मिड डे मील - 7 Swati द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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मिड डे मील - 7

7

क्लॉस में बच्चों को देख केशव खुश हों रहा था। उसने पूरी क्लॉस को देखा और चुपचाप एक कोने में बैठ गया। तभी मास्टरजी आये और केशव को देख बोले, "तुम नए आये हों। " उसने हाँ में सिर हिला दिया। अच्छा बच्चों, आज हम अंग्रेजी के कुछ अक्षर सीखेंगे। और तभी मास्टर ने एक बटन दबाया और सफ़ेद बोर्ड पर रंगीन अक्षर आने लगे। सभी बच्चे देखकर खुश हों रहे थे । जब मास्टर ने पढ़ाना खत्म किया तो सबसे पूछा कि कोई सुनाये। तीन-चार बच्चों खड़े हुए और उसमे एक केशव भी था। मास्टरजी के पूछने पर उसने उसी तरह सुनाया जैसा उसने देखा था। मास्टर ने उसकी तारीफ़ की। मास्टरजी बच्चों को गृहकार्य देकर कक्षा से निकल गए। उनके जाते ही दो बच्चे मनीष और शम्भू उसके पास आये, वे भी केशव की तरह पिछड़ी जाति के बालक थे । तीनों में अच्छी दोस्ती हों गई। बाकी चार कक्षाओं में भी केशव ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। सब उसकी तारीफ़ कर रहे थे। जब खाने की घंटी बजी, सब बच्चे बाहर की तरफ़ भागे। केशव भी शम्भू और मनीष के साथ बाहर आ गए। उन दोनों के हाथों में खाने का डिब्बा था। तू खाना नहीं लाया केशव? नहीं लाया खाना, स्कूल में मिलता तो हैं। केशव ने खाते हुए बच्चों को देखते हुए कहा।

मिलता हैं. मगर हमें नहीं मिलता हैं। हम अपना डिब्बा ही खाते हैं। सोनू ने ज़वाब दिया। नहीं, मैं यहीं खाऊँगा। तभी उसका बड़ा भाई मनोहर भी वहीं आ पहुँचा। दोनों भाई कतार में बैठ गए। आज राजमा-चावल बँट रहे थे और दोनों बच्चों के मुँह में पानी आ रहा था। वे इंतज़ार करने लगे। कब उनके पास यह खाना आयेंगा। बापू समोसे ही खिलाते या सादी रोटी के साथ प्याज़ और धनिये की चटनी या बहुत हुआ तो सब्ज़ी वो भी सिर्फ आलू या भिंडी की। माँ साल में दो तीन बार कुछ स्वादिष्ट बनाकर खिलाती थीं। मगर उनके मरने के बाद वह भी ख़त्म हों गया। रमिया काकी के हाथों में स्वाद नहीं हैं, वह भी रोटी के साथ पुदीने और टमाटर की चटनी देती हैं। या केले के पत्तों की सब्जी बना देती हैं। या कभी उबाल के चावल दे देती हैं। अब स्कूल में खाना मिलता है, अब दिल से पेटभर खायेगा। जैसे माँ के हाथों की बनी पूरी भाजी खाता था। वह यह सब सोच ही रहा था, तभी खाना बाँटने वाली माई उसके पास आई और उसे कहने लगी कि तुम बच्चों हटो यहाँ से। जब खाना बचेगा, तब मिल जाएगा।"दोनों बच्चे मन-मसोस कर खड़े हों गए। उसके दोस्तों का डिब्बा भी ख़त्म हों गया और बाकी बच्चे भी खाना खाकर चले गए। दोनों बच्चों को खाना नहीं मिला।

जब स्कूल से लौटते समय दयाल भैया की बैलगाड़ी में दोनों भाई बैठकर जा रहे थे , तभी पेड़ पर लगे अमरूद के फल देखते हुए बोले, यही रोक दो। मुझे बड़ी भूंख लगी हैं। क्यों मनु, आज डिब्बा नहीं ले गया था ? नहीं, आप जाओ हमें यही छोड़ दो, हम दोनों यहाँ से घर चले जायेंगे। मने देर हों रही हैं। तू केशव का हाथ पकड़कर सीधे पहुँच जाना। मैं चलता हूँ। दोनों भाई, वहीं अमरूद के पेड़ से अमरूद तोड़कर खाने लगे। मनोहर का तो पेट भर गया। मगर केशब आधा-अधूरा पेट लेकर घर पहुँचा। तभी रमिया काकी उनके लिए रोटी और टमाटर की चटनी दे गई। जो केशव ने मुँह बनाकर खाई और बाकी बची बापू के लिए रख दी।

