2. विचित्र स्वप्न
विराजनाथ गहरी नींद में सोया हुआ था। धीरे -धीरे उसकी निंद्रा इतनी गहरी होती हो गई उस मानों किसी भी चीज़ की सुधबुध ही नहीं रही हो...उसे इस बात से भी कोई भी आपति नहीं थी कि वह जंगल में पेड़ के नीचे सो रहा है। सच कहा है किसी ने कि """पेट न देखे भुख और नींद ना देखे खटिया"""
यह बात विराजनाथ के ऊपर बिल्कुल सत्य ही बैठ रही थी ...और मानों यह कहावत बिल्कुल विराजनाथ के लिए बनी हुई हो। यह सर्वथा सत्य ही तो है कि जब व्यक्ति को अत्याधिक भुख लगती है तो वह यह नहीं देखता है कि रोटी सुखी या बांसी हो पर वह उसे तब भी खा लेता है और जब व्यक्ति को अत्याधिक नींद आती है तो उसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि वो घटिया पर सोया है या जमीन में ।
विराजनाथ की हालत भी कुछ ऐसी ही थी ...होती भी क्यों नहीं ...इतनी लम्बी व जटिल यात्रा जो की थी उसने तो थकावट होने कारण आंख लगते ही गहरी नींद आ ही जाती है।
विराजनाथ भी गहरी नींद में आराम से सोया हुआ था और जब उसकी नींद और गहरी होने लगी तो वह अपने आपको किसी सुन्दर वातावरण में देखता है और उस वातावरण में एक दिव्य ऊर्जा प्रवाहित हो रही थी और साथ ही पास में एक शीतल पारदर्शी झरने का पानी कल-कल करते हुये लयबद्ध के साथ बह रहा था , मानों कि कोई मधुर सा संगीत गुनगुना रहा हो और पक्षियों की मीठी सुरली आवाज में चह-चहकानें की मधुर आवाज मानो कोई धुन गा रही हो और कोयल की मधुर-सुरीली आवाज मानों कोई मधुर संगीत गुनगुनाना रही हो और कोयल की मधुर मीठी आवाज इतनी सुरली थी कि मानों कोई सुरीली मीठी आवाज वाली कोई स्त्री शास्त्रीय संगीत गा रही हो। चारों तरफ हरियाली और पेड़-पौधों से घिरा हुआ अद्भुत सौंदर्य से युक्त वातावरण जो किसी के मन को भी मोह लें ...और साथ में आध्यात्मिक ऊर्जा का प्रवाह जो व्यक्ति के मन को एक अपू्र्व शांति का आभास दिला रही हो और इसी वातावरण में एक दिव्य आश्रम बना हुआ था।विराजनाथ आश्रम को देखकर धीरे -धीरे उसकी ओर बढ़ने लगता है । आश्रम के द्वार तक पहुंचने पर विराजनाथ धीरे से आश्रम के द्वार पर बने हुये दरवाजे को खटखटाता है और कहता है।
कोई है ...क्या कोई अन्दर है...।
आश्रम के अंदर से कोई आवाज नहीं आती है। विराजनाथ पांच -छ: बार दरवाजा खटखटाता है और आवाज देता ..परंतु अंदर से किसी की भी आवाज नहीं आती है।
विराजनाथ थोड़ा हैरान सा हो जाता है और सोचने लगता है कि क्या इस आश्रम में कोई भी नहीं रहता है...आखिर ये किसका आश्रम है और यह कौन -सी जगह है और मैं ये कहां आ गया हूं।
आश्रम बाहर से प्राचीन और थोड़ा पुराने से जर्जर हालात में दिख रहा था ...उसे देखकर ऐसा लग रहा था मानों इस आश्रम को पुन: जीर्णोद्धार करने की आवश्यकता हो और यदि कोई जोर से हवा के तुफान का झौंका आ जाये तो यह आश्रम उस हवा के झौंके के साथ ही उड़ जायेगा।
