बोलता आईना - 4 - अंतिम भाग बेदराम प्रजापति "मनमस्त" द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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बोलता आईना - 4 - अंतिम भाग

बोलता आईना 4

(काव्य संकलन)

समर्पण-

जिन्होंने अपने जीवन को,

समय के आईने के समक्ष,

खड़ाकर,उससे कुछ सीखने-

समझने की कोशिश की,

उन्हीं के कर कमलों में-सादर।

वेदराम प्रजापति

मनमस्त

मो.9981284867

दो शब्द-

आज के जीवन की परिधि में जिन्होंने अपने आप को संयत और सक्षम बनाने का प्रयास किया है,उन्हीं चिंतनों की धरोहर महा पुरुषों की ओर यह काव्य संकलन-बोलता आईना-बड़ी आतुर कुलबुलाहट के साथ,उनके चिंतन आँगन में आने को मचल रहा है।इसके बचपने जीवन को आपसे अवश्य आशीर्वाद मिलेगा,इन्हीं अशाओं के साथ-सादर।

वेदराम प्रजापति मनमस्त

गुप्ता पुरा डबरा

ग्वालियर(म.प्र.)

31.बाजार लगा हैं।--------

सज रहा,धरा पर विश्व युध्द,शंख ध्वनि क्या सुन पाई।

बाजार लगा है युध्दों का,क्या माल खरीदोगें भाई।।

अस्सी वर्षों से पूर्व लखों,दो युध्द हुए थे धरती पर।

उन्नीस सौ अठारह,उन्तालिस,त्राहिमाम मची थी धरती पर।

जापान की धरती रोती है,नागाशाकी अरु हिरोशिमा-

रुखी-सी कहानी रुस कहे,अनगिनत मरे थे,धरती पर।

ओ मानव।भूल नहीं करना युध्दों से हों,गहरी खाई।।1।।

कैसा है समय का दौर यहाँ,शरहदें सुलगतीं दिखा रहीं।

कई ईस्ट इंडिया दिखा रही,अंधी आवाजे सुना रही।

कई युध्द खड़े है आज यहाँ,इस पर ही सोच बिचार करो-

शरहद से लिपट तिरंगो ने,शहीदों की कहानी नहीं कहीं।

कोविड,कैंसर,दुर्घटनाऐं,अभिव्यक्ति दशा क्या लख पाई।।2।।

सच पर लगाम,विकता मीडिया,झूँठा दरबार सजाओगे।

मुमकिन बोलो-जीना है अगर,ना मुमकिन नहिं कह पाओगें।।

कहानी विनाश मिशायल बोलें,पागलपन यहाँ,टकराता है-

न्यायोंकी धरती डोल रही,बोलो-क्या कुछ कह पाओगे।

कब-क्या हो जाए,कौन कहे,सांमत मानव की ही आई।।3।।

मंहगाई शिर पर बोल रही,फैसन का जादू यहाँ चला।

मानव का मन फीका लगता,रिश्तों का रिश्ता यहाँ गला।

मोबाइल की दुनियाँ मचली,संगीती दिन गायब हो गए-

जीवन युध्दों भर मार यहाँ,कितनों युध्दों को कहैं भला।

सम्बंध बिगड़ रहे आपस के,लड़ते है यहाँ भाई-भाई।।4।।

32.मृत्यु का सच-----

सदाँ अमरता ही पढ़ो,कहाँ मृत्यु का नाम।

दोनों हो सकते नहीं,धूप-छाँव इकठाम।।

पहिचानों उस ठाम को,जहाँ दर्द का वास।

ध्यान रखो उस जगह पर,होय़ दर्द का नाश।।

