MAHARSHI VASHISHTHA books and stories free download online pdf in Hindi

महर्षि वशिष्ठ

महर्षि वशिष्ठ महान सप्तऋषियों में से एक हैं. वशिष्ठ एक सप्तर्षि हैं - यानि के उन सात ऋषियों में से एक जिन्हें ईश्वर द्वारा सत्य का ज्ञान एक साथ हुआ था और जिन्होंने मिलकर वेदों का दर्शन किया ।वैसे वे भगवान श्री राम के गुरु के रूप में अधिक जाने हैं. या सूर्यवंशीय राजाओं के गुरु के रूप में विख्यात हैं. उनकी सहधर्मिणी का नाम अरुंधती तथा पुत्री का नाम नंदिनी था. ये दोनों ही मायावी थी. कामधेनु और नंदिनी उन्हें सब कुछ दे सकती थी. महर्षि वशिष्ठ की दूसरी पत्नी का नाम उर्जा था.

महर्षि वशिष्ठ की उत्पत्ति की उत्पत्ति का वर्णन पुराणों की नाना कथाओं में अनेक रूपों में उपलब्ध है। ये कहीं ब्रह्मा के मानस पुत्र हैं तो कहीं आग्नेय पुत्र और कहीं मित्रावरुण के पुत्र कहे गए हैं, जिन्हें विद्वानों ने कल्पभेद से ठीक भी माना है। जो भी हो, मगर सारे धर्मशास्त्र, इतिहास और पुराण एक बात की साक्षी देते हैं कि वशिष्ठ त्रिकालदर्शी थे और अपने पिता ब्रह्मा की आज्ञा से सूर्यवंशी राजाओं के पुरोहित बनकर कालांतर में भगवान राम के करकमलों से पूजे गए थे। सूर्यवंशी राजा इन्हीं की आज्ञा से राज्य संचालन करते थे।

महर्षि वशिष्ठ ऋषियों के ऋषि हैं और महर्षियों के महर्षि। सात प्रकार के ऋषि परम्परा अपने देश में है :- 1. ब्रह्मर्षि 2. देवर्षि 3. महर्षि 4. परमर्षि 5. काण्‍डर्षि 6. श्रुतर्षि 7. राजर्षि. वे ऋषि परम्परा के सर्वोच्च पद ब्रह्मर्षि के रूप में प्रतिष्ठित हैं। महर्षि वशिष्ठ की दिव्य उपस्थिति से वेदों से लेकर रामायण व महाभारत तथा परवर्ती पौराणिक वांग्मय जगमगा रहा है। वे सप्तऋषियों में प्रमुख हैं तो ऋग्वेद के समूचे सातवें मण्डल के अधिष्ठाता ऋषि हैं।

सृष्टि रचना क उद्देश्‍य से ब्रह्माजी ने अपनी योगमाया से 14 मानसपुत्र उत्‍पन्‍न किए:- मन से मारिचि, नेत्र से अत्रि, मुख से अंगिरस, कान से पुलस्त्य, नाभि से पुलह, हाथ से कृतु, त्वचा से भृगु, प्राण से वशिष्ठ, अंगुष्ठ से दक्ष, छाया से कंदर्भ, गोद से नारद, इच्छा से सनक, सनन्दन, सनातन और सनतकुमार, शरीर से स्वायंभुव मनु और शतरुपा व ध्यान से चित्रगुप्त। ब्रह्माजी के उक्‍त मानस पुत्रों में से प्रथम सात मानस पुत्र तो वैराग्‍य योग में लग गए तथा शेष सात मानस पुत्रों ने गृहस्‍थ जीवन अंगीकार किया। गृहस्‍थ जीवन के साथ-साथ वे योग, यज्ञ, तपस्‍या तथा अध्‍ययन एवं शास्‍त्रास्‍त्र प्रशिक्षण का कार्य भी करने लगे। अपने सात मानस पुत्रों को, जिन्‍होंने गृहस्‍थ जीवन अंगीकार किया था ब्रह्माजी ने उन्‍हें विभिन्‍न क्षेत्र देकर उस क्षेत्र का विशेषज्ञ बनाया था।

वशिष्ठ वैदिक काल के सबसे बड़े ऋषि-पुरोहित भी हैं। उनके तप, त्याग, सिद्धि और क्षमा की महिमा इतनी प्रभावी है कि आकाश में चमकते सात तारों के समूह में दाहिने से दूसरे वशिष्ठ का यश पत्नी अरुंधती सहित अनादिकाल से आज भी दमक रहा है।

