नैनं छिन्दति शस्त्राणि - 25 Pranava Bharti द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

नैनं छिन्दति शस्त्राणि - 25

25

“क्या है, सोने दो न दीदी ?”पुण्या ने करवट बदलनी चाही लेकिन पूरी रात भर गर्दन कुर्सी पर टँगी रहने के कारण उसकी गर्दन ऐंठ गई थी | 

“कितनी बदबू में सोई हो, उठो न ---“समिधा थोड़ी घबरा गई थी, कहीं कोई ऊपर आ गया तो अकेली क्या करेगी ? दूसरे सारे तो निद्रा देवी की गोद में अचेतन पड़े थे, तो कम से कम पुण्य तो जग जाए –एक और एक ग्यारह ---!!

पुण्या को मानो नंगा तार छू गया –उसकी आँखें तो मानो खुलने के लिए तैयार ही नहीं थीं | समिधा की आवाज़ से जैसे अचानक ही एक भयंकर दुर्गंध में घिर गई | 

“आप सोई नहीं ---?” उसने अँगड़ाई के साथ एक जमुहाई लेनी चाही किन्तु तुरंत ही सचेत हो मुँह बंद कर लिया | गर्दन की अकड़न ने उसकी आँखें खोल दीं | 

अब तक नीचे से आने वाली आवाज़ ‘हो—हो ‘बंद हो चुकी थी | समिधा ने चैन की साँस ली | 

“यहाँ से बाहर निकलो –“समिधा ने पुण्या से कहा | 

“वॉशरूम तो जाना ही पड़ेगा –“पुण्या का जोड़-जोड़ टूट रहा था | 

“ठीक है, तुम आओ बाहर, मैं चलती हूँ | ढूँढते हैं कोई ठिकाना ---“समिधा ने कहा और कमरे से बाहर निकल गई | 

“नीचे आ जाना, देखती हूँ, चाय-वाय कुछ मिले तो ---“

समिधा का साहस ही नहीं था कि वह बॉलकनी में खड़ी रह पाती | वह सीधे नीचे उतर गई | देखा, महेश जाग गया था और सोफ़े पर पड़ा अँगड़ाई ले रहा था | उसके पास ही कोने में छोटी सी जगह में कोई और भी पेट में घुटने सिकोड़े पड़ा था | समिधा को देखते ही महेश ने अँगड़ाई में उठे अपने हाथ नीचे कर लिए | 

“गुड मॉर्निंग मैडम !—ओय ! साँवले उठ ---“महेश ने समिधा को देखते ही फुर्ती दिखाई और सोते हुए गठरीनुमा लड़के को अपने पैर से ठोकर लगाकर उठाने की चेष्टा की | 

साँवले नाम का लड़का घबराकर उठ बैठा | समिधा ने देखा, वह कोई किशोर था, लगभग पंद्रह वर्ष का बेचारा सा बालक जिसकी हड्डियाँ निकली हुई दिखाई दे रही थीं | उसे महेश का इस प्रकार लड़के को पैर मारकर उठाना पसंद नहीं आया पर इस बार उसने अपने स्वभावानुसार बीच में कूदने की चेष्टा नहीं की | 

“महेश भाई ! चाय मिलेगी --?”

“मैडम ! चाय तो बाहर लारी पर ही मिलती है | ”

फिर वह साँवले की ओर मुखातिब हुआ | 

“चल, खड़ा हो –भाग के जा, देख, चा कि लारी खुली कि नहीं ?”उसने बच्चे को घुड़का | 

“अरे ! दीदी, चल तो रहे हैं बाहर –देख लेंगे कहीं | ”पुण्या सीढ़ियों से उतरती हुई बोली | 

दोनों चुपचाप बाहर निकल आईं| अब तक वातावरण में पर्याप्त उजाला भर चुका था| दामले ने इस विस्तार के बारे में बहुत सी बातें बताते हुए कहा था कि बाहर कहीं अकेले न जाएँ पर दोनों रात भर की त्रासदी से इतनी पीड़ित हो चुकी थीं कि बिना सोच-विचार किए महेश से कहकर बाहर निकल गईं | 

