बोलता आईना - 3 बेदराम प्रजापति "मनमस्त" द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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बोलता आईना - 3

बोलता आईना 3

(काव्य संकलन)

समर्पण-

जिन्होंने अपने जीवन को,

समय के आईने के समक्ष,

खड़ाकर,उससे कुछ सीखने-

समझने की कोशिश की,

उन्हीं के कर कमलों में-सादर।

वेदराम प्रजापति

मनमस्त

मो.9981284867

दो शब्द-

आज के जीवन की परिधि में जिन्होंने अपने आप को संयत और सक्षम बनाने का प्रयास किया है,उन्हीं चिंतनों की धरोहर महा पुरुषों की ओर यह काव्य संकलन-बोलता आईना-बड़ी आतुर कुलबुलाहट के साथ,उनके चिंतन आँगन में आने को मचल रहा है।इसके बचपने जीवन को आपसे अवश्य आशीर्वाद मिलेगा,इन्हीं अशाओं के साथ-सादर।

वेदराम प्रजापति मनमस्त

गुप्ता पुरा डबरा

ग्वालियर(म.प्र.)

20.चलना सीखो।--------

तुमको समझाते हैं बाबू,नियम धरम की बातें।

चलना सीखो।आसमान को,कबहुँ न देना लातें।।

अपने पुरुखों की कथनी को,जिनने धता बताई।

पटरी छोड़,रोड़ पर चल दए,उनकी सामत आई।

हो कैसी औलाद उन्हीं की,समझदारॽसमझाते।।1।।

जीवन के चौराहे कैसेॽ कीने देखे-भाले।

अपनी उन्नति,वे ही करते,जिनने नियम संभाले।

आँखें मींचे,बीच रोड़ चले,ये मरने की घातें।।2।।

विश्व खड़ा,विश्वास आस ले,आसमान को जानो।

चंचल मन,काबू में कर लो,बरना-ठोकर खानो।

ब्रेक लगा कर,गियर थामते,समझदार की बातें।।3।।

इस प्रकृति का,अटल नियम है,गलत चले,वह गिरता।

नालत देती सारी दुनियाँ,जग बेराना फिरता।

बात समझने वाली बाबू,अपने हो। समझाते।।4।।

बीच रोड़,गर कहीं चले तुम,सबको ही खटकोगे।

इन राहों पर,कबै तलक नौ,और किते भटकोगे।

सही राह पर आना होगा,संभल जाओ,समझाते।।5।।

21.धरा से प्यार-------

इस धरा से नेह मेरा है सनातन,आसमां के गुल सितारों से नहीं।

मैं इसी की धूल में,पल-पल,पला हूँ,दूर रहते चाँद-तारों से नहीं।

फूँस की ये झोंपड़ी प्यारी लगी है,गगन चुम्बी भवन से रिश्ता नहीं।

धूप से मुझको है सच्चा प्यार जितना,शोषणी कलुषित बहारौं से नहीं।

शिर नहीं मेरा झुकेगा उन पदों,जो पदों को श्रेय देते है कहीं।।1।।

गुनहगारी ताज से नफरत मुझे है,पत्थरों से प्यार है मेरा पुराना।

विषधरो की वाटिका से दूर हूँ मैं,कंटकों में,गा सकूँगा,मैं तराना।

स्नेह के अंगार भी,शीतल मुझे,छदम की,अंबराइयाँ बिलकुल नहीं।।2।।

मैं कहाँॽकब चाहता कृत्रिम किनारे,मुक्तता की गोद में,निर्झर बहूँगा।

झूँठ और पाखण्ड मेरे रिपु भलैं हों,सत्य की अनवरत गाथा,मैं कहूँगा।

मैं अकिंचन हो,विचरना चाहता हूँ,दुर्विचारी धन कुबेरो,संग नहीं।।3।।

जन्म मेरा सफल तब ही हो सकेगा, इस धरा का कहीं कुछ उध्दार कर दूँ।

