हरेराम काका Anand M Mishra द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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हरेराम काका

आज माँ से हरेराम काका के कहलगांव में होने की बात सुनी। मन को सुकून मिला। उनका पता बहुत दिनों से नहीं चल रहा था। फोन पर हरेराम काका का हाल निरंतर पूछते रहता हूँ।

हमारे भरे-पूर परिवार में एकमात्र उन्ही का ‘अपना’ हमलोगों को छोड़कर और दूसरा कोई नहीं है। एकदम सरल हृदय। दूध-सा मन। मन में कोई बात नहीं रखते। यदि तम्बाकू खाने की भी इच्छा है तो सरपट बोल देते हैं।

गाँव जाने पर टमटम या रिक्शा को सुरक्षित करने के लिए उनसे बेहतर और कोई नहीं है। गाँव के एकमात्र बस स्टैंड पर उनका साम्राज्य चलता है। उनकी लोकप्रियता का अंदाजा गाँव के उसी बस स्टैंड पर मिलता है।

काका में एक खासियत है। जब से होश संभाला है, मन को बहलाने के लिए वे 15-20 दिनों का एक परिवार-संपर्क यात्रा पर निकल जाते हैं। भांजे-भगिनियों,भतीजा-भतीजी, बहन-दीदी, अग्रज-अनुज, नाते-रिश्तेदार, हित-कुटुंब, शुभचिंतकों आदि के यहाँ की यात्रा कर वापस अपने घोंसले में पहुँच जाते हैं। अतः उनकी जब परिवार-संपर्क यात्रा प्रारंभ होती है तो सभी उनके स्वागत के लिए तैयार-तत्पर रहते हैं। उनकी खातिरदारी की जाती है। उसके बाद उन्हें घर में उनकी खोज हो रही है – कहकर वापस भेजने की बात होती है। वे वापस चले भी आते हैं।

इस यात्रा में उन्हें एक बार रेलवे-पुलिस के यहाँ रहना पड़ा। उस वक्त हमारे-जैसे ही एक भतीजे ने अपने धर्म को निभाते हुए उन्हें वहां से विदा कराया। उस वक्त उस भतीजे या हमारे भाई ने उनसे ताकीद करवाई कि अब वे अपनी यात्रा को विराम देंगे। उन्होंने वादा भी किया लेकिन कुछ कारणों से यह वादा वे निभा नहीं सके।

अब यह कुछ कारण क्या है – मुझे नहीं पता? लेकिन इतना अवश्य कह सकते हैं कि उन्हें घर में रखने के लिए महावीर स्वामी जो हर साल एक लाल कपडे की रिश्वत दी जाती है। यह परम्परा आज तक चली आ रही है। बाबा-दादी, हमारे चाचा बड़का बाबू, लालबाबू, आदि रहते वे अपनी यात्रा को एक निश्चित समय-अंतराल पर समाप्त कर देते थे।

एक बार कहलगांव में वे मुझे इसी प्रकार की यात्रा में मिले तो उन्हें ऐसे ही कह दिया कि बड़का बाबू आपके लिए परेशान हो रहे थे। ठाकुरजी की पूजा में व्यवधान हो रहा है। बड़का बाबू को कहीं जाना भी है। सो, काका, आप शीघ्रताशीघ्र घर चले जाएं। अगले दिन खबर मिली कि वे घर में हैं। इसे इस प्रकार भी कह सकते हैं कि उनलोगों के आँखों से ही हरेराम काका बंध जाते थे। उनके आकर्षण से वे बाहर नहीं रह सकते थे।

समय बीतता रहा। कैलेंडर की तारीखें बदलती रही। जो पहले आए थे-वे चले गए। काका अकेले रह गए। अब उन्हें बाँधनेवाला कोई नहीं रहा। किसके इज्जत के लिए बंधते? अब बिना बंधन के हो गए। गाँव में रहने ही नहीं लगे। जब भी माँ से उनके बारे में पूछता तो माँ कहती कि बाहर यात्रा पर हैं।

कमाल की बात है! हमारे बड़का बाबू जब बीमार थे तो हरेराम काका को मैंने उनकी इतनी सेवा करते हुए देखा जितनी की भाई लखन ने अपने भाई राम के लिए नहीं की होगी। जिस तन्मयता, तत्परता के साथ वे उनके स्वास्थ्य के लिए जूझ रहे थे- ऐसे उदाहरण का आजकल के समय में मिलना कठिन है।

बडका बाबू बीमार होने के बाद भी अपनी बातों से हरेराम काका को बाँध देते थे। शायद ये बात उन्होंने उनके इस संसार में रहते हुए निभाई भी होगी? जब दादी जीवित थी तो उनकी सलामती के लिए सुबह-शाम महावीर स्वामी से मन्नते मांगती थी। महावीर स्वामी का कपड़ा सुरक्षित है, यह बात दादी अपनी प्रार्थना में बताने के लिए नहीं भूलती थी। शायद काका दादीजी की मजबूरी, दर्द को समझ जाते होंगे, इसीलिए वे एकदम शांत होकर घर में रहते थे। विरोध करना बंद कर देते थे।

काका अब बड़बड़ाते हैं – चिड़चिड़ाते हैं। किसी की नहीं सुनते हैं। हम भतीजों से उन्हें उतना लगाव नहीं है। घर को लगभग छोड़ दिया है। बाहर ही रहते हैं। काका कहाँ गए होगे? पूछने पर माँ ने फिर ‘वही कहानी’ दुहरा दी, जिसे मैं अपने बचपन से सुनते आया हूँ।