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‘समाज से जुड़े बड़े-बड़े क्षेत्रों में ये छोटी - छोटी बातें अक्सर होती रहती हैं ‘ उसे किसी फ़िल्म का एक संवाद अचानक याद आ जाता है और वह इस वाक्य को अपने मन में अपने अनुसार बुन लेती है | अक्सर ना चाहते हुए भी हमें कोई ना कोई ऐसी बात याद आती रहती है जिसका कोई औचित्य नहीं होता |बात तो गले में ढोल सा लटकाकर पीटने की ज़रूरत नहीं होती| बड़े समझदार हैं, हम फिर भी गले में ढोल लटकाते भी रहते हैं और पीटते भी रहते हैं |
लेखन क्षेत्र से जुड़ी समिधा ने जिंदगी की बहुत सी ख़ाक छानी थी| कहीं टिककर तो रह नहीं पाई थी वह ! ढेर से ऊबड़-खाबड़ रास्तों को पार करने में उसे कष्ट और पीड़ा भी मिले तो उसका साहस भी बढ़ा | उसे दुत्कारने वाले भी मिले तो उसका साहस बढ़ाने वाले मित्र भी! हर क्षेत्र में ऐसा ही होता है| ‘ज़िंदगी यही तो है’ उसने सोचा और आगे बढ़ती रही | जिन्होंने उसे जिंदगी में स्नेह व अपनत्व का संबल दिया अथवा वे जिन्होंने उसे अपमान व बेचारगी का अनुभव दिया उसके मन के आँगन की तराजू पर दोनों का ही पलड़ा समान था | दोनों ने ही उसे कुछ दिया है, लिया तो नहीं ! हर स्थिति में उसकी झोली भरी ही है |
सारांश ने प्रत्येक परिस्थिति में उसका पूरा साथ दिया था और उस साथ से प्राप्त यही साहस उसकी सबसे बड़ी पूंजी बना | सारांश स्वयं भावुक व संवेदनशील थे, अपनी पत्नी की अति संवेदनशीलता से भी वे भलीभाँति परिचित थे | इस समय सारांश व समिधा अपनी कच्ची गृहस्थी को पकाने की भरपूर चेष्टा में संलग्न थे | सारांश नहीं चाहते थे कि उनकी पत्नी इस आदिवासी योजना से जुड़े, इस योजना पर काम करे इसमें डूब जाए और अंत में अपने मन में भार ढोती हुई दिशाओं में विचरती हुई उदास बनी रहे |
आज का ज़माना प्रोफ़ेशनल्स का है | उसमें अति भावनाओं, संवेदनाओं के लिए कहाँ कोई स्थान है? काम किया, पैसा लिया और हाथ झाड़ लिए | उन्हें मन में चिपका कर देवदास बनने की ज़रूरत क्या है? जब आप अपने स्वभाव के कारण उन से अछूते रह भी नहीं सकते तब क्यों घुसते हैं उनमें जाकर? परंतु जीवन के बहुत से मोड़ हमें ना चाहते हुए भी ऐसी परिस्थितियों में खड़ा कर देते हैं जिनसे हम अछूते नहीं रह पाते |
कई सरकारी और गैर सरकारी आयोग व संस्थानों से जुड़ी समिधा स्वतंत्र लेखन की इस बड़ी त्रासदी को झेलते हुए धीमी गति की रेल के समान अपने जीवन की पटरी पर चलती रही कि स्वतंत्र लेखन में काम होता है तो इतना कि साँस लेने की फुर्सत नहीं और काम ना हो तो खाली बैठकर साँस लेने का अर्थ खोजना पड़ता है |समिधा का यह समय कुछ ऐसा ही व्यस्त चल रहा था इन दिनों उसे