सुचि,सरस,स्नेह,शीतल,मित्रता से,मृदु-बहारी,मानवी भण्डार भर दूँ।

रहूँगा,ध्रुव और प्रहलाद के संग,दुर्विचारी दानवों के संग नहीं।।4।।

मैं अकेला नहिं,तुम्हें भी,सोचना-इस परिवेश पर।

कागजी नौका तरीं कब,सागरों के इस देश पर।

किधर को चिंतन तुम्हारा,क्या कभी इस वेश पर,सोचा नहीं।।5।।

समस्या यह हल करैंगे,आओ-मिलकर हम सभी।

उन पथों को बनाना है,जो न उखड़े फिर कभी।

समय को सार्थक बना लो,समय कब लौटा,कहीं।।6।।

22.इस बगीचे की उम्र-----------

इस बगीचे की उमर ज्यादा नहीं है,

सिर्फ सत्तर का ही, तो हुआ है।

पर न जाने,कौन सी,कैसीॽविषैली,

जन प्रदूषित वायु ने इसको छुआ है।।

पौध का रोपण,चतुरतम मालियों ने ही किया,

और गहरी नींव देकर,ही जमाया।

सब तरह के शोध-शोधक उर्वरक दे,

शान्ति दायकु बाग,जो हमने लगाया।

सोच कर ये,मधुर- मीठे फल लगेगे,

पर बिषैले फल प्रदाता,यह हुआ है।।1।।

मृतिका में कौन-सा बदलाब आयाॽ

वो रहे फल बीज,उगती नागफनियाँ।

और मुस्कुराते-सुमन-कचनार के ना,

झूमती-झुक-झुक यहाँ बेशर्म टहनियाँ।

जो सुमन,फलदार,कुछ भी यहाँ खडे है,

पर उन्हे भी,दीमकों ने खा लिया है।।2।।

यहाँ हुआ,बिखराब का जंगल भयावह,

साम्प्रदायक झाडियों से ही,घिरा है।

बाढ़ सूखा-बेरियाँ,सूखे मरुस्थल,

पर्ण हीने,मिल रहे यहाँ,विरविरा है।

हो गए रक्षक-प्रथकतावाद के पूरे सिपाही,

लग रहा वीरानगी-सा,रुप इसका अब हुआ है।।3।।

वे रोजगारी चर गई,चरगाह सारे,

दुश्मनी बट वृक्ष का,गहरा है साया।

और अनपढ़,बुध्दि हीना-टेशुओं के,

खड़खडाते शुष्क पर्णो को ही पाया।

आधुनिक हथियार संग बारुद के पौधे उगे है,

फुटपरस्ती-कुकुरमुत्तों का,यहाँ जमघट हुआ है।।4।।

23.अभिलाषा----------

अविरल सरित स्नेह की,बहती रहे,मैं चाहता हूँ।

सुमन की मधु गंध ही बहती रहे,मैं चाहता हूँ।।

मिलन की शहनाइयों की,ध्वनि सदाँ,गूँजा करेगी।

इक तुम्हारे प्रेम की,पहिचान ही,झोली भरेगी।

मिलन के मनुहार की अनुभूती ही,मैं चाहता हूँ।।1।।

हर तरह की सीख,श्री मन जो मिली है आपसे।

बस मेरे जीवन का जीवन,हो तुम्हारी छाप से।

इक तुम्हारे ध्यान का चकोर बनूँ,मैं चाहता हूँ।।2।।

हो नहीं सकता उरिण मैं,जिन्दगी में आपसे।

आप हो कितने महत्तम,नहीं नपे हो माप से।

नाँद के अल्हाद में,बहता रहूँ,मैं चाहता हूँ।।3।।

मैं रहूँ चातक,तुम्हारी प्यास का,प्यासा हमेशां।

तृप्त हो पाऊँ नहीं पर,तृप्ति की आशा हमेशां।

टेक मेरी हाडिली रहे,मैं यही बस चाहता हूँ।।4।।

24.महंगाई का पाला----------

मँहगाई का पाला,भइया मार गया है।

हारा नहीं,मगर फिर भी,मन हार गया है।।

खटिया पर बैठा,मैं सोचूँ।

