कोरोना के कारण जिंदगी थोड़ी धीमी चलने लगी। सर्वत्र खामोशी छाई हुई है! अब प्रकृति से जनसामान्य जुड़ने की चेष्टा में है। सुबह प्रकृति सभी से चिड़िया की चहचहाहट से प्रेम से बात करने कहती है। मगर हाय रे मानव! क्या से क्या कर डाला? विषाणु बना डाला – मानव को बीमार करनेवाला! ख़त्म करनेवाला! मनुष्य के स्वास्थ्य और प्रसन्नता का ख्याल नहीं रखा। जबकि मनुष्य जानता है कि एक दिन सभी को जाना है। तो सुकून वाला काम करना था। सभी को शान्ति मिलती। ऐसा करने से किसने रोका था? प्रकृति की रक्षा, उसके सम्मान का संकल्प वाला काम तो कर सकते थे। अपनी दस इंद्रियों द्वारा प्रकृति के पंचतत्व (पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश) की रक्षा कर सकते हैं। अच्छे से इनका तालमेल प्रकृति के साथ रखते। इससे हमारे स्वास्थ्य की रक्षा होती। अपनी इंद्रियों को नियंत्रित कर प्रकृति का मान करते। कितना सुंदर दृश्य उपस्थित होता जब चीन के वैज्ञानिक कोरोना विषाणु के स्थान पर हंसने वाला ‘अमृतानु’ बना देते। वह ‘अमृत-अणु’ की तरह कार्य करता। लोग गदगद होते। असमय किसी माँ की कोख नहीं उजडती। किसी सुहागन की सुहाग की रक्षा होती। वह अमृत-अणु दुनिया में खुशियाँ फैलाने में कारगर होता। वह अमृतानु जहाँ भी जाता लोग धन-धान्य नहीं होने से भी प्रसन्न रहते। मुस्कान बिखेरता। जिसकी आज अत्यंत कमी है। सर्वत्र चीख-पुकार सुनाने को नहीं मिलती। लोग हँसते तो मास्क लगाना पड़ता। पेट में बल पड़ जाते। मुंह को आराम नहीं मिलता। हँसते ही रहते। लेकिन पढ़े-लिखे लोगों को यह समझ कब आएगी राम जाने। मारनेवाला विषाणु के निर्माण में अपनी शक्ति का उपयोग कर मानव अपने को श्रेष्ठ समझ रहा है। अब आपस में विश्व-शक्तियां विषाणु बनानेवाले की खोज कर रही हैं। ‘अमृत-अणु’ के प्रकार में परिवर्तन आता। इसकी नयी-नयी किस्में समाज में आतीं। एक कहता कि इस ‘अमृत-अणु’ के इस किस्म में सर्वत्र शान्ति छा जाती है। लोग कहते - एक नया परिवर्तन आया है जो पौधारोपण को बढ़ावा दे रहा है। एक नया परिवर्तन आकाश के रंग को गहरा नीला कर देता है। समुद्र की लहरों को शांत कर देता है। दुनिया को और बेहतर करनेवाले अमृत-अणु की खोज की जाती। अच्छाइयों का संक्रमण फैलता। लोग तेज और तेज भागते कि कौन सबसे अच्छा कर रहा है। चीन के वैज्ञानिकों को यदि कुछ बनाना ही था तो कुछ मानव-उपयोगी सामान बनाते। कम से कम अमेरिकी राष्ट्र्पति को तो चीन के बारे में अधिक सोचने की आवश्यकता नहीं होती। कोरोना बनाकर चीन ने मानव सभ्यता के विरुद्ध एक अघोषित युद्ध छेड़ दिया। युद्ध किसने चाहा था? सभी देश तो अपने विकास में लगे थे। सकारात्मक सोचने में चीन की क्या परेशानी है? आए दिन जब भी देखते हैं तो पाते हैं कि चीन का दिमाग खुराफात ही सोचते रहता है। ऐसा लगता है कि इसी को देखते हुए सम्राट अशोक ने अपने दोनों बच्चों को दुनिया को सम्यक ज्ञान देने के लिए लगा दिया। उन्हें लगा होगा कि युद्ध से कुछ प्राप्त होनेवाला नहीं है। शान्ति और अहिंसा का कोई जोड़ नहीं है।मानवोपयोगी नवनिर्माण या नवसृजन से हमेशा मानवता समृद्ध हुई है। लोगों के दिलों को जीत कर उस पर शासन अच्छे से किया जा सकता है। सता-डरा कर नहीं। रावण का घमंड टूटते देर नहीं लगी। आज रावण का नामोनिशान नहीं बचा है। अंत में इतना ही कह सकते हैं कि विषाणु बनाने के पहले चीन ने एक बार विश्व जनमत से पूछा होता। सलाह ली होती। मगर चीन ने ऐसा किया नहीं। उसे फल तो भुगतना ही पड़ेगा। आगे चीन को भगवान सद्बुद्धि दे। संक्रमण यदि फैलाना ही है तो विषाणु की जगह अमृत-अणु का फैलाए।