यह सब देखकर विराजनाथ सोच ही रहा था कि अचानक उस आश्रम के दरवाजे की...खुलने की आवाज आती है और विराजनाथ एकदम सतर्क और सावधान हो जाता है और दरवाजे की ओर देखने लगता है...जब विराजनाथ दरवाजे को गौर से देखता है तो वह बहुत ही आश्चर्यचकित हो जाता है...क्योंकि उसे दरवाजे पर कोई भी खड़ा हुआ दिखाई नहीं देता है और वह हैरान होकर सोचने लगता है कि आखिर यह दरवाजा किसने खोला होगा और यहां पर कोई दिख भी नहीं रहा है....क्या यह दरवाजा अपने आप खुला होगा...विराजनाथ यह सब सोचने लगता है और धीरे -धीरे दरवाजे के पास आकर उसके अंदर चला जाता है और जैसे ही विराजनाथ दरवाजे के अंदर चला जाता है तो दरवाजा अचानक से अपने आप बंद हो जाता है और विराजनाथ एकदम से चौंक जाता है और तेजी से वापिस दरवाजे की तरफ बढने लगता है और दरवाजे के पास पहुंचकर वह दरवाजे को खोलने की नकाम कोशिस करने लगता है।थोड़ी देर तक इसी तरह से लगातार नाकाम कोशिस करने पर विराजनाथ थक हारकर अब कमरे के अंदर जाने का ईरादा कर लेता और सोचता है कि शायद सम्भवत: अंदर जाकर कहीं बाहर निकलने का कोई ना कोई मार्ग मिल जाये..यही सोचकर विराजनाथ धीरे -धीरे से आगे बढ़ने लगता है ...परंतु कमरे में बहुत अंधेरा होने के कारण विराजनाथ को कुछ भी सही से दिखाई नहीं देेता है और उसे दूसरे दरवाजे तक जाने का सही रास्ता भी दिखाई नहीं देता है ,ना ही कमरे के अंदर प्रकाश करने के लिए कोई भी वस्तु आदि थी और इस अंधेरे कमरे में चलते हुये विराजनाथ के पाँव पर कुछ चोटे लग जाती है ।हांलाकि चोटें ज्यादा गहरी तो नहीं थी पर उसके पाँव पर थोड़ -बहुत खरोंचें तो जरूर थी।
विराजनाथ अब थोडा सा परेशान सा हो जाता है ...क्योंकि अंधेरा बहुत गहरा होता है ..जिसमें सही से देख पाना सम्भव ही नहीं
था।विराजनाथ का दिमाग भी कुछ सोच -समझ ही नहीं पा रहा था कि आखिर अब क्या किया जाये ...किस तरह से अब इस कक्ष से बाहर निकला जाये।
...और कक्ष में अंधकार भी बहुत था।जिसमें कुछ भी देख पाना बिल्कुल असंभव सा था।
विराजनाथ इस अंधकार में धीरे-धीरे ही अपने कदम को आगे बढ़ाते हुये उस कक्ष की एक छोर की ओर चल रहा था। अपने हाथों से उस कक्ष के हर वस्तु को छुता हुआ जैसे -तैसे करके विराजनाथ उस कक्ष के एक कोने के पास पहुंचता है तो विराजनाथ उस कक्ष की दीवार को अपने हाथ से छुता है ...तो विराजनाथ ने जैसे ही उस दीवार को अपने हाथों स्पर्श किया तो उसे ऐसा महसुस हुआ कि यह दीवार नहीं बल्कि एक दरवाजा है और विराजनाथ के हाथ लगाते ही वह दरवाजा अपने आप खुल जाता है और उस दरवाजे के अंदर से एक दिव्य आलौकिक तेज प्रकाश निकलने लगता है और धीरे -धीरे उस दिव्य आलौकिक तेज प्रकाश की रोशनी इतनी तेज और अधिक होने लगती है कि जिसे खुली आंखों से देख पाना ही असंभव सा था और मानों कि उस दिव्य आलौकिक तेज प्रकाश से आँखें ही चौंधियां जायें।
विराजनाथ उस प्रकाश को देख ही नही पा रहा था उसकी रोशनी अधिक होेने के कारण उसने अपनी आँखें जल्दी से बंद कर दी।यदि विराजनाथ थोड़ी देर और उस तेज प्रकाश को देखने की कोशिस करता तो उसकी आंखों की रोशनी भी जा सकती और वह नेत्रहीन हो सकता। अचानक से विराजनाथ को वह तेज अंदर खींचने लगता है और देखते ही देखते विराजनाथ का पूरा शरीर उस दिव्य आलौकिक तेज प्रकाश में ही कहीं लुप्त सा हो जाता है।