कितना आज बन गया,पोचूँ।

एक से मंहगा,चार हुआ है।।

मन भी,मन से हार गया है।

गुडडी पर चप्पल भी नइयाँ।

गिरवर की भी,फटीं पन्हइयाँ।

चन्दा की नेकर की सुनकर-

भाग पड़ा मैं,लईयाँ-पइयाँ।।

नीलम कहती,फ्राँक ले आना।

गोलू ने कुर्ती को ताना।

कितनी विषम कहानी भइया।

भूँखन मर रही घर में गइया।।

इतनी-विषम-वेदना,मन तो हार गया है।।1।।

र्मिची नइयाँ,धनियाँ नइयाँ।

कोऊ,दिबइया बनियाँ नइयाँ।

भूँखिन मर रहे,लरिका बारे।

उते लगा दए,विण्डन तारे।।

घर में लम्प जलाऐ कीसे।

आफत बड़ी,बँधी है जीसे।

अंधियारे में,व्यारु कर रहे।

विना विछौना,ऊसैंयीं पर रए।।

द्वारें टटिया,लगी किबरियाँ।

घर में लैवे,दैवेई,नइयाँ।

कैसी नींदें,कहाँ से आबै।

चूहा,पेटन में.कुँद काबैं।।

आज सबेरा,भइया बहुतई देर,भया है।।2।।

घुसुर-पुसुर घर,घर में होवै।

कब तक ऐसी,जिंदगी ढोबै।

हल्ला एक संग सब बोलैं।

खुल जाबैं,महाते की पोलें।।

गाँब-गाँब अरु गली-गली में।

क्रोध जो उमडै,कली-कली में।

चिनगारी,चिनगारी मिलकर।

ध्वस्त होय,महँगाई जलकर।।

हमखों,अबै बहुत कुछ करना।

निकलेगा,कोई तो झरना।

श्रम के मोती जब बोऐगे।

सुन्दर दिन,सबके होऐगे।।

वह संसार,होयेगा सच मैं,नया-नया है।।3।।

25.मीनार नहीं गिरने देंगे-----------

फिरकापरस्त मत बालों की,हम दाल नहीं गलने देंगे।

पावन-मानवता की सुन्दर,मीनार नहीं गिरने देंगे।।

बहकाबे में आने बालो को,भली भाँति समझाऐगे।

पूँजी के मतवाले झण्डे,ऊँचे नहीं उठने पाऐगे।

मानव से मानव का निर्मम,अब कत्ल नहीं हो पाऐगे।

हम भाई-भाई हैं प्यारे,बच्चा-बच्चा ये गाऐगा।

हिन्दू,मुस्लिम,ईशा न कोई,प्यारे इंसान सभी होऐगे।।1।।

अब तक इंसान बिका करते,उसका बाजार मिटाना है।

बंजर,ऊसर इस धरती को,सुन्दर सा चमन बनाना है।

जो मिटा रहे है हस्ती को,हम उनको,आज मिटा देगे।

इतनी ना मुमकिन करनी का,सीधा-सा,सबक सिखा देगे।

रुखी-सूखी,रोजी-रोटी,मिल बाँट,सभी हम खा लेगे।।2।।

अब तो सौदा,ईमानों का,हरगिज नहीं,होने देवेंगे।

मेहनतकश,लोगों की दुनियाँ का,कत्ल नहीं होने देंगे।

लानत होगी उसके,खूँ को,जो भू को आज लजाऐगे।

पावन जीवन उसका होगा,जो वतन हेतु मर जाऐगे।

यह चमन रहेगा,सदियों तक,सपने साकार सभी होंगे।।3।।

हम आज चले हैं उस पथ पर,जिस पर पूर्वज चलते आऐ।

जीवन गीता के पन्नों को,हमने फिर से ही दोहराऐ।

यह देश हमारा ही फिर से, अब विश्व गुरु कहलाऐगा।

उगका पत्ता-पत्ता फिर से,बे नई बहारें लाऐगा।

मनमस्त बनेगी फिर दुनियाँ,हम सदाँ बहारी फिर होगे।।4।।

26.हमारे गाँव---------

ये प्यारे गाँव हमारे हैं।

हमको जीवन से प्यारे है।।

यहाँ मेहनत की फुलवारी हैं।

मेहनत से सींची,क्यारी हैं।