वे दोनों दस कदम ही चली होंगी कि उन्हें दो आदिवासी लड़खड़ाते कदमों से अपनी ओर आते दिखाई दिए जो बुरी तरह नशे में थे और इनकी ओर ही आ रहे थे | 

ये क्या?कूएँ में से निकलकर खाई में गिरने की नौबत आ गई ! उन्होंने कसकर एक-दूसरे के हाथ पकड़ लिए और सड़क के बिलकुल किनारे पर चलने लगीं | 

“ताड़ी पी हुई है –“पुण्या फुसफुसाई | 

“हम्म ---“

“बस, ऐसे ही समय में इनके दिमाग के पुर्जे ढीले रहते हैं | ”पुण्या फिर फुसफुसाई | 

वे दोनों आदिवासी लड़खड़ाते हुए जब आगे निकल गए तब इन्होंने चैन की साँस ली | 

“तुमने पी है क्या कभी?”

“हाँ, दीदी –मैंने नीरा पीया है | उससे कुछ नहीं होता, बहुत शक्ति वर्धक होता है | ”

बातें करते-करते दोनों एक ऐसे स्थान पर पहुँच गए जहाँ दाहिनी ओर का वृहदाकार लोहे का गेट खुला हुआ था | उसके ऊपर मोटे लोहे की गोल सलाखों से एक अर्ध गोलाकार बना हुआ था | इसके बीचोंबीच एक सफ़ेद बोर्ड था जिस पर काले अक्षरों से लिखा था ;

‘कारागार –अलीराजपुर ‘

बाहर से ही इसका भीतरी दृश्य बड़ी आसानी से आँका जा सकता था | 

बाईं ओर एक और सुंदर सी ऐसी कोठी थी जिसके इस स्थान पर होने की कल्पना कम से कम समिधा तो नहीं कर सकती थी | कोठी के भीतर का बगीचा रंग-बिरंगे विभिन्न प्रकार के फूलों से सजा हुआ था जो गेट के बाहर से दिखाई दे रहा था | गेट लंबी-लंबी पट्टियों से बना हुआ था, झरोखों जैसी खाली जगहों से कोठी का बगीचा तथा उसका अंदरूनी भाग आकर्षित कर रह था| गेट पर कोई नाम लिखा था और उसके नीचे ‘कलक्टर, अलीराजपुर ‘लिखा हुआ था | गेट बंद था, उसके अंदर बैठा दरबान कुर्सी पर गर्दन लटकाए बैठा सपनों में गुम था | 

“आज जेल में आना है न ?”पुण्या ने समिधा का हाथ पकड़ा और खुले वाले गेट की ओर बढ़ गई | 

“अरे ! कहाँ चल रहे हैं हम ?”

“क्यों ? आज जेल में मुलाक़ात के लिए आना है न ! शूट करना है न यहाँ –तो परमिशन ले लेते हैं | ” पुण्या ने मुस्कुराकर उत्तर दिया और बिना झिझके उसका हाथ कसकर पकड़े हुए अंदर की ओर बढ़ गई | 

समिधा को झिझकते हुए देखकर पुण्या ने अपनी आँखों में शरारत भरकर उससे पूछा ;

“अरे !दी—चाय-वाय पीनी है या नहीं ?”

समिधा कुछ उत्तर दे पाती इतने में तो वह उसका हाथ पकड़कर उसे अंदर की ओर घसीट ले गई जहाँ बाईं ओर मुड़ती हुई एक पगडंडी थी जिसके दोनों ओर रंग-बिरंगे फूलों की लुभावनी कतारें सजी थीं | बाईं ओर बगीचे के कोने में एक बड़ा सा शेड भी था जिसमें एक गाय तथा बछड़ा बंधे हुए दिखाई दे रहे थे | पास ही नाद भी बनी हुई थी जिसमें मुँह मारकर गाय अपनी क्षुधा तृप्त कर रही थी | उसका बछड़ा अपनी माँ के थन से क्षुधा तृप्त करने में तल्लीन था | यह जेलर साहब का घर था जिसके बाहर उनकी नाम –पट्टिका साजी हुई थी | पुण्या ने एक बार समिधा की ओर देखा, मुस्कुराकर शरारत से आँखें मिचमिचाईं और डोरबैल पर ऊँगली दबा दी |