दर्द वहाँ और मैं यहाँ,कितनी दूरी यार।

भूल उसे,कर ध्यान तो,दर्द जाऐगा हार।

मृत्यु से भय नहीं मुझे,मैं शरीर नहीं मीत।

यह जानो,तन मरेगा,फिर मैं क्यों भयभीत।।

सच तो सच है,क्या उसे,कसम करेगी सत्य।

कसम-झूँठे के साँच हित,झूँठ न होता,सत्य।।

भय तो बसता झूँठ ढ़िग,नहीं सत्य के पास।

बदल न सकती सत्य को,कसम करो विश्वास।।

संवादी बन,जब सुनो,होगे एकाकार।

दूरी नहीं तब कहीं भी,हो दर्पण साकार।।

दर्पण बनकर,जो सुनत,सच्चा सुनना मान।

नहीं विवाद ठहरे वहाँ,सच्चा सुनना जान।।

वह सुनना,सुनना नहीं,पीना अमृत क्षीर।

आत्मशात की क्रिया है,गुंजन मन मैं-धीर।।

मृत्यु शब्द वहाँ असंभव,जहाँ जीवन लिया जान।

जीवन को जाने विना,अघटत-घटा ही मान।।

जहाँ प्रकाश,तहाँ तम कहाँ,बतला सकते आप।

जीवन जहाँ,तहाँ मृत्यु कब,केवल भय की छाप।।

जीव सदाँ से अमृत हैं,यदि जाना यह भेद।

जीवन से परिचय करो,कहाँ मृत्यु के खेद।।

कठिन नहीं,पर है कठिन,यदि बुध्दि है अल्प।

सरल बना सकते उसे,करके दृढ़ संकल्प।।

जो जाना-मरना सखे,जीवन जाना बोहि।

यही आर्ट ऑफ लिविंग है,समुझो-समुझा ओहि।।

33.नेता नगरी-------

नेताओं की नेता नगरी,दिन की रातें थी।

सच्चाई इस तरफ-उधर में गहरी घातें थी।।

दर्द किसानों का उछला,तो बहके वे भारे।

बिजली के बिल की बातों पर,भाषण कई झारे।।

ईमानदारी खड़ी रोड़ पर,झूँठ गलीचों पर-

नौंक-झौक सुन रही अदालत,अपने ही द्वारे।

शर्म आ रही थी सुनने में,ऐसीं बातें थी।।1।।

रेत माफिया इतना तगड़ा,हाथ नहीं आता।

कितना घाल-मेल नेतन से,कोई न बतलाता।

सड़कों की यदि बात करैं तो,रोज कई घटना-

गहरों गड्डों की मारों से,जन-जन टकराता।

नेता मारत डींग झूँठ की,बातें-रातें थीं।।2।।

गन्ना मिल खा गए,हमारे ही घर के नेता।

नई फेक्ट्री लगन नहीं दीं,को टक्कर लेता।

जिनकी लगीं फैक्ट्री,वे तो उनके ही चमचे-

सारी ही नदियों की वे तो,खाय गए रेता।

जान मान कर विकाश रोका,फिर भी डाटें थीं।।3।।

नगरपालिका बनी कालिका,शहर तोड़ डाला।

किसकी,कितनी क्या बतलाऐं,बदल-बदल पाला।

सबकी बंद बोलती,बोले अगर,गए थाने-

स्वास्थ्य,शिक्षा चौपट हो गई,क्या देखो लाला।

कितना झूँठ बोल रहे सबरे,दिन की रातें थी।।4।।

प्रश्नोत्तर के इन दौरों में,कई पत्ते खोले।

सबने ही वहाँ पर खोले थे,जादू के झोले।

खूब हो रही नौंक-झौंक पर,हल नहिं कोई निकला-

सच्चाई की बात कहैं तो,कोई मासे-तौले।

वोट बटोरन की नित-नित,मनमस्त बराते थी।।5।।

34.बाजीगरी-खेल (राजनीति)------