महर्षि वशिष्ठ की सुदीर्घकालीन उपस्थिति के संदर्भ में पौराणिक साहित्य के अध्येताओं का एक मत यह भी है कि ब्रह्मा के पुत्र वशिष्ठ के नाम पर आगे चलकर उनके वंशज भी वशिष्ठ कहलाए। इस तरह वशिष्ठ' केवल एक व्यक्ति नहीं बल्कि पद बन गया और विभिन्न युगों में अनेक प्रसिद्ध वशिष्ठ हुए। आद्य वशिष्ठ के बाद दूसरे इक्क्षवाकुवंशी राजा त्रिशुंक के काल में हुए, जिन्हें वशिष्ठ देवराज कहते थे। तीसरे कार्तवीर्य सहस्रबाह के समय में हुए, जिन्हें वशिष्ठ अपव कहते थे। चौथे अयोध्या के राजा बाह के समय में हए, जिन्हें वशिष्ठ अथर्वनिधि (प्रथम) कहा जाता था। पांचवें राजा सौदास या सुदास (कल्माषपाद) के समय में हुए थे, जिनका नाम वशिष्ठ श्रेष्ठभोज था। छठे वशिष्ठ राजा दिलीप के समय हुए, जिन्हें वशिष्ठ अथर्वनिधि (द्वितीय) कहा जाता था। इसके बाद सातवें भगवान राम के समय में हुए, जिन्हें महर्षि वशिष्ठ कहते थे और आठवें महाभारत के काल में हुए जिनके पुत्र का नाम शक्ति था। इनके अलावा वशिष्ठ मैत्रावरुण, वशिष्ठ शक्ति, वशिष्ठ सुवर्चस सहित कुल 12 वशिष्ठों का पुराणों में उल्लेख है। वशिष्ठ की संपूर्ण जानकारी वायु, ब्रह्मांड एवं लिंग पुराण में मिलती है,जबकि वशिष्ठ कुल ऋषियों एवं गोत्रकारों की नामावली मत्स्य पुराण में दर्ज है।

आद्य वशिष्ठ के जीवन की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना में एक है उनकी महर्षि विश्वामित्र से प्रतिद्वंद्विता। वैदिक साहित्य के ऋषि के रूप में वशिष्ठ के अनेक उद्धरण सूत्रों, रामायण और महाभारत में प्राप्त हैं, जिनमें वशिष्ठ और विश्वामित्र का संघर्ष वर्णित है। कथाओं के अनुसार, जब विश्वामित्र राजा थे, तब एक बार वशिष्ठ के आश्रम पहुंचे थे और कामधेनु गाय पर रीझ गए थे। इसी गाय के लोभ में वशिष्ठ से उनका युद्ध हुआ और बाहुबल के मुकाबले ब्रह्मबल को अधिक समर्थ मान विश्वामित्र तपस्वी बने। वैदिक काल का यह संघर्ष रामायणकाल में मैत्री में परिवर्तित हो गया। रामकथा में विश्वामित्र यज्ञ-रक्षा के लिए राम-लक्ष्मण को मांगने दशरथ के पास आए तो वशिष्ठ के ही कहने पर दशरथ ने अपने पुत्रों को साथ भेजा था।

ब्रह्मा के यह कहने पर कि इसी वंश में आगे चलकर श्रीराम अवतार लेंगे, वशिष्ठ ने पुरोहित बनना स्वीकार किया। कहते हैं कि इक्ष्वाकु ने 100 रात्रियों का कठोर तप करके सूर्य देवता की सिद्धि प्राप्त थी की और वशिष्ठ को गुरु बनाकर उनके उपदेश से अपना पृथक राज्य और राजधानी अयोध्यापुरी बनाई। तब से वशिष्ठ प्राय: वहीं रहने लगे। प्रथम वशिष्ठ ही पुष्कर में प्रजापिता ब्रह्मा के यज्ञ के आचार्य रहे थे। वशिष्ठ ने इक्ष्वाकु व निमि से अनेक यज्ञ कराए थे और इन्हीं की प्रेरणा से भगीरथ गंगा को धरती पर ला पाए थे। संतानहीन राजा दिलीप ने वशिष्ठ से प्राप्त गोसेवा विधि से ही रघुजैसे प्रतापी पुत्र को पाया था, जिनके नाम पर सूर्यवंश कालांतर में रघुवंश के नाम से प्रख्यात हुआ। इनके गुरुकुल में ही राम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न की प्रारंभिक शिक्षा हुई थी। राम द्वारा शिव-धनुषभंग के बाद दशरथ ने इनकी आज्ञा पाकर ही सकुटुम्ब मिथिला के लिए प्रस्थान किया था। रामकथा के अंत में इन्हीं के परामर्श पर राम ने अश्वमेध यज्ञ किया था।