साँस लेने के लिए भी कुछ कुछ पल चुराने पड़ते| इसीलिए सारांश नहीं चाहते थे कि समिधा एक और बोझ अपने ऊपर लाद ले |लेकिन अपने नाम के अनुसार यदि वह स्वयं को होम न करे तो वह सुमिधा भी है कि नहीं, शाद उसके समक्ष एक प्रश्न सा खड़ा हो जाता |
एक बार समिधा जिस कार्य से जुड़ी हुई थी वह कार्य एक सरकारी योजना के अंतर्गत था| समिधा संस्थान के शिक्षण विभाग के ‘पैनल’ पर थी | इससे इससे पूर्व वह इसी संस्थान के कई अन्य कार्यक्रमों में शरीक हो चुकी थी | जब उसके सामने आदिवासी क्षेत्र पर लिखने का प्रस्ताव आया वह स्वयं को इस योजना में जोड़ने से नहीं रोक पाई | हर बार अलग-अलग क्षेत्रों में काम करने का अवसर मिलने के कारण उसे विभिन्न क्षेत्रों से बहुत कुछ सीखने को मिलता| कई स्थानों के आदिवासियों के बारे में उसने पुस्तकीय जानकारी प्राप्त की थी | जितना वह आदिवासियों के बारे में पढ़ती अथवा किसी से जानती उतनी ही अधिक उत्सुकता उसके मन में बढ़ती जाती |
इस योजना में जुड़कर वह उनका ही एक भाग बन सकती थी, उनकी वास्तविक समस्याओं को समझने का प्रयास कर सकती थी| एक चेतना का संदेश प्रसारित कर सकती थी | इस वर्ग के प्रति संभवत: बहुत उपयोगी हो सकती थी।
आज के इस युग में आदिवासियों के पास भी बहुत से साधन मुहैया हो चुके हैं| वे अपने बाहरी जगत से आँखें मूंदकर अचेत अवस्था में नहीं बैठे हैं फिर भी उनकी ऐसी कौन सी समस्याएँ हो सकती हैं जो उन्हें उसी मकड़जाल में फँसे रहने के लिए बाध्य करती हैं | उन्हें पेट भर रोटी के लिए भी कुछ न कुछ उचित -अनुचित करना पड़ता है| ऐसा क्यों है कि मनुष्य आधुनिकता के नाम पर और भी अमानवीय होता जा रहा है? वह अपने दोगलेपन से बाज़ ही नहीं आता|अपने आपको बड़ा व ऊँचा प्रमाणित करने के लिए वह किसी भी सीमा तक नीचे गिर सकता है! मनुष्य का सबसे बड़ा छोटापन उसका दोगलापन है, उसका अंदर बाहर का दोगला व्यक्तित्व ! कहने के पिछड़े वर्ग के लिए सरकार जब इतनी सुविधाएं मुहैया कराने का दावा करती है तब इतनी गरीबी क्यों ?यह बात गले नहीं उतरती कि लोगों को घर पर साधारण भोजन भी ना मिल पाए और तो और दो वक्त की रोटी के लिए लोग एक दूसरे के रक्त के प्यासे हो जाएँ | इसके पीछे अवश्य ही कुछ स्वार्थी लोगों की कटु बनी मानसिकता व कर्म काम करते हैं जो उनका मसीहा होने का दावा करते हैं| ऊपर से नहीं व ममता में पगे मीठे बताशे बताते और भीतर से आस्तीन के साँप !
उसे अनचाहे ही अपने वो मित्र पुनः याद आ जाते हैं जो बहुधा कहते थे;
“ यह दुनिया अब रहने के लिए रही ही नहीं ! यहाँ स्वार्थ, लोलुपता, एक दूसरे को काटने का जज़्बा ! एवं किसी न किसी प्रकार से स्वयं को सर्वश्रेष्ठ घोषित करते रहने का दोगलापन----- उल्टे सीधे काम करके अपने पेट मोटे करने वालों को गरीब व असहाय के पिचके पेट-पीठ कहाँ दिखाई देते हैं?