हल का,घर-घर से नाता हैं।

रहता यहाँ,जीवन दाता हैं।

सब जग के,ये ही सहारे हैं।।1।।

गलियों की धूल सलौनी है।

प्यारी,प्यारी-सी,लौनी है।

चौपालें,मस्जिद और मंदिर।

दुनियाँ में,सबकुछ से सुन्दर।

कर्ता,करता से हारे है।।2।।

फूँलीं खेतों में धनियाँ हैं।

सनयी-रुनझुन-पैजनियाँ हैँ।

सरसों पर,पीयर छाई हैं।

जैसे गोने से,आई हैं।

छानों से महल हमारे हैं।।3।।

लौकी,तोरई घन छाई हैं।

फूलों से लदी,लदाई हैं।

इतने फल,इनमें आए हैं।

सबने मिलकर के,खाए हैं।

नहीं भेद-भाव के,नारे हैं।।4।।

27.बोल न पाँऐ----------

सच्चाई कैसे बतलाऐं।

उनसे डरते,बोल न पांऐ।।

उनके इतने बड़े हाथ है।

इतै-उतै के,सबई साथ है।

इनकी उनसे साठ-गांठ है।

उनकी इनपै सही छाँट है।

सही कहैं तो,मारन धाऐ।।1।।

देख रहे हो,उनकी मूँछें।

जैसे हों,सेही की खीसें।

विना दाँत,ये खा जाते है।

वृध्द शेर से,गुर्राते है।

इनसे सबही,बहुत डराऐ।।2।।

चंगुल फसै,ते लौट न पावै।

इतने डरते,इतै न आवै।

देशी.ठर्रा,और विदेशी।

पीकर बोलें,बोली कैसी।

गड़-गड़-भादों घटा,दिखाऐ।।3।।

तनक दिनन की और बात है।

जो होवेगी,और बात है।

नींवें,चुखरा पोलीं कर दई।

और बारुदें,उनमें भर दई।

कालई,औरऔ,सूर्य,उगाऐं।।4।।

28.वैभवशाली-डबरा---------

वैसे तो मेढ़क घर होता है डबरा,

पर-यहाँ-पर,हँसों ने डेरे डाल लिए हैं।

ढेंको के डेनो ने,यहाँ से किया पलायन,

सारस-भी यहाँ पर,थोड़े हकदार हुए हैं।।

बक के,अब संवाद,यहाँ पर नहीं होते हैं,

लगता हैं-कागों की टोलीं,गायब हो गई।

उन कर्कस स्यारों का-कोई अता-पता नहिं,

सिंहो की,जबसे यहाँ पर आबादी हो गई।।

अब डबरा,वो डबरा नइयाँ,सोचो प्यारे,

धन-धान्यों से,यहाँ पर तो,खलियान भरे हैं।

गन्ना मिल पा,डबरा पहुँचा,विश्व-पटलपर,

पुरखों के पुरखे भी,यहाँ पर,आज तरे हैं।।

सरसों ने,सरसा कर,धरती पीली कर दई,

लगता है,बारहमासी,वसंत यहाँ पर आया।

राईस मिल से,हैं असंख्य,भण्डारन यहाँ पर,

मध्य रेलवे ने,सबको ज्यादा सरसाया।।

ब्योपारिन की भीड़,बन गई डबरा मण्डी,

अपना एक स्थान,बना बैठा अब डबरा।

अन्तर्राष्ट्रीय ब्योपारी,व्यापार कर रहे,

सब यहाँ पर मनमस्त नहीं है अब,वह डबरा।।

डबरा को,डबरा कह देना, ना-समझी है,

ख्वावों में बदलाब करो,अब मेरे भाई।

समय एक-सा,नहीं रहता है,कभी-किसी का,

डबरा ने,अपनी न्यारी पहिचान बनाई।।

त्रय देवों सीं,तीन लाईनें हैं रेलों कीं,

एन.एच.चबालिस ने,यहाँ पर,शत चाँद लगाऐ।

सच मानो तो,यही ग्वालियर का,गौरब है,

एम.एल.ए.एम.पी.,मंत्री मनमस्त बनाऐ।।

आगे भी,लगता-डबरा सरताज बनेगा,

दिल्ली के उस लाल किले पर-चढ़,बोलेगा।

दुनियाँ की पहिचान बनेगा,इक दिन डबरा,