महा तपस्वी और ज्ञानी-ध्यानी महर्षि वशिष्ठ का एक भावुकता से परिपूर्ण सुंदरतम चित्र गोस्वामी तुलसीदास ने श्रीरामचरितमानस के अयोध्याकाण्ड में प्रस्तुत किया है।

कथा है कि जब राम वन चले गए और दशरथ का देहांत हो गया तब वशिष्ठ की आज्ञा से मामा के घर गए भरत व शत्रुघ्न को अयोध्या बुलाया गया। भरत ने पहले तो पिता की अंत्येष्टि की और फिर दुखी हृदय राजसभा में आकर सबके बीच बैठे।

भरतु बसिष्ठ निकट बैठारे,

नीति धरममय बचन उचारे'

वशिष्ठ ने भरत को अपने पास बैठाकर नीति और कर्तव्य का बोध कराया। मगर गृहक्लेश के लिए स्वयं को दोषी मानकर भरत कुछ भी सुन-समझने की स्थिति में नहीं थे। वे महर्षि से लिपटकर रोने लगे। तब वशिष्ठ भी भावुक होकर बिलख पड़े।

'सुनहु भरत भावी प्रबल कहेउ बिलखि मुनिनाथ,

लाभ हानि जीवनु मरनुजसु अपजसु बिधि हाथ'

अर्थात,

भरत को सांत्वना देते हए महर्षि वशिष्ठ स्वयं बिलख पड़े और बोले, 'हे भरत! होनहार बड़ी प्रबल होती है। मत भूलो कि जीवन में लाभ-हानि, जीना-मरना और यश-अपयश ये छह बातें केवल विधाता के हाथ हैं। मनुष्य का इन पर कोई वश नहीं। मानो भरत के बहाने वशिष्ठ ने मानव मात्र को जीवन का शाश्वत सूत्र दिया हो!

वशिष्ठ संहिता, वशिष्ठ कल्प, वशिष्ठ-शिक्षा, वशिष्ठ तंत्र, वशिष्ठ पुराण, वशिष्ठ स्मृति, वशिष्ठ श्राद्ध कल्प आदि वशिष्ठ व उनकी संतति कृत महत्वपूर्ण धर्मग्रंथ हैं, मगर इन सभी में अद्वैत वेदांत का ग्रंथ योगवासिष्ठ अद्वितीय है। लोक में यह आर्ष-रामायण, ज्ञानवासिष्ठ, महारामायण, वशिष्ठ-गीता और वशिष्ठ रामायण आदि नामों से भी जाना-माना जाता है। इसमें किशोरावस्था में श्रीराम को दिए गुरु वशिष्ठ के उपदेशों का संकलन है।

उनके अनुसार मुक्ति के चार ही द्वार/द्वारपाल हैं: शम, विचार, संतोष और साधु पुरुषों की संगत। मनुष्य को इन चारों का प्रयत्नपूर्वक सेवन करना चाहिए। अनावश्यक कामनाओं को नियंत्रित करें, सकारात्मक चिंतन कर जगत की असारता को समझें, जो प्राप्य है उसे ईश्वर की कृपा मान उसमें संतोष साधे और सदा भले, गुणी, बुद्धिमान तथा वीतरागी लोगों का सत्संग करें।

वे धृतराष्ट्र व पाण्डु के आदि-पूर्वज हैं। वे शक्ति के पिता हैं और शक्ति के पुत्र पाराशर हैं। पाराशर के ही पुत्र महर्षि वेदव्यास हैं, जो न केवल महाभारत के रचयिता हैं बल्कि धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर के जन्मदाता पिता भी हैं।

अपने महान नायकों को दैवी महत्व देने का यह भारत का अपना तरीका है, जिसे हम चाहें तो पसंद करें, चाहें तो न करें, पर तरीका है। यही वह तरीका है जिसके तहत तुलसीदास को वाल्मीकि का तो विवेकानंद को शंकराचार्य की तरह शिव का रूप मान लिया जाता है। ऐसे ही मान लिया गया कि वसिष्ठ जैसा महा प्रतिभाशाली व्यक्ति ब्रह्मा के अलावा किसका पुत्र हो सकता है? पर चूंकि ब्रह्मा का परिवार नहीं है, इसलिए मानस पुत्र होने की कल्पना कर ली गई होगी।

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