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बोलता आईना - 2

बोलता आईना 2

(काव्य संकलन)

समर्पण-

जिन्होंने अपने जीवन को,

समय के आईने के समक्ष,

खड़ाकर,उससे कुछ सीखने-

समझने की कोशिश की,

उन्हीं के कर कमलों में-सादर।

वेदराम प्रजापति

मनमस्त

मो.9981284867

दो शब्द-

आज के जीवन की परिधि में जिन्होंने अपने आप को संयत और सक्षम बनाने का प्रयास किया है,उन्हीं चिंतनों की धरोहर महा पुरुषों की ओर यह काव्य संकलन-बोलता आईना-बड़ी आतुर कुलबुलाहट के साथ,उनके चिंतन आँगन में आने को मचल रहा है।इसके बचपने जीवन को आपसे अवश्य आशीर्वाद मिलेगा,इन्हीं अशाओं के साथ-सादर।

वेदराम प्रजापति मनमस्त

गुप्ता पुरा डबरा

ग्वालियर(म.प्र.)

10.मनीषा---------

मुक्त चिंतन जहाँ पर, मनीषी करैं,

विश्व कल्याण जिसमें,मनीषा वही।।

हैं कहानी अनेकों लिखीं आज तक,

मानवी की जहाँ पर,निशानी मिली।

किस कदर से चली,राह अपनी लिए,

और किससे,कहाँ पर,जुवानी मिली।

रुप के,नूप के ही,रहे सिलसिले,

कथा कोई सही,पर कथानक वही।।1।।

दर्द की शरहदें भी,उजागर करै,

शान के मूलका ही,है चिंतन यहाँ।

पनपते है मरुस्थल,जहाँ भ्रान्ति के,

भ्रम निवारक,सुचिंतन,बनाती वही।

नयन की ज्योति-सी हो निराली छवि,

भाव-शिशु-सा पनपता,विचरता वहीं।।2।।

धर्म की,कर्म की,न्याय की,नीति की,

प्यार की,प्रीति की,गंग निर्मल बहे।

सौम्य,समता,समाहित मनो-मानवी,

शान्ति-कल्लोलनी बन,भुवन में बहे।

हो प्रकाशित,शरद के सरस चन्द्र–सी,

फैलती हो सदाँ,चाँदनी-सी सही।।3।।

मानवी की पिपासा,जहाँ शान्त हो,

ज्ञान के गंग जल के विमल सौर्य से।

जिसको देखा किसी ने,कभी-भी नहीं,

चिंतनो ने उभारा,उसे गौर से।

इस धरा की धरोहर,जगे जागरण,

बात दो-टूक,निर्भीक जिसने कही।।4।।

भूमिका हो समाहित-सभी राष्ट की,

नित्य चिंतन करैं,मिल मनीषी सभी।

शब्द भण्डार से,भव्य भावोध हों,

छुद्र भावों की धारा,बहे ना कभी।

सदाँ मनमस्त हो,मानषी का मकां,

विश्व-वंधुत्व फैले जहाँ,हर कहीं।।5।।

11.कवि-वंदन

शतत् वंदना है,कवि वर को।

रुप तुम्हारा,विधि,हरि,हर को।।

मानवता के सृजक,सुपालक ओर संहारक रुप तुम्हारा।

कभी-कभी तो,तुमसे सचमुच,सर्वश्रेष्ठ प्राकृत भी हारा।

प्रमुदित वदन कांति से,चिंतन दृष्टि तुम्हारी क्षितिज पार हो।

नैसर्गिक सौन्दर्य जलधि में,चिंतन करते सुमन-प्यार हो।

दूर दृष्टि और आत्मलीन हो,विश्व बनाया जिसने,घर को।।1।।

माँ के मंदिर की मृदु शोभा,उन्नतभाल,विश्व वत् चिंतन।

वाणी के वरदान,धरोहर,वेशमानवी,गौरव मंथन।

हो विराट बपु-काव्य पुरुष तुम,नव सृष्टि के,नव विहान हो।

विचरत सदाँ,कल्याण-जगत में, करते जन-जन का कल्याण हो।

कितना नमन करेगा जन-मन,युग प्रतीक,जय हो-शशिधर को।।2।।

रचनागर तुम सृष्टिकार हो,भारत माँ के हृदय हार हो।

सप्त तलों अन्दर तक देखन,दृष्टि तुम्हारी आर-पार हो।

तुम्हें जगत ने जान न पाया,समय चल रहा तुमरी छाया।

आत्म-ईश तुम ही हो युग के,तुमको सबने शीश नबाया।

समय साध्य तुम ही हो प्रियवर,समय साध्य कर दो,हर नर को।।3।।

12.वृक्षारोपण----

हक,हमें जब से मिला,

बहु वृक्षों का,रोपण किया।

पर रहे,बाँदे निकलते,

फल किसी ने,नहिं दिया।।

बहुत से तो,खाद-खाकर,

बेशरम इतने भऐ।

हार गई सारी,मनस्वी,

