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मिड डे मील - 10

क्यों हरिहर, तुम अपने बेटे को क्या सिखा रहे हों ? जिस दिन तुम उस बहनजी को लेकर आये थे, मुझे समझ जाना चाहिए था कि तुम्हारे इरादे कितने नेक हैं। तुम्हारा इस स्कूल में आना ही एक सोची-समझी चाल हैं। मोतीलाल हरिहर को सुनाया जा रहा था। क्या बात! कर रहे है, सरजी, मैं गरीब जिसका सारा दिन रोज़ी -रोटी कमाने में निकल जाता हैं, उसके पास इतना समय नहीं कि वो कोई जालसाजी कर सके। हरिहर ने सफ़ाई देते हुए धीमी आवाज़ में कहा। तो फिर तुम्हारा सपूत क्या नए कारनामे कर रहा हैं ? अब यह मत कहना कि तुम्हें कुछ नहीं पता। मोतीलाल ने सवाल किया। सरजी, वो बच्चा हैं। मैं मानता हूँ, थोड़ा शरारती हैं। अभी वो बच्चा इतना चतुर -चालाक है तो बड़ा होकर क्या करेंगा। मोतीलाल की आवाज़ में व्यंग्य था। सरजी, मेरे बच्चे अपने बापू का ही सपना पूरा कर रहे हैं। ऐसा कौन सा कारनामा कर दिया उन्होंने। हरिहर को अब भी कुछ समझ नहीं आ रहा था कि मोतीलाल क्या बात कर रहा हैं। वो ही तो मैं कह रहा हूँ कि तुमने ही उन्हें कुछ सिखा के भेजा हैं। इरादे तुम्हारे ठीक नहीं हैं। तभी तुम्हारा केशव घर से डिब्बे ला-लाकर यहाँ के बच्चों को खिलाता हैं।
अगर कल दूसरी जात के लोगों ने कोई शिकायत कर दी कि उनके बच्चे एक नीची जात के घर का पका भोजन खाते हैं। तब तुम्हारे बच्चों का इस स्कूल से नाम काटने में मैं एक सेकंड भी नहीं लगाऊँगा। तुम जानते हों , समरसता दिवस अखबारों और टीवी के लिए एक ख़बर हैं। मगर होता वहीं है, जो हम मानते हैं। और हमारा मानना यहीं है , तुम अपने दायरे में रहो। और गॉंव के उस तरफ़ रहो। लकीर लांघने की कोशिश न करने में तुम्हारी भलाई हैं। अपने बच्चों को समझाओ कि पढ़ने आते हैं तो सिर्फ़ पढ़े। यहीं उनके लिए अच्छा हैं। कोए को हंसो के बीच बैठने का मौका मिला हैं, मगर किसी ने हंस नहीं बना दिया। अब जाओ, अगली बार दोबारा नहीं बुलाऊँगा। अपनी वाणी को विराम दे, मोतीलाल ने घण्टी बजा दीं और बाहर बैठी मैडम हाज़िर हों गई। और हरिहर बेहद गंभीर और परेशान मुद्रा में कमरे से निकल गया।
हरिहर दोनों बच्चों को लेकर जा रहा था। इतना शांत और गंभीर उसके बच्चों ने उसे कभी नहीं देखा था। केशव अपने स्कूल के किस्से अपने बापू को सुना रहा था। मगर मनोहर बापू के हाव -भाव समझ रहा था। उसे पता था कि बापू को आज बड़े सरजी ने बुलाया था। और ज़रूर कोई बात हुई है, जिसकी वजह से आज उनके साथ खूब बतियाने वाला बापू शांत हैं। मनोहर ने ही बात बदलने के लिए पूछा, बापू आज आप हमें लेने क्यों आ गए। क्या ठेले पर किसी को बैठा कर आये हों ? हरिहर ने कोई ज़वाब नहीं दिया। आप मुझे वो लाल -कमीज दिला दो। मैं स्कूल के सालाना जलसे में पहनने की सोच रहा हूँ। दिलाओगे न बापू ? केशव ने उसका हाथ हिलाते हुए पूछा। मगर वह चुप रहा। बल्कि केशव को घूरकर देखा। तभी उन्होंने देखा कि वो घर न जाकर घर के पीछे वाली गली में जा रहे हैं। यह देख मनोहर को चिंता हुई कि इस रास्ते पर हम क्यों आ गए। कुछ मिनटों में वह स्कूल के सामने खड़े थे । हमारा पुराना स्कूल। मगर यहाँ क्यों? दोनों भाई यही सोच रहे थे । इससे पहले दोनों कुछ कहते उसने बोलना शुरू किया, मैं सोच रहा हूँ कि वार्षिक परीक्षा के ख़त्म होते ही तुम दोनों का दाखिला फ़िर से इसी स्कूल में करवा दूँ। इसलिए आज चलकर बात कर लेते हैं। उस स्कूल का किस्सा ही खत्म करते हैं क्यों रे ! केशव मैं ठीक रहा हूँ न ?" बच्चों को काँटो तू खून नहीं, उन्हें लगा जैसे किसी ने उन्हें सपने से जगा दिया हों। नहीं बापू, ऐसा क्यों कह रहे हों? आखिर! हमारी गलती क्या हैं ? केशव ने पूछा।