एक गदहा,गदहे से बोला,सुनलो मेरे भाई।

जनता चतुर हो गई यहाँ की,दाल नहीं गल पाई।

मिले बाद एक बाद खेल लो,चले कहीं छू-छक्का-

नौंक-झौंक ऐसी कर डालो,जनतहि लो भरमाई।।

एक दूजे की करो बुराई,बुरा न कोऊ मानों।

जनता भटक जाऐ राहों से,ऐसो गालो गानों।

यौं सबने बतराया मिलकर,राजनीति गलियारे-

ऐसे-ऐसे छिड़े तराने,मानो चाह न मानो।।

गाय और बछड़ा के संग में,इनको देखा मैंने।

कितनी पहनीं श्वेत टोपियाँ,झूँठे लैने-दैने।

कई जोड़ दे,कई मोड़ दें,पंजा को अपनाया-

साठ साल में चर गए भारत,इनके क्या-क्या कहने।।

परिवर्तन चाहा जनता,तो उनने दिया दिखाया।

खड्ड बडड जनसंघ हुआ तो,धरती कमल खिलाया।

कैश-लैश कर दए गरीवन,हथखण्डी जादूगर-

निरा घोषणावादी,ढ़ोगी,कपटी-छलमय साया।।

मंद-अंध मतबाला वनचर,हाथी उधर उतारा।

रौदे-कई क्षेत्र उसने भी,बनकर पाहन नारा।

राजनीति की पंक फसगया,निकल न पाया अबतक-

कितनी चिंघारें कीं उसने,फिर भी-हारा-हारा।।

कहीं चक्रधर,कहीं स्वास्तिक,नहीं मंजिल चल पाया।

मण्डल और कमण्डल रह गए,साईकल नम्बर आया।

बिछेहुए कंटक-कंकड में,वह भी नहीं चल पाई-

हाथ सहारे चला ड्रायवर,फिर भी नहीं निभ पाया।।

टिम-टिम जलतीं-कहीं लालटेन,किस झौका बुझ जाऐ।

झाडू भी कमजोर हुआ कुछ,भारत झाड़ न पाऐ।

ऐरे-गेरे कई टुट पुंजिए,क्या मग पार करैंगे-

है नईया भगवान भरोसे,किसका साथ निभाऐ।।

जनता चौराहे पर ठाडी,निर्णय नहीं,ले पा रही।

नहीं भरोसा आज किसी का,सब परिचम फहरा रही।

अजब-गजब चालों में उलझी,पी रही-घनऔ मंदिरा-

जितै बटौना बटत देख ले,ताकेई गीत गा रही।।

अब तौ लग रहो मेरे भइया-दुमुहे राज करैंगे।

चलैं दुलत्ती उनकी हरदम,उनसे सभी डरैंगे।

न्याय-नीति की करो न आशा,परिभाषा यह भारत-

चुप्प-चाप जी लो मेरे भाई,ये ही राज करैंगे।।

35.बदलती-परिभाषा-------

देखा राजनीति दौर,कितना मचाया शोर।

को-को बनाया बाप,मतलब के ठौर-ठौर।

श्रंगार कर,माला पिनाई,शीश पर शैहरा धरा-

यौं गदहे पर बैठकर,हँस रहे थे-दौर-दौर।।

छलमयी सारी व्यवस्था,ले-खरीदी दौर था।

कब्र भी खोदीं-उखाड़ी,अपना बनाया ठौर था।

गाँव,होली-ईद बाँटे,अरु दिवाली-दशहरा-

बुझायीं-बिजलीं जलायीं,बस यहीं अंधेर था।।

नारियल का जूश-पी,अन्नास मुँह काला किया।

मुफलिसी में,सब निहारा,लोभ का जामा सिया।

कई तरह से-कई घसीटे,मूर्ख दौरा-दौर था-

सिर्फ थीं कहानी विकासी,राजनेता यह किया।।

भाषणी-भाषा अनौखी,और लच्छेदार थी।

नोटबंदी की कहानी,संग में उपहार थी।