दूसरों को दुःख दिया।।

आस जिनसे कुछ लगी थी,

मौसमी बदलाब की।

क्या कहैं, उनकी जड़ो को,

ढीमकों ने,खा लिया।।

पनपते वे ही रहे,

जिनसे बहारैं भी दुखी।

उलझनी झाड़ी औ झाँखड,

हर जगह पर,वो दिया।।

वृक्षारोपण क्या किया,

हम शर्म से इतने दबे।

और की क्या बात कह दें,

स्वयं को धोखा दिया।।

13.हमारी महफिल-----

हमें न पूँछो, तुम्ही सोच लो,

क्या झगड़ा है।

ये चुल्लू भर पानी और तुम,

बोलो। कौन बड़ा है।।

हमारे यहाँ सब कुछ है,

ऊँट,गधे और न जाने क्या-क्या।

पहिचान कराने की जरुरत नहीं,

आप स्वयं,सब जानो, हैं क्या।।

डरो मत,भलाँ ये भीमकाय हैं,

देखने भर के,हमारी राय है।

बोझा ढोने भर के काम आते है,

अंकुश हो तो,दुधारु गाय है।।

बूँद-बूँद जौई बुन्देली,

लगत शहद-सी मीठी।

मनखों,मनसी जौई लगतई,

कबऊ लगै ना,सीठी।।

नीकी सुनतै,मीठी गुनतै,

हृदय की हम जोली।

और कहोजू,और कहो जू,

बुन्देली-बुन्देली।।

14.सकारौ------

यामिनी की देह को,

जब चाँदनी से धो दई।

मीत जुगुनू की चमक से,

रोशनी कुछ ले लई।

तारिकाओं ने हँसी दी,

रश्मियाँ कुछ फैंक कर।

और सुमनों ने अली की,

कालिमा को कैद कर।।

दुति मधुर मुस्कान,

जिसमें दाडिमी दन्तावली।

लालिमा गुलमौर की,

देने लगी जब,हर कली।।

स्फाटिक खगों ने मिलकर,

स्वच्छता अपनी दई।

हर प्रहर संघर्ष कीना,

रश्मि की काया भई।।

कर दयौ है श्वेत सबने,

रात कौ यौं,अंग कारौ।

रवि प्रभा का रुप पाया,

ताय सब कहते सकारौ।।

15.वह सूरज आऐगा------

चाहे जितना और घना कोहरा हो जाए।

अथवा काजल भलाँ,श्वेतता का पद पाए।

पर होता विश्वास,सभी कुछ हटने बाला-

वह सूरज आऐगा,जिसकी आस लगाए।।

आज सभी की विचारधारा,कितनी बदली।

उधर देखिए,काँप रही वह,कैसे कदली।

और चेतना-भी,काँटों में कितनी भटकी-

बरस न पाई कहीं,आजतक,मन की बदली।।

वियावान हो गया,धरा का चप्पा-चप्पा।

यहाँ विवेक और ज्ञान,खा रहे,गप्पा-गप्पा।

दूधीले अरमान,हो गए हैं पनछीले-से

विना लिखे कागज पर,देखो लग रहे ठप्पा।।

कानों में लगता आकर,सुनशान सो गया।

खाली मैदानों सा,मन भी आज हो गया।

मानव इतना पास आ गया और प्यास के-

लगता जैसे,अपने से ही,आप खो गया।।

जिधर देखिए,आँसू अपने गीत गा रहे।

बर्फ,कही बन ओस और ये बादल छा रहे।

उस किसान के भाल झरै श्रम मोती,मोती-

जहाँ देखते इन्हे,कर्म की गंगा वहा रहे।।

16.द्वार के दर्द-------

आज किसको सुनाऊँ,दर्द द्वार के,

दर-व-दर,घूमती है,हमारी व्यथा।।

बागबाँ से मिला,बाग को देखने,

बागबाँ ने हकीकत की,कहानी कही।

इन दरारों,ख्वालों में,विसधर पले,

द्वार के पहरुओं की,न पूँछो, सही।

ये बहारैं,जहर में बुझी आ रहीं,

हर कली के हृदय में,दर्द की कथा।।1।।

आसमाँ में लखा,चाँद रोते दिखा,

तारिकाओं के नयनों से,आँसू गिरे।

यामिनी ने शर्म से,बदन ढक लिया,

बहुत जीवन समस्या से,सूरज घिरे।

उधर रत्नों रहित,शिर्फ हलाहल मिला,

भूल ऐसी भई,व्यर्थ सागर मथा।।2।।

सुनो। हिमराज से मुलाकात जब-की,

हाथ हृदय पर धरके,यूँ कहने लगा।

आग इतनी,हृदय में धधकती मेरे,

राख रह जाऐगी,कुछ दिनों में जला।

ऊपर-नीचे,दाँए-बाँए मेरे,

दुश्मनों ने कटीले रचे हैं पथा।।3।।

जमीं कंपते दिखी,सागर आँसू भरा,

अब कहीं भी दिखाती नहीं जिंदगी।

कौन, कितने क्षणों तक गुजारा करे,