"बटुवा हमार गलती क्या है? हमका ये बताओ? हम इत्ते जतन से तुम्हारे लिए सब कर रहे हैं, तुम हो कि सब ख़राब करन पर तुले हूँ। समझाया था न, तुमको कि मिडडे मील का वो फॉर्म, टेंडरवा के चक्कर में न पड़ो। मगर तुम नहीं माने और तुम लगे हमसे खाना अलग थैली में ले जाकर स्कूल के बचवा को भी खिलाने लगे ताकि बाकी को भी हमारे खाने की आदत हों जाए और तुम हमें मनाकर टेंडरवा भरवा लोंगे। अब दोनों बच्चे समझ चुके थे, कि बात क्या हैं। क्योंकि जब भी बापू गुस्से में होता हैं, तब वो गाँव की बोली बोलने लगता हैं। वरना उसे हमेशा यह याद रहता है कि वह आठवीं पास हैं और खड़ी बोली में बात करता हैं। बापू को गुस्से में देख मनोहर से रहा न गया और वह हिम्मत करके बोल पड़ा, सारी गलती इस केशव की हैं, आप मेरा स्कूल क्यों छुड़वा रहे हों? यह उस रघु के साथ मिलकर टेंडर का फॉर्म भी खुद भर देता। दोनों ने फॉर्म चुराने का भी सोच लिया था। केशव अपने भाई को भीगी आँखों से देखने लगा। चल केशव ! आज तेरा स्कूल ख़त्म करवाता हूँ, वह उसे घसीटते हुए अंदर ले गया। और केशव ज़ोर-ज़ोर से रोकर कहने लगा, बापू गलती हों गई, माफ़ कर दो। मुझे लगा तुझे अच्छा लगेगा। तू ही माँ को कहता था कि भगवान ने चाहा तो तेरे हरिहर का खाना पूरा गॉंव खायेगा। केशव अभी खुद को छुड़ाने की कोशिश कर रहा था। मगर हरिहर की बातों का उस पर कोई असर नहीं हुआ। और वह केशव को खींचे जा रहा था। तभी मनोहर ने हरिहर के पैर पकड़ लिए और बोला, आख़िरी बार माफ़ कर दो। मैं वादा करता हूँ कि अब यह कुछ नहीं करेंगा। उसे रोते हुए केशव पर दया आ रही थीं। उसकी नाक निकल रही थीं और वो लगातार रोये जा रहा था। तभी हरिहर ने एक बार उसे देखा और उसे कंधे से पकड़कर बोला, सुन ! केशव सारे बच्चे रघु जैसे बच्चे नहीं होते और न कभी हों सकते हैं। अगर आज के बाद तूने कभी कोई ऐसी हरकत की तो बेटा स्कूल तुझे निकाले न निकाले, मैं तुझे यहीं इस स्कूल में भेज दूँगा। पगले ! तू नहीं जानता कि दुनिया तेरे हिसाब से नहीं सोचती, हम कौए हैं और वहीं रहेंगे। तुझे तेरी मरी माँ की कसम यह मिड डे मालवा का सब नाटक दोबारा न करियो। ठीक हैं, नहीं करूँगा। मुझे वही स्कूल जाना है।" केशव अभी रो रहा था।
अगले दिन स्कूल के बाहर खड़ा हरिहर बोला, जो कहा उसका ध्यान रखियो और हाँ रघु से भी दूर रहा कर। आधी छुट्टटी में केशव ने रघु को कल की सारी बात बताई। कोई नहीं भाई, तेरा इस स्कूल में रहना ज्यादा ज़रूरी हैं। आज तेरे डिब्बे में रोटी-अचार को देख बात समझ आ गई कि तेरा बापू कितना नाराज़ हैं। जब बाकी के बच्चे भी खाने के लिए केशव के पास आये, तब रघु बोल पड़ा, आज से भाइयों मिड डे मील खाओ। 'केशव मिड डे मील' की सेवा अब ख़त्म। ये सुन बच्चे वापिस चले गए। रघु और केशव वही रोटी-अचार खाने लगे। तभी माई ने आकर कहा, चलो, तुम दोनों खाना खाओ, यहाँ क्यों बैठे हों। रघु ने मना किया। तब माई ने कहा, केशव भी उनके साथ खाना खा सकता हैं। यह सुन दोनों सोचने लगे कि आज स्कूल को क्या हों गया। अरे ! जल्दी चलो, बच्चों ने खाना शुरू कर दिया हैं। दोनों ने देखा, आज कोई जातीय भेदभाव मिड डे मील में नहीं नज़र आ रहा। लगता है, स्कूल सुधर गया हैं। रघु धीरे से बोला। और दोनों खाना खाने के लिए चल पड़े।

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