काला धन हमको मिलेगा,सोचते जन-धन लिए-

लोकतंत्री यह कहानी,चुनावी श्रंगार थी।।

इस तरह दर्शन गढ़े थे,भेड़ियों ने सिंह बन।

नोट,भूषण,मिष्ठभोजन,हो गयीं बोतल भी धन्।

इक तरफ गंगा सफाई,पाक मंशूबे लगे-

किस तरह कह दें हकीकत,कर दिए,अंधे भी जन।।

इस तरह से बह रहा था,श्रम हमारे सामने।

इन अनूठी रेलियों में,मस्त कीने जाम ने।

कल खड़े जो-बैंक-लाईने,चिल चिलाती धूप में-

आज यौं ही हँस रहे है,राजनीति दाम ले।।

न्याय के दरबार ऊँघत,न्याय मिल पाता नहीं।

व्यवस्था नाकाम,कोई ठीक कर पाया नहीं।

जातिबाद,साम्प्रदायिक,दल-वल घरौंदे फूलते-

हो गए बेगाने रिश्ते,समझ कुछ आता नहीं।।

कौन की क्या-क्या कहैं अब,सभी तो बदहाल है।

सौंपते जिनको व्यवस्था,वेही फिर बाचाल है।

सब बने औकाद ओछे,हर तरह से,क्या कहैं-

देश की स्वतंत्रता भी,लग रही-वे-हाल है।।

शैक्षणिक संस्थान उजड़े,उधोग भी लाचार हैं।

अस्पताल-सड़को की कहानी,हो गई व्यापार हैं।

आत्म हत्या कृषक करते,पुरुषकार कर्मणि कोई को-

सोचना सबको यहाँ है,जीत है या हार हैं।।

वर्ष यौं सत्तर गुजर गऐ,भाग्य अजमाते यहाँ।

मिल सकी कीमत श्रमों की,देखलो यहां,कब कहाँ।

दास्तानें रह गईं बस,देश की बर बादियाँ-

कब स्वर्ग होगी धरा यह,स्वर्ग आए कब जहाँ।।

36,इक वाटिका--------

विहारो-विहारी-विहार वाटिका में,

बाबू की भैंसिन को भूषा खिलाइऐं।

आऐगा उत्सव सा,जीवन के,जीवन में,

दुःख दूर होवेगे,दूधन नहाइये।

डोलता विकास यहां,गली-गली,गलियारन,

अनुपम आनंद यहाँ,जीवन का पाइए।

मेरी इस धरती के,भारे ही भाग्य जगे।

एक बार,विहार हेतु-भारत में आए।।

उत्तर दे-उत्तर सा,उत्तरप्रदेश जब,

मुर-मुर के मोदक भी,रसगुल्ले बन फूटेंगे।

पाके-पाक-परसे,पंजाब-परसादी जब,

शंका की शांकल से,शाही-शाह छूटेंगें।

फूल जाऐं,फूल-फूल,कश्मीरी गंध लिए,

दिल्ली के,विल्ली से,छींके,कबैं टूटेंगे।

गर्बीला-गोवा भी,मणिपुर का मान रखे,

गुजरे-गुजरातों के,हार कबै लूटेंगे।।

अडबड की खडबड में,अटके ते अटक रहे,

होऐगी पूँछ कभी,मूँछ कब ऐंठेगे।

मुरली कब बाजेगी,मुरझी मुराद जगें,

ऐसे अनेक यहाँ,ताज कबै बैठेगे।

सुन-सुन कै,सुनुन-सुनुन,बोलत सौन चिरैया यहाँ,

फस गए है उलझन में,नाथ कबैं छूटेंगे।

एकू एक तो लौट पड़े,धनुष नहीं तोड़ सके,

भारत जिन बाँध बधौ,वे-बाँध कबै फूटेंगे।।

मनमानी मिली भगत,पीती मलाई यहाँ,

मनी पाक बना-बना,खाते हैं रोज-रोज।

सच्चाई साख गई,झूँठाई जंगल में,