मौत के खेल को है,मेरी बंदगी।

ओ विराटी पुरुष।तुम कहाँ सो गए,

ये रसातल को जाती है,तेरी कथा।।4।।

आज,मानव नहीं-घोर दानव हुआ,

मौत के कारवाँ ले,समर में खड़ा।

खेलना चाहता है होली खूँन की,

समुझाया,मगर वह तो जिद पर अड़ा।

आज मनमस्त करने यहाँ मानवी,

ऐसी वंशी बजे,बृज धरा में यथा।।5।।

17.चाँद से आगे गऐ--------

छू लिया भू-गोल हमने,चाँद से आगे गए।

कौन,कह सकता कहाँ हम,भाव से बौने भए।।

लो उठा इतिहास,हम से दानवों ने हार मानी।

गर्व का गिरवर उठाया,माँगते सब,आज पानी।

वह बली दरबार,जहाँ जगदीस,क्या बौने भए।।1।।

चरण बौने पर उन्हीं को,धो रहे ब्रह्मा वहाँ।

शीश का पूजन भी उनका,कौन करता है कहाँ।

सोच लो तुम।कौन बौने,कौन ऊँचे हो गए।।2।।

ताड़ से ऊँचे खजूरों को कभी गौरव मिला।

संतरा,अमरुद,दाडिम,सेब से किसको गिला।

यूकेलिप्टस जो बने यहाँ,कौन के हितकर भऐ।।3।।

तुम भलाँ,बन विन्ध्य जाओ,सूर्य का मग रोकने।

पर भली किसने कही है,यह कहानी,सोचने।

अन्त में कुम्मज चरण में,झुक तुम्हारे शिर गऐ।।4।।

हैं बडे नारायण,जिनने चरण उर धारण किया।

भक्त अपने को बड़ा कह,भाव को पावन किया।

यह,सभी करके भी,बोलो नारायण कहाँ बौने भऐ।।5।।

जो दिखे बौने,उन्होने विश्व को ज्योतिर किया।

चाँद,रवि देखा,कि जिसने विश्व का तम हर लिया।

इसलिए धरती संभालो,दूर इससे क्यों हुए।।6।।

18.क्षणिकाऐं---------

अपने विषधर चहरे को,हर तरह छुपाने।

औरों को विषधर कहते हैं,गौरव पाने।

अपने को सुन्दर, उन नयनों,दोष लगाते,

अपने को,कोई नहीं कहता,हम भी काने।।

ये चाँडाल चौकड़ी,कब तक चल पाऐगी।

विन पतबारी नाँव,कहाँ तक,तर पाऐगी।

नित विनाश के खेल,रच रहे,क्यों यौं प्यारे,

ना जाने, किस क्षण,तूफानी हवा आऐगी।।

जिसकी बुध्दि,पराए घर की,वह क्या जाने।

अंधे भी,मोतिन की माला,कब पहिचाने।

सुमन माल भी,भ्रम अंधो को,सर्प लगी है,

आस्तीन के साँप,कहो किसने पहिचाने।।

दर्द,दर पर खड़ा है आज-भी।

आदमी-भी,घट रहा है,आज-भी।

क्या कहूँ,अपने वतन की दोश्तो-

देश मेरा,बँट रहा है,आज-भी।।

19.दीं वतन के वास्ते-------

गुनगुनाता चलूँ मैं नित,उस जमीं की कहानियाँ।

दी वतन के वास्ते जिन,रोशनी कुर्बानियाँ।।

घुट रही साँसें दिनों दिन,राज पथ की देख लो।

गो-धूलिका में धूसरित,अल्हड़ जवानी देख लो।

भोर से उस नीड़ में,कोई कोलाहल,है नहीं-

हो रही उत रागनी, वैभव-जमातों की कहीं।

उन रुँघे से कंठ की,कब मैंट लूँ हैरानियाँ।।1।।

स्वच्छ कमरों में भी जीवन,स्वाँस विन क्यों घुट रहा।

मुक्तता विन कृषक जीवन,किस तरह से लुट रहा।

उस प्रकृति की गोद करता.जिन्दगी का,कौन सींवन।

कौन है वो,देखते क्याॽजी रहा है महल जीवन।

फूल-सा जीवन यहाँ पर,पा रहा परेशानियाँ।।2।.

किस तरह,जीवन कहानी,रक्त हाथों ने लिखी।

किस तरह,सच में जवानी,शुष्क ओष्ठों में दिखी।

अंक में,पर्पयंक में किन,नींद पायी अनमनी-

खुरदरे पाषाण पर भी,नींद की कैसी छनी।

धूप में भी गा रहा वो,जिंदगी की,कहानियाँ।।3।।

सोचना तुमको पड़ेगा,आज के इस दौर पर।

जी रहा-कैसा-क्या जीवन,आज देखो कौन घर।

कलम कर में थामलो,देखकर,इतनी विषमता।

छोड़ कर अठखेलियाँ,उस जिंदगी का नाम लो।

नहीं तो, युग देयगा,इस कलम को बदनामियाँ।।4।।

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