विश्व-बंधुता के परिचम संग,यह डोलेगा।।

डबरा की धरती को,करता सहस्त्र नमन मैं,

भारत की चहिचान,सुयश के-कमल खिलाऐ।

धरा-गगन को महकाऐगा,इक दिन प्यारे,

जीवन भर,मनमस्त,भोग-रस-जीवन पाऐ।।

29.अतीत के पन्नें----------

इतिहास बदलना है.इतिहास न पढ़ना है।

गुजरे पल,क्या कहते,युग की नहीं सुनना हैं।।

लगता,न समझ पाऐ,रहनुमाओं की वाणी को,

आजादी दई किनने,उनको नहीं गुनना है।।

समाधान-समस्या का,मनीषियों ने,यहाँ खोजा।

अनदेखा-उसे करके,अपनी धुन चलना हैं।।

दुनियाँ के इतिहास-विदो ने,भारत की दशा पर ही,

कई एक सुझाब दिए,उनको कब चुनना हैं।।

एकता को प्रथम कहती,पाश्चात सभ्यता भी,

उसकी ही,यहाँ गड़बड़,जिसका व्यवधाना है।।

भौतिक ही सुधरा बस-वैदिक सी संस्कृति ने,

राजनीति उसी मग पर,सुख को पहिचाना है।।

भारत की विरासत को,बदहाल किया किसने,

खोजों तो,मनीषी जन,विश्लेषण नाना हैं।।

इतिहास पुरोधा जो,डूरेंट यही कहते,

इतिहास के दर्शन से,वर्तमान को पाना है।।

इतिहास अतीती जो,अनदेखा किया जिनने,

भावी के विनाशों की,खाई ही बनाना हैं।।

वर्तमान संवारन को,इतिहास से दृष्टि लो,

सुन्दर ही भविष्य होगा,मनमस्त यह माना है।।

इतिहास को पढ़लेना,पहले-यूँ बदलने से,

ऊर्जा ही नई मिल है,जिसको न भुलाना है।।

यह बात अनूठी है,कहने में बुरी लगहै,

सोचो यह कठिन मग है,पर-सोच बढ़ाना है।।

गर सोचा नहीं इस पर,कई एक सदीं रोगीं,

सदियों को संभालो अब,जुग का ये अहाना है।।

30.हँसता है आईना-------

ऊँघते ज्यौं सब लगे,जागता है कोई ना।

आज के इस दौर पर,हँसता है आईना।।

काग भौड़े बके,कोयलें मूँक हैं।

स्यार शैहरे सजे,लग रहे भूप है।

लोमड़ी की यहाँ,मोरनी चाल क्यों-

हाल ये क्यों हुआ,कोई तो चूक है।

माँदें खाली पड़ी,हैं सिंह कोई ना।।1।।

मन की बातें करीं,कई बार,बार है।

काला किया है पीला,बोए ही,खार है।

बन रहे पड़ौसी दुश्मन,दुश्मनी ठीक ना-

अपनी ही चालों यौं पिटे,लगता यह हार है।

कैसा हुआ ये चिंतन,प्रेम-बेल,बोई ना।।2।।

इस तरह आज,समझो,किस ओर जाएगा।

सोचा था-एक सपना,कब-लौट आएगा।

गुल्लजार होगी धरती,कब मेरे देश की-

लेकर-सुहाग-सावन,कब झूम गाएगा।

अब भी-मनमस्त संभलो,यहाँ साथी कोई ना।।3।।

डूबे कहीं न कश्ती,गर्बीले भार- से।

तूफानी-बेग भारी,बचना है घार से।

कई एक कुशल नाविक,डूबे हैं बीच में-

डग-मग है आज कश्ती,कब लगे पार से।

इस पर हँसेगी दुनियाँ,क्या बुध्दि कोई ना।।4।।

पढ़लो इतिहास पिछला,यहाँ कैसे आ सके।

कितना था त्याग उनका,कभी भूलेही गा सके।

उनकी यही जो थाथी,राखो संभाल कर-

कितना बढ़ाया इसको,कितना घटा सके।

लगता है कठिन मारग,आटे की लोई ना।।5।।