आगड़ो और बगड़ो को,लाऐ यहाँ खोज-खोज।

अंको का नया खेल,अंगड़ाई लिए खड़ा,

काजू मलाई के,होते है रोज-भोज।

शाही-शलाखों बीच,सच्चाई रोती है,

मनमस्त छुपा-छुपी,जैसे हो,चाँद दोज।।

37.विजय उत्सव---------

भारत बना आज रणवंका,रही न कोई शंका।

खेल कौसलम्,युध्द कौसलम्,सबने पूरौ हंका।

लौट गया पड़ौसी समुहां से,इतनी खा गओ शंका।

टिका न कोई,कहीं सामने,इतना है बल वंका।

विजय तूर्य भारत का बज रहो,कह मनमस्त निःशंका।।

होंगे सपने सबके पूरे,रहैं न कोई अधूरे।

सीमा युध्द न होगा कोई,समय नहीं अब दूरे।

हिन्दू-मुस्लिम-शिख-ईसाई,सब होगे दिल नूरे।

सोन-चिरइया फिर भारत हो,विश्व बंधुता जोरे।

कह मनमस्त,समय अब बदलौ,हौं मंशूबे-पूरे।।

आगे देश,हमें ले जानों,गुण्डा राज मिटानौ।

निर्भय हो सब रहें देश में,नारी-मुक्ति दिलानौ।

रहे अशिक्षित यहाँ न कोई,सब साक्षर कर जानों।

रहे गरीबी,कहीं नहीं भी,सबको काम दिलानौं।

कह मनमस्त,सुनो सब भाई,राम-राज्य ही लानौं।।

सबरौं देश डिजीटल करनौ,पे.टी.एम,सुमिरनों।

कैश-लैश सब भारत होगा,पैसा बैंकन धरनों।

धन की कमी रहे ना कोई,ऐप व्यवस्था करनों।

चोरी,बरजोरी सब मिट जै,ए.टी.एम विचरनों।

कह मनमस्त समय अब आ गयो,देर न बिल्कुल करनों।।

खेलौ हिलमिल कैं सब होरी,भरौ अबीरन झोरी।

कुम-कुम,चंदन तिलक लगा लो,लाल-गुलाबी रोरी।

बड़े दिनन में आई होरी,का सोचत हो गोरी।

उनके कारे मुँह कर डारौ,जो मनैं नहिं तोरी।

कह मनमस्त करौ अब मन की,बात मान लो मोरी।।

38.समय को-साधो------

ये तो समय काऊकौ नइयाँ,चलो संभल के गुंइयाँ।

बड़े-बड़े से यहाँ हिरा गए,उनकी रही न छंइयाँ।

रावण-कश,लखौ दुर्योधन,रहा न पानी-दइंयाँ।।

समय बड़ा बलवान,सोच लो,कोऊ संग न अंइयाँ।

कह मनमस्त समय को साधो,नहीं तो मिटैं,मड़इयाँ।।

होली हिलमिल खेलो प्यारे,नहीं बनौ,हुरिहारे।

चार दिना की होतई होरी,सोच समझ के गा रे।

प्रेम-प्रीत पिचकारी ले-लो,नेह गुलाल,लगा रे।

बड़े भाग्य-येसौ सब पायो,याको सफल बना रे।

कह मनमस्त,दाग नहिं लग जाए,ऐसी फाग रचा रे।।

मयकौ चार दिना के लानैं,फेर सासुरैं जानैं।

सोच समझ के चल लेउ गुंइया,हिलमिल यहाँ पर रानैं।

कोऊ उरख नैक नहीं पावै,ऐसो चलन-चलानैं।

चार दिना की होत चाँदनी,रैन अँधेरी ही आनैं।

कह मनमस्त,सोच लेऊ अब भी,नहीं पाछैं पछतानैं।।

कई एक पहिन हार इतराऐ,ऊपर मुँह,बौराऐ।

चाल बदल गई उनकी भइया,ऊँटन से-डकराऐ।

भूल गए अपनी सब बातें,का-का,कहाँ कह आऐ।

इतनी पी गए,बात न सुनते,अंधड़-दौड़ लगाऐ।

