देश और बैलगाड़ी Yashvant Kothari द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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देश और बैलगाड़ी

देश और बैलगाड़ी

जैसा कि शायद आप जानते होंगे, हमारे देश में बैलगाड़ियांे की बहुतायत है। पिछले वर्षांे में परिवहन के क्षेत्र में हम बैलगाड़ी से चलकर बैलगाड़ी तक ही पहुंच पाये। ईश्वर ने चाहा तो हम बैलगाड़ी में बैठ कर ही इक्कीसवीं शताब्दी में जायेंगे।

तमाम प्रगतिशीलता के बावजूद अभी भी बैलगाड़ी से ही चल रहे हैं। देश में औद्योगिक क्रांति हुई, देश में राजनीतिक क्रांति हुई। देश में वैचारिक क्रांति हुई। पिछले दिनांे सांस्कृतिक क्रांति भी हुई मगर बैलगाड़ी है कि इस विकासशील देश का पीछा ही नहीं छोड़ रही। हमारी कुल प्रगति बैलगाड़ी है।

वास्तव में हुआ यांे कि पिछले दिनांे मुझे गांवांे में जाने का मौका मिला। कुछ दिन रह कर मैंने यह अनुभव किया कि जानवरांे से चलने वाली गाड़ियां हमारी ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था का प्रमुख आधार है। कौन कहता है कि रेलंे, ट्रक, ट्रैक्टर ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था के आधार हैं। आओ गांवांे में , कस्बांे में आओ और देखांे कि वास्तविक आधार बैलगाड़ी, ऊंट गाड़ी, घोड़ा गाड़ी, गधा गाड़ी और भैंसा गाड़ी है। कुल मिलाकर इस देश की अर्थ व्यवस्था का भार जानवर ढो रहे हैं और हम समझ रहे हैं कि अर्थ-व्यवस्था का भार हम पर है। कुछ सोचिये, शायद आपको मेरी बात समझने मंे परेशानी हो रही है।

इस गरीब देश में करीब डेढ़ करोड़ बैलगाड़ियां हैं। ये बैलगाड़ियां एक वर्ष मंे करीब 50 अरब मैट्रिक टन माल को एक स्थान से दूसरे स्थान पर लेकर जाती हैं जबकि विशाल पूंजी वाला भारतीय रेलवे केवल 18 करोड़ टन। अब कौन कह सकता है कि बैलगाड़ियां पिछड़ेपन की निशानी है।

ग्रामीण क्षेत्रांे के अलावा बड़े शहरांे और महानगरांेमें भी लगभग 20 लाख बैलगाड़िया, ठेले गाड़ियां है। महानगरांे में भी इनकी संख्या में निरन्तर वृद्धि हो रही है। देश के गरीब तबके के लगभग 2 करोड़ लागांे की रोजी-रोटी बैलगाड़ियांे से जुड़ी हुई हैं।

कृषि के अलावा अन्य कार्यों में भी बैलगाड़ियांे का भरपूर उपयोग होता है। मात्र एक हजार या आठ सौ रुपयांे से बनी यह गाड़ी अर्थ-व्यवस्था को खींच रही है।

देश भर में बैलगाड़ियांे के पहिये रबर की ओर ध्यान दिया है। लोहे की रिम वाले बीच के पहिये ने हमंे हमारे गोधन से दूर कर दिया लेकिन आंकड़े गवाह है कि आज भी पशुधन उनसे चलने वाली गाड़ियांे हमारे देश के लिए कितनी आवश्यक हैैं।

प्राचीन लोक गीतांे में तो बैलगाड़ी का बड़ा सुन्दर और सजीव चित्रण हुआ है। ‘धीरे हांक रे गाड़ी वाला गाड़ी, मारी चूंदड़ी उड़ उड़ जाये।‘ इस बैलगाड़ी का उपयोग शादी ब्याह अन्य अवसरांे पर किया जाता था। टैक्ट्रर तो आज भी केवल बड़े किसानांे को ही उपलब्ध हैं। छोटे और मंझोले किसानांे को तो बैल और बैलगाड़ी ही मिल सकी है।

ऐसी स्थिति में बैलगाड़ी को आम आदमी के लिए और ज्यादा उपयोगी और ज्यादा काम करने वाला बनाया जा सके तो क्या बुरा है !

आने वाले वर्षों में विकसित बैलगाड़ी हमारी व्यवस्था का एक प्रमुख आधार होगा और देश मंे आर्थिक स्थिति को सही दिशा में हांकने में मदद करेगा।

पहियांे का स्थान अब रबर के टायरनुमा पहियांे ने ले लिया है। सड़कांे पर ये पहिये ठीक से नहीं चल पा रहे हैं, इस कारण देश की सड़कांे पर अब रबर के पहियांे वाली बैलगाड़ियां चलने की कोशिश में हैं। लोग यदि लगे हाथ बैल और अन्य जानवरांे की नस्ल सुधारने की ओर भी ध्यान दंे तो शायद इनकी अर्थ-व्यवस्था को ओर ज्यादा लाभ होगा।

एक अच्छा ट्रक बनाने के लिए हम करोड़ के कारखाने लगाते हैं, उनसे प्रदूषण फैलाते हैं लेकिन यदि बैलगाड़ियां बनाई जायंे तो अवश्य ही प्रदूषण से भी बचा जा सकेगा। जो लोग ये सोचते हैं कि बैलगाड़ी पिछड़ेपन और अठारहवीं शताब्दी की निशानी है तो वे गलत सोचते हैं, वे शायद नहीं जानते कि आज भी बैलगाड़ी ही हमारी ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था का प्रमुख आधार है जो पूर्ण रूप से प्रदूषण से मुक्त है, सस्ता है, आम आदमी की पहुंच में है तथा हमारे पशुधन का सर्वोत्तम उपयोग है।

आज के इस वैज्ञानिक युग में यदि ऊंची ग्रामीण तकनीक के सहारे बैलगाड़ियां का विकास किया जाये तो हमारी अर्थ-व्यवस्था सामान विनिमय के क्षेत्र में एक नई क्रांति का सूत्रपात करने में सक्षम है।

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