लंबी साँस लेकर वे कहते;
“जिस चित्रकार ने पृथ्वी के कैनवास पर दुनिया का चित्र बनाया था उसने दुनिया के सभी चित्रों की रगों में भी एक से रंग भरे थे | सब के ह्रदय में एक सी ही उमंगें भरी थीं | सब में माया, ममता, करुणा, प्रेम, सौहार्द की उमंग के रंग भरे थे |”
एक लंबी साँस खींचकर वे उदास हो जाते |
“ लगता है, अब आपको भी कविता करने का चस्का लग गया है----?” समिधा को उनका भाषण बड़ा घिसा-पिटा लगने लगा था, फिर भी वह बहस करने से बाज़ न आती |
“और-- आपकी यह मोह, माया, ममता जो कुछ भी है--- उसके साथ जब क्रोध है, उसके जैसे जब
ज़ोरदार रंग मिल जाते हैं, उनका क्या?”
“अरे !तुम सिक्के के हमेशा एक ही पहलू को देखती हो ! जब तक अच्छाई-बुराई दोनों सामने नहीं होंगे तब तक कैसे उनके बीच का अंतर पता चलेगा?” वे दर्शन के अंदाज़ में उसे समझाने का प्रयास करते हुए कहते |
“आज आदमी के मन में केवल अहं, क्रोध एवं स्वार्थ के रंग ही दिखाई देते हैं| अच्छाई, साफ़गोई, निस्वार्थता तो कहीं दिखाई ही नहीं देते |”समिधा नाराज़ हो जाती |
"यह नहीं भूलना चाहिए कि प्रकृति के इन खिलौनों में से केवल मनुष्य के मस्तिष्क में सोचने समझने की शक्ति तथा विवेक का रंग भी तो है, लज्जा का पानी भी तो है।"
"कहाँ है वह? सब अच्छाइयों को दरकिनार कर केवल बुराइयों ने ही क्यों मनुष्य को घेर रखा है? केवल स्वार्थ के कारण ही हम मनुष्यों में सोचने की, चिंतन की ऐसी अद्वितीय शक्ति भरी है फिर भी हम क्यों नहीं सोच पाते अच्छाई और बुराई के बीच का भेद !"समिधा उस दिन कुछ अधिक ही अनमनी थी, कुछ रुक कर बोली,
"स्वार्थ.... निरीह स्वार्थ.... सारा किया- धरा तो हमारा अपना ही होता है ना? सबको अपनी लड़ाई अपने आप ही लड़नी होती है, आप ही कहते हैं ना फिर हम क्या कर सकते हैं इसमें ?और जो कुछ कर सकते हैं वह न तो लोग पसंद करते हैं और न ही उसके लिए कोई उन्हें प्रोत्साहित करता है ।"समिधा ने कटाक्ष किया, वह दुखी थी।
"माना, हम उनके लिए कुछ अधिक नहीं कर सकते ...एक मुस्कुराहट तो उनमें बाँट ही सकते हैं ! हम ही रोते रहेंगे तो उनमें क्या बाटेंगे ?आँसू, बेचारगी?" कहकर उसके वे स्वर्गीय मित्र फिर से एक लंबी मुस्कान अपने मुख पर खींच लेते। उनके कथन के पीछे की पीड़ा से उनके सभी करीबी मित्र वाकिफ़ थे।
ज़िंदगी हर पल परीक्षा लेती है, कभी पास करती है तो कभी फे़ल भी !यही ज़िंदगी की शैली है पर आज का आदमी एक दूसरे को साँस लेते हुए नहीं देख सकता, ऐसे इंसान के लिए दूसरे का जीवन बेमानी है। वह अपने स्वार्थ के वशीभूत किसी की भी, कभी भी, कैसे भी बलि चढ़ा सकता है ।
जब पहली बार समिधा झाबुआ जा रही थी तब सारांश ने निर्देशक मि. दामले से पूछा था,
"सुना है, झाबुआ में आज भी तीर कमान चलाए जाते हैं? "
"बिल्कुल साहब! मैडम ने सारे शोध- निबंध पढ़े हैं, उन्होंने आपको नहीं बताया?"
" हाँ, मुझ से जिक्र नहीं किया इन्होंने.." सारांश ने शिकायती स्वर और दृष्टि से पत्नी को देखा।
" जिक्र करतीं तो आप इन्हें जाने ही नहीं देते ।आपको एक किस्सा बताता हूँ साहब!"