विराजनाथ को पूरी तरह से वह दिव्य आलौकिक तेज प्रकाश अपने अंदर समेट लेता है और विराजनाथ पूरी तरह से उस दिव्य तेज प्रकाश में कहीं लुप्त सा जाता है।मानों कि उस दिव्य आलौकिक तेज प्रकाश नें विराजनाथ को अपने अंदर ही निगल लिया हो।आँखें बंद होने के कारण विराजनाथ को कुछ भी पता नहीं चलता है कि उसे दिव्य आलौकिक तेज प्रकाश नें अपने अंदर समेट लिया है। विराजनाथ पूरी तरह से अपने अंदर समेंटते ही वह दिव्य तेज आलौकिक प्रकाश गायब हो जाता है और कमरे का दरवाजा अपने आप ही बंद हो जाता है।
यह प्रकाश कोई सामान्य प्रकाश था.....यह दिव्य आध्यात्मिक तेज प्रकाश था और ...इस तरह के आध्यात्मिक प्रकाश को उच्चकोटि के आध्यात्मिक योगी अपने आश्रम या कक्ष के चारों ओर लगाकर रखते थे जिसके कारण कोई भी सामान्य व्यक्ति या चौथे आध्यात्मिक स्तर के उन्नाचसवें चरण से कम आध्यात्मिक ऊर्जा वाले साधक भी उस आश्रम ,क्षेत्र या चिह्नित क्षेत्र को नहीं देख पाते और उनके लिए उस आश्रम व क्षेत्र में प्रवेश करना असंभव सा ही होता है। आम मनुष्य की तो क्या बात कर सकते हैं।
आध्यात्मिक स्तर अर्थात आध्यात्म के महाचरण और भौतिक भाषा में कहूं तो आध्यात्मिक लेवल ।
वैसे तो आध्यातम के आठ स्तर होते है और जब साधक एक -एक स्तर को पार करता जाता है तो उसके तपोबल ,साधनाबल और शक्तियों में वृद्धि होने लगती है और जब कोई साधक या व्यक्ति आध्यात्मिक स्तर के आठवें स्तर को पार कर लेता है तो वह व्यक्ति परमहंस की श्रेणी में आ जाता है और उसकी दृष्टि व सुनने की क्षमता आलौकिक हो जाती है और आध्यात्म की समस्त प्रकार की सिद्धियोंव शक्तियों का वह स्वामी बन जाता है और उसका मानसिक व शारीरिक बल में आलौकिक वृद्धि होती है और साधक ब्रह्ममय होकर परब्रह्म में स्थित हो जाता है या यूं कहें कि वह व्यक्ति भगवान स्वरूप तुल्य हो जाता है। परमहंस की अवस्था अपने आप में ही अद्वितीय अवस्था है ...परंतु आज के इस कलियुग में परमहंस अवस्था को प्राप्त करना बेहद ही कठिन है और दुष्कर कार्य है।
इन आध्यात्म स्तर के अंतर्गत प्रत्येक आध्यात्मिक स्तर के 49 आध्यात्मिक चरण आते हैं और आध्यात्म क्षेत्र के आठ प्रकार के इस प्रकार से है:-
1. साधक स्तर
2. शिष्य स्तर
3. तांत्रिक स्तर
4. मुनि स्तर
5. ऋषि स्तर
6. योगी स्तर
7. सिद्ध स्तर
8. परमहंस स्तर
इन आध्यात्मिक स्तर को पार करना बेहद कठिन तो है ...परंतु नामुकिन नहीं है। इन आध्यात्मिक स्तर के अंतर्गत प्रत्येक स्तर में ही 49 आध्यात्मिक चरण होते है और पहले आध्यात्मिक स्तर के 49 चरण को पूरा करने पर ही साधक अगले आध्यात्मिक स्तर में प्रवेश प्राप्त कर लेता है।
विराजनाथ ने प्रथम आध्यात्म स्तर के सभी 49 चरणों को पूर्ण रूप से पार कर लिया था या यूं कहें कि पूर्णता प्राप्त कर ली थी और अभी वह द्वितिय स्तर के ग्यारहवें चरण में था ...इसलिए विराजनाथ उस दिव्य तेज प्रकाश को अपनी खुली आँखों से देख ही नहीं पाया।
इन आध्यात्मिक स्तरों के 49- 49 चरणों को पूरा करने में बहुत कठिनाईयों और कठोर परिश्रम और आभ्यास की आवश्यकता अत्याधिक होती है और लगातार आध्यात्मिक साधना का आभ्यास करना पड़ता है। तब जाकर कहीं व्यक्ति एक-एक स्तर को पार करके अंतिम स्तर अर्थात परमहंस अवस्था को प्राप्त कर लेता है।