1)निर्माण
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कर रहा जग उन्नति चारों दिशाओं में
आगे बढ़ रहे हैं कदम चाँद -तारों में
विज्ञान ने कर ली है तरक्की हर पैमाने में
आदमी भी मशीन बन गया अब तो इस जमाने में
वहीं रोबोट भी बदल रहा इंसानों में
अत्याधुनिक साधन मानव को बना रहे है पंगु
वह दिमाग से नहीं मशीनों से अब गणित कर रहा
कागज , कलम अब हो रहे सिर्फ नाम के
मोबाइल ,आईपैड पर लिखकर ही नाम कर रहा है
नव निर्माण हो रहा तेजी से, बदल रही है दुनिया
इंसान का इंसानों से प्रेम अब कम हो रहा
जुड़ गए हैं सभी वैज्ञानिक उपकरणों से
रिश्ते भी अब उसी में सिमट कर रह गए
इंसानियत नव निर्माण का देख रही तमाशा
न जाने यह जग किस राह पर निकल पड़ा
निर्माण तो बहुत तेजी से हो रहा पर
इंसान का क्या चरित्र निर्माण हो रहा
प्रश्नचिन्ह लगा रही है अब जिंदगी
उसका उत्तर निर्माण के साथ प्रतीक्षा में खड़ा ।
आभा दवे
2)अंतर्द्वंद
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देह का अंतर्मन से जुड़ा हुआ है नाता
जो न जाने हम से क्या-क्या है करवाता
रहता है अंतर्द्वंद हमेशा दिल और दिमाग में
एक चाहे अच्छे कर्म करना
और दूजा बोले तू भी स्वार्थी बनना
यह जग बड़ा ही निराला है
सब जीते हैं अपनी खुशियों की खातिर
दुख का होता नहीं बंटवारा है
देख- देख कर दुनिया सारी
दिमाग बेचारा घबराता है
क्या अच्छा क्या बुरा समझ नहीं पाता है
कभी लगते अपने पराए कभी लगते पराए अपने
इसी अंतर्द्वंद में दिमाग और मन एक दूजे से लड़ जाता है
मन दिमाग को समझा कर धीरे से मुस्काता है
बाँटों खुशियां जग में कोई नहीं पराया है
मन के निर्मल सागर में आनंद ही समाया है
खुशियों का खजाना वहीं कहीं छिपा पड़ा है
बस तुझको ही गोता लगाना है
और उन खुशियों का खजाना पाना है
अपने अंतर्द्वंद से मन को न हराना है ।
आभा दवे
3)शिल्पकार
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ऊपर बैठा शिल्पकार गढ़ रहा
ना जाने कितनी मूर्तियाँ
अलग -अलग रंग -बिरंगी
कलाकृति है अनोखी ।
अलग-अलग हिस्सों में
बाँट दी है अपनी मूर्तियाँ
कोई हँसती कोई रोती सी
कोई जीने को लाचार सी ।
वो शिल्पकार बहुत न्यारा है
सभी को जीवन में प्यारा है
दुहाई देते हैं सभी उसकी
सभी के साँसों की डोर उसके
ही पास है
इस लिए वो सभी का दुलारा है।
आभा दवे
4)शोषण
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सदियों से होता चला आ रहा
शोषण नारी के तन- मन का
द्रौपदी भी चीखी - चिल्लाई थी
अपनों से ही घबराई थी
करुण पुकार सुन कृष्ण ने लाज
बचाई थी
न जाने कहाँ है अब वो कृष्ण
फिरती है नारी अब भी घबराई सी
अपनों से ही छली जाती है सदा
अपने तन को वो छुपा ले अब कहाँ ?
आभा दवे
5)पीड़ा
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जीवन पाया जब से सब ने
पीड़ा भी संग हो ली सभी के
कभी तन की पीड़ा तो कभी मन की पीड़ा
दस्तक देती रहती है
चहल कदमी करती हरदम
सब के संग रो लेती है
भेदभाव वो जाने न
रीति-रिवाज वो माने न
दुनिया तक फैला उसका साया
सभी जगह बस उसकी माया
हर दिल पर उसकी छाया
अंदर पीड़ा बाहर पीड़ा
बस केवल पीड़ा ही पीड़ा
मिटा सका न कोई उसको
सीखा सबने पीड़ा संग जीना ।
आभा दवे
मुंबई