शाम को जब हरिहर वापिस आया। तब देखा केशव अपनी माँ की तस्वीर सीने से लगाए सो रहा था। और मनोहर स्कूल का काम कर रहा था। उसने स्कूल के बारे में पूछा, तब मनोहर ने बताया, स्कूल बहुत अच्छा हैं, मगर आज वे दोनों भूंखे रह गए। क्यों खाना नहीं मिला? हरिहर ने मनोहर का गाल सहलाते हुए पूछा। नहीं बापू , सब खा रहे थे , मास्टर, बड़े सर, बच्चे, मगर कुछ बच्चों को नहीं दिया। वे अपना डिब्बा लाये थे । और हम डिब्बा नहीं लाए इसलिए भूखे रह गए। बाद में कहा कि मिड डे मील ख़त्म हों गया।" "क्या !! क्या!!! कहते है इसे, " मिड डे मिला "

नहीं बापू , 'मिड डे मील' मनोहर थोड़ा ज़ोर से बोला।

ऐसे ही लगातार तीन-दिन बीत गए। केशव और मनोहर को खाना नहीं मिलना था, नहीं मिला। मनोहर फ़िर भी चुपचाप बापू के कहने पर रोटी-अचार ले जाता था। मगर केशव नहीं माना, वैसे केशव एक अनोखे ढंग का बच्चा है। एक बार उसका मन शहतूत खाने का हुआ था और शहतूत का पेड़ गॉंव के उस तरफ़ के मंदिर में था। उसके-माँ बापू ने बहुत समझाया और उसे अपनी मंडी से शहतूत भी लाकर दिए। मगर केशव को तो उसी पेड़ के शहतूत खाने थे । वह पेड़ पर पहुँचकर वहाँ मज़े से बैठ शहतूत खाने लगा। तभी किसी ने देखकर गॉंव में शोर मचा दिया। केशव की पिटाई होते-होते बची। पंचो ने बच्चा कह हरिहर को माफ़ी माँगने के लिए कहा। सबके सामने कान पकड़कर उसने क्षमा याचना की। उसकी इस हरकत के कारण बापू ने तीन दिन तक बात नहीं की थीं। एक बार केशव की दोस्ती उसकी उम्र के रघु से हों गयी थीं, जो सुनार का बेटा था। ऊँच-जाति के रघु के साथ घूमते केशव को पूरे गॉंव ने क्या देख लिया, हरिहर पर सुनार ने अपने बेटे को बहकाने का इल्ज़ाम लगा दिया। रघु की पिटाई हुई और केशव भी इस बार बच न सका। कुछ दिनों बाद रघु दिखना बंद हो गया और केशव ने पता किया तो उसके बापू ने उसे घर से दूर भेज दिया था। अब किसे कौन समझाए कि बच्चों को बचपन की बातें समझ में आती हैं। यह काला-गोरा, छोटा -बड़ा, ऊँच-नीच यह फितूर बच्चों के दिमाग की उपज नहीं हैं।

केशव अपनी उम्र से ज़्यादा समझदारी की बातें करता हैं। उसका कहना है, पानी हमारी प्यास बुझाने के लिए मना नहीं करता, सूरज हम पर रोशनी डालने से पीछे नहीं हटता, पेड़ ने कभी नहीं कहा कि मेरे फल मत खाओ। कोयल भी हमारी छत पर आकर कूकती हैं तो फिर मुझे रघु से बात करने से क्यों रोकते हों, क्यों कहते हों कि उनमें और हममें बड़ा फर्क हैं। उनके इस सवालों का ज़वाब कौन दें। अम्मा ने भी पल्ला झाड़ लिया और उसके बापू के पास इतना समय नहीं कि उसे कुछ समझा सकें। मगर अब केशव मिड डे मील खाना चाहता हैं और उसे यह बात समझ नहीं आ रही कि वह यह खाना क्यों नहीं खा सकता। बापू ने ज़बरदस्ती डिब्बा उसके बस्ते में डाला। मगर उससे वो प्याज़ की सब्जी और रोटी नहीं खाई गई। तब हरिहर ने सोच लिया कि वह खाने की केशव की ज़िद को पूरा करने की कोशिश करेगा। आख़िर वो माँग ही क्या रहा है? खाना, जो उसके पेट के साथ उसका दिल भी भर दें।

