़िया जी, जो मेरी ही सोसाइटी में रहते थे | हम कुछ लोगों ने लगभग साथ ही अपने घर का प्रवेशोत्सव किया था |

स्वाभाविक था ,पहले आए हुए लोगों की पहचान भी जल्दी हो गई |

उनका काम कुछ ऐसा था कि उन्हें रेलगाड़ी में आना-जाना पड़ता था |

एक दिन सोसाइटी में शोर मच गया ,कड़िया जी को कोई स्टेशन से छोड़ने आया था ,वे अर्धमूर्छित थे |

पुलिस भी साथ में थी और वे पूरी तरह अपने होशोहवास में नहीं थे |

पता चला, कड़िया जी सुबह ही वडोदरा के लिए निकले थे |

फिर क्या हुआ ?उन्हें ऐसे बेहोश किसने किया ? कड़िया जी अभी बोलने की स्थिति में नहीं थे |

सुबह सात बजे के करीब तो वे घर से गए थे और लगभग ग्यारह बजे पुलिस की जीप व कोई अपरिचित आदमी उन्हें छोड़ने आया था |

दो-तीन घंटे बाद उन्हें होश आया | तब पता चला कि रेलगाड़ी में बैठने के बाद उन्होंने नाश्ते के लिए अपना पैकेट खोला और नाश्ता करने ही वाले थे कि

सामने की बर्थ पर कोई दूसरा सहयात्री था जिससे बैठते ही उनकी बातें शुरू हो चुकी थीं |

उसने चाय मँगवाई और कड़िया जी को ऑफर की | उन्होंने बहुत मना किया लेकिन उन्होंने एक न सुनी |

सुबह के समय कंपार्ट्मेंट में अधिक लोग भी नहीं थे | जो थे काफ़ी दूरी पर थे | वैसे भी किसीको क्या मतलब होता है ,किसी व्यक्ति विशेष से !

यह घटना लगभग तीस वर्ष पूर्व की है जब साधारण गाडियाँ चलती थीं ,आमने-सामने लकड़ी के बर्थ होते और थोड़ी दूर के यात्री उन्हीं डिब्बों में सफ़र करते थे |

कड़िया जी ने नाश्ता भी पूरा नहीं किया था कि बर्थ के एक ओर उनकी गर्दन टिक गई|

दूर की बर्थ पर बैठे हुए यात्री ने उन्हें देखा और वह चौंका ,थोड़ी देर पहले तो वह बंदा अपने सामने बैठे यात्री से मुस्कुराकर बातें कर रहा था |

अब वो बंदा कहीं नहीं था और कड़िया जी का सिर कंपार्टमैंट की लकड़ी की दीवार से टिका हुआ था|

गाड़ी अभी चलने की तैयारी में थी और सामने वाले आदमी का कुछ पता नहीं था |

तुरंत प्लेटफॉर्म पर चक्कर लगाते पुलिस वाले भाई को बुलाया गया | खूब तलाशी ली गई किन्तु कुछ भी पता नहीं चला |

कड़िया जी की जेबें टटोली गईं ,उनमें एक भी पैसा नहीं था | एक छोटी सी डायरी थी जिसमें कुछ पते व लैंड-लाइन के कुछ नंबर्स थे |

कड़िया जी को अहमदाबाद स्टेशन पर ही उतार लिया गया और स्टेशन से ही सभी फ़ोन नंबर्स पर फ़ोन किया गया |

उनके घर पर फ़ोन लगा और तब उनको पुलिस की सहायता से घर लाया गया |

उनका बैग नहीं था ,जेब के पैसे गायब थे |

बस,उस भले आदमी ने उनकी डायरी छोड़कर उनके घर पहुँचने का रास्ता खुला छोड़ दिया था |

स्वस्थय होने के बाद कड़िया जी ने बताया कि उन्होंने चाय के अलावा कुछ भी नहीं लिया था |

न जाने कैसे और कब उनकी आँख बचाकर उस धूर्त आदमी ने उनका बैग व अन्य सामान हड़प लिया था |

तब से कड़िया जी बहुत घबराने लगे थे और वे ही क्या हम सब भी घबराने लगे थे और मन ही मन कान ऐंठ लिए थे कि किसी अजनबी के हाथ से कुछ नहीं लेंगे |

वैसे यह कठिन लगता है क्योंकि हर आदमी ऐसा नहीं होता |

हमें अक्सर बाहर जाना पड़ता है बेशक हम आरक्षित ए.सी डिब्बों में चलें या दूरी तय करनी हो तो हवाई यात्राएं करें |

लेकिन इस प्रकार की घटनाएँ आज भी होती रहती हैं |

स्वस्थ रहें,चौकस रहें ,सुरक्षित रहें ,आनंदित रहें |

मिलते हैं अब जल्द ही ,भूल न जाना बात ,

हम सबसे ही सीखते ,पाते हैं सौगात ||

आप सबकी मित्र

डॉ. प्रणव भारती