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मैकाले का दोष


एक ज़माने में हमारा देश जगद्गुरु था। देश-विदेश से लोग शिक्षा पाने के लिए भारत आते थे। एक से बढ़कर एक शिक्षा संस्थानों से हमारा देश जगमग करता था। विक्रमशिला, नालंदा तथा तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालय जगप्रसिद्ध थे। विद्वानों की एक परंपरा अपने देश में थी।
विद्वानों का आदर होता था। राजे-महाराजे भी विद्वानों के आने का समाचार सुनकर अपने स्थानों से उनके सम्मान में उठकर खड़े हो जाते थी। कहने का अर्थ यह है कि लक्ष्मी भी सरस्वती के सामने झुकती थी।
समय बदला। हमलोगों ने आपस में लड़ना प्रारंभ कर दिया। परिणाम गुलामी के रूप में आयी। विदेशियों ने शासन करना प्रारंभ कर दिया। पारंपरिक शिक्षा-व्यवस्था जो गुरुकुल के नाम से जानी जाती थी – उसका सत्यानाश कर दिया। रही-सही कसर मैकाले ने निकाल दी। आज हम सभी मैकाले को गाली देते थकते नहीं हैं।
शिक्षा के क्षेत्र में भी समय बदला। लक्ष्मी सरस्वती के ऊपर हावी हो गयी। लक्ष्मी का बोलबाला हो गया। अयोग्य लोगों की बहाली शिक्षा के क्षेत्र में हो गयी। पहले ‘वशिष्ठ’ बनने के लिए उच्च कोटि की अर्हता चाहिए थी। अब ‘वशिष्ठ’ धन के बल पर कोई भी बन सकता था।
एक विद्यालय-श्रृंखला को चलाने के लिए मुखिया के पद पर सुशोभित होने के लिए किसी योग्यता की आवश्यकता नहीं है। कोई भी व्यक्ति इस पद पर बैठकर मुख्य कार्यकारी के पद की गरिमा को बढ़ा सकता है।
ज्योति प्रसाद एक विद्यालय में शिक्षक हैं। लोग उनकी तुलना विश्वामित्र, वशिष्ठ तथा परशुराम से करते हैं। उनके द्वारा पढाए गए छात्र अनेक उच्च पदों पर स्थापित होकर समाज तथा देश का नाम रोशन कर रहे हैं। ज्योति प्रसाद के पास कुछ नहीं है। एक सायकिल भी अपने लिए नहीं खरीद सके हैं। वे अपने बच्चों को ठीक से पढ़ा नहीं पा रहे हैं। पुराने कोट से वे अपना कार्य किसी तरह चलाते हैं। वह कोट भी उन्हें शादी के वक्त ससुराल से उपहार में मिला था। वेतन इतना कम है कि किसी को वे बत्ताते भी नहीं। महर्षि संदीपनी की तरह जीवनयापन करते हैं। रोज विद्यालय जाते हैं। पूरे मनोयोग से पढ़ाते हैं। बच्चे अच्छे अंकों से सफल होते हैं।
इसका परिणाम यह है कि समाज में ज्योति प्रसाद की काफी इज्जत है। बाजार में नमस्ते सर, प्रणाम गुरुजी आदि की आवाज गूंजने लगती है। बच्चे झुककर अथवा पैर छूकर प्रणाम करते हैं।
ज्योति प्रसाद इतने से खुश रहते हैं। इससे अधिक और उन्हें कुछ नहीं चाहिए। घर में उनकी सहधर्मिणी मुस्कराकर दरवाजा खोलती है। उनकी थकान दूर हो जाती है। बच्चों के साथ रात बितात्ते हैं। फिर उनकी दिनचर्या प्रारंभ हो जाती है।
अभी विद्यालय के सचिव पद पर एक नया-सा व्यक्ति आ गया है। उसे ज्योति प्रसाद ने ही पढाया है। कई बार फेल हो चुका था। देशसेवा का भूत सवार होकर वह इस संस्था में आ गया तथा सचिव पद पर बैठकर पद की गरिमा को बढाने लगा।
विद्यालय में प्रबंधन के साथ कक्षा दसवीं तथा बारहवीं के परीक्षा परिणाम को लेकर बैठक चल रही थी। सब अध्यापकों का परीक्षा परिणाम देखा जा रहा था। चर्चाएँ चल रही थी। परिणाम आशा के अनुरूप है या नहीं – इस पर मंथन चल रहा था। इस क्रम में ज्योति प्रसाद की बारी आई। सचिव बोला, ' ज्योति प्रसादजी, इस बार आप का परिणाम आशा से कम आया है।'
ज्योति प्रसाद जी हैरान थे। उनका पढ़ाया हुआ छात्र जो एक पंक्ति अंग्रेजी नहीं बोल सकता था। जिसको वे पीट-पीटकर थक जाते थे, पर वह नहीं पढ़ता था। दो बार फेल हो चुका था। रईस बाप का बेटा था। देशभक्ति के भूत के कारण आज स्कूल का प्रबंधक भी था।
ज्योति प्रसाद जी हैरान थे। नालायक शिष्य आज गुरु से पूछ रहा था कि उसे पढ़ाना आता है या नहीं, दिल हुआ कि पूछे, बेटा तू क्या पढ़ता था। पर क्योंकि बेटी की शादी करनी थी, नौकरी कहीं हाथ से न चली जाए, तो हाथ जोड़कर खड़े हो गए और बोले, 'सर, अगली बार शिकायत का मौका नहीं मिलेगा।'
मास्टरजी की आंखों की नमी किसी को नजर नहीं आई, पर सचिव महोदय की आंखों की चमक सबको दिखी। उनकी देशसेवा आज पूरी हो गयी थी। वे भी जानते थे कि दुनिया तो मैकाले को ही कोसेगी।

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