हरिहर समोसे अच्छे बना लेता ही है, फ़िर खाना भी अच्छा बना सकता हैं। मगर जब भागो थीं, तब उसने ज़रूरत नहीं समझी और दूसरा पैसो की तंगी। पैसे की कटौती कर वह अपनी भागो का इलाज करा रहा था। एक गाँठ उसके स्तन पर थीं। बड़ी मुश्किल से सरकारी अस्पताल के धक्के खाता और डॉक्टर को दिखाता। उसकी कई दवाई उसे प्राइवेट खरीदनी पड़ती और भागो का खाना भी थोड़ा अलग बनता। पैसे की बचत करना ज़रूरी था, इसलिए पेट भरने का गुज़ारा भर हों सका। बच्चे भी माँ की हालत देख सहम से गए। जब डॉक्टर ने स्तन कैंसर की आख़िरी स्टेज कह उसे अस्पताल से छुट्टी दे दीं। तब अपनी मरती माँ को देखकर केशव चुप सा हो गया था, उसकी अनोखी ज़िदो को भी विराम लग गया। और उसके मरने के बाद कितने दिनों तक उसने कुछ नहीं खाया था। अब अगर मेरा बच्चा कुछ माँग रहा है तो क्यों न मैं उसकी फरमाइश पूरी कर दो। स्कूल जाते वख्त हरिहर ने डिब्बा दोनों बच्चे के बस्ते में डाला। तब उसके चेहरे पर एक चमक थीं। उसने केशव का गाल चूमते हुए कहा, "मेरे बच्चे आज पूरा खाना खा लियो। केशव ने कहा कुछ नहीं, मगर हाँ में सिर हिला दिया।

आज स्कूल में मास्टरजी परीक्षा के बारे में बता रहे थे। तभी मनीराम ने अंदर आकर कुछ कहा और मास्टरजी तुरंत कक्षा छोड़कर बाहर चले गए। तभी घंटी बज गई और सभी बच्चे अपना डिब्बा उठाये बाहर आ गए। केशव ने अनमने ढंग से अपना डिब्बा खोला और डिब्बे में कचौरी-भाजी देख वह खुश हों गया। दोनों भाई अपना खाना खा रहे थे । तभी मास्टर जी के पास बैठे एक आदमी ने मनोहर को कुर्सी देने का इशारा किया। वह जैसे ही खड़ा हुआ, तभी केशव ने कहा, भैया आप बैठकर खाओ, मैं जाता हूँ। उसने खाली डिब्बा बंद किया और उसी दिशा की तरफ़ चल पड़ा। किसी कर्मचारी को बोल देते बच्चा हैं, कहाँ उठा पाएंगा। मास्टरजी ने कहा। अरे ! सर काहे ! चिंता करते हों। इनकी जात यहीं काम करती हैं, यह भी बड़ा होकर यही काम करेगा। कहकर वो हँसने लगा। और मास्टरजी उसके लाये कागज़ देखने लगे।

केशव कुर्सी खींचकर ला रहा था। प्लास्टिक की कुर्सी होने के कारण वह ज़्यादा भारी नहीं थीं। केशव को ऐसे कुर्सी लाते देख वह आदमी बोला क्यों उठाकर नहीं ला सकता था? उठाकर लानी थीं तो आप खुद ले आते, मैं तो खींचकर ही ला सकता था। केशव ने ज़वाब दिया। देखो ! कैसे ज़बान लड़ा रहा हैं, चल भाग यहाँ से ! देखिये! सर, यह कागज़ हैं और पैसे भी हम देने को तैयार हैं, मगर मिड डे मील का टेंडर हमारा ही पास होना चाहिए। जाते हुए केशव ने सुना तो वही रुक गया। तभी मास्टरजी ने उसे सख्ती से जाने के लिए कहा। तब वह धीरे-धीरे वहाँ से सरकने लगा। हम खाने का सैंपल भी लाए हैं। आप एक बार दाल -पालक चखकर बताओ कि कैसा हैं ? बस यही आवाज़ उसके कानों तक पहुँची। ये खाना भी खिलाएँगे और पैसे भी देंगे वाह! यह तो बड़े अच्छे हैं। केशव सोचने लगा।