कह मनमस्त समय कौ चक्कर,को-को नहिं चकराऐ।

खेलौ समझ सोच कैं होरी,अभै चुनरिया कोरी।

तूँ ही नहीं एक,अलबेलौ,कई एक खेले होरी।

ज्यौं की त्यौं,बापिस भी कर गए,अबहूँ,समय ले थोरी।

नैं कऊ कहीं दाग जो लग गयो,कोऊ न पूँछहि तोरी।

कह मनमस्त समय को साधो,बची उमरिया थोरी।।

39.सोचा था कुछ और---------।

सोचा था कुछ और,यहाँ पर,सुख के साज,सजाऐगे।

नहीं समझे,जीवन गीता के,पन्ने झड़,उड़ जाऐगे।।

रंग-बिरंगे,वे गलियारे,आज धुँधल के साऐ में।

अरु बसंत-सी,वे मनुहारें,दाँऐ से भई,बाँऐ में।

सोने से,यादों के पन्ने,मुड़कर-सीधे हुए नहीं-

वे लोरी अरु गीत मल्हारे,शायद ही गा-पाऐगे।

विगत दिवस कीं,यादें गहरीं,कभी-भूल नहिं पाऐगे।।1।।

था मालूम नहीं,इस पथ पर,पगडंडी भी आऐंगी।

भीषण झंझाओं की आँधी,हमको ले,उड़ जाऐगी।

कितना समुझाया-समझा था,बदल बदलकर,बादे भी-

भारी भूल भई जीवन में,नींदे यौं उड़ जाऐगीं।

वे-मौसम के गीत-दुखों के,दादुर हमें सुनाऐगे।।2।।

कितनी लम्बी और कहानी,या अंतिम है छोर यहीं।

समझ नहीं आता है अब तो,मन की बातें,बहुत कहीं।

नहीं सोचा आशा का सूरज,यौं अंधियारा बन जाऐ-

अब भी-सोच रहे क्या कक्का,बहुत कही,अनकही,कही।

कितने कष्ट सहेगा जन मन,कब तक-वे-दुहरायेंगे।।3।।

क्या से क्या हो गया यहाँ पर,को अपने,को गैर भए।

भटकावे को लम्बा खींचा,बाबन-पत्ता-खेल नए।

गाड़ी नहीं आई लाईन पर,कुछ भी कह लो,तुम भाई-

जन जीवन-कष्टों के मग से,राहत कोई नहीं पाऐ।

कह मनमस्त-अबै भी कक्का,कितना-क्या समुझाऐगे।।4।।

40.बोलता आईना---------

भेद सारे तेरे,खोलता आईना।

बात दो टूक ही,बोलता आईना।।

सोचलो तो जरा,कैसे छुप पाओगे।

बात होगी-जभी,सामने आओगे।

जो भी भागा,कभी बात हो ना सकी-

सामने जो रहा,सब कुछ-समझ जाओगे।

आओ तो,सामने,पाओगे-माहिना।।1।।

अनदेखी-करोगे,कबै लौं यहाँ।

त्याँरी सारी कथा,जानती है जहाँ।

छोड़ी अठखेलियाँ,राहौं आओ जरा-

तेरी हालत पर हँसती है,सारी जहाँ।

हाथ अपना बढ़ाओ,जरा दाहिना।।2।।

सोच थोड़ा बदल दो,बहारैं सजैं।

हाथ दोनों मिलाओ,तो ताली बजैं।

देश आनंद सागर में,नहावै-तभी-

तेरे चिंतन के बदले,वो सबकुछ सजे।

अब तो-कोई बनाओ नहीं,बहाना।।3।।

तुझे,दर्पण के समुँहा तो,आना पड़े।

काहे जिद पर,अभी-भी रहे हो अड़े।

आईना ये,सभी कुछ,बता देयगा-

बात कुछ भी,किसी को,ना कहना पड़े।

मनमस्त जीवन ही,अपना बना आईना।।4।।

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