उजाले की ओर - संस्मरण Pranava Bharti द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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उजाले की ओर - संस्मरण

उजाले की ओर ---संस्मरण

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वह हवाई-यात्रा बहुत अजीब थी ,अजीब क्या !कभी सोचा ही न था कि इतने ऊपर आकाश में कोई इस प्रकार की सोच या फ़ीलिंग भी हो सकती है !

बात तो कई वर्ष पुरानी है | अगरतल्ला ,आसाम से एक निमंत्रण आया ,कवि-सम्मेलन का ! ख़ुशी इस लिए भी अधिक हुई कि बहुत दिनों से आसाम देखने का मन था | पति अपने काम से जा चुके थे लेकिन इमर्जैंसी में गए थे | वैसे भी काम से जाने पर कभी मैं उनके साथ नहीं गई थी लेकिन जिन मित्रों ने आसाम देखा था ,वहाँ रहे थे वे जिस खूबसूरती से वहाँ की बातों का ज़िक्र छेड़ देते ,लगता आसाम नहीं देखा तो कुछ नहीं देखा |

ख़ैर हमारा भी अवसर आ ही गया | पहले तो फ़ोन आया कान्फर्मेशन के लिए ,एयर –टिकिट बुक करवानी थीं ,रहने की व्यवस्था करनी थी | सब जानते हैं किसीको निमंत्रित करना आसान नहीं होता | अतिथि की हर सुविधा का ध्यान रखना होता है |

“मैडम ! आप निश्चित तौर पर आ रही हैं न ?”

“जी,”

“मैडम ! आप अपनी डेट ऑफ़ बर्थ बताएंगी प्लीज़ ----“दूसरा सवाल बड़े संकोच में पूछा गया था |

“जी,बिल्कुल ---“ बता दी गई अपने अवतरण की तारीख़ !

वहाँ पर कई लोग थे जो आपस में चर्चा कर रहे थे |उनकी बातें खुसुर-पुसुर में सुनाई दे रही थीं |

“सत्तर वर्ष !”

“अरे ! बाबा ---“

“कुछ हुआ ?” मैंने इधर से पूछा |

“जी,नहीं ---कुछ नहीं ---आप आ तो कन्फर्म रही हैं न ?”इस बार उधर का प्रश्न कुछ चौंककर पूछा गया था |

“जी,इसके लिए कोई पेपर साइन करके भेजना होगा क्या ?”मैंने हँसकर पूछा |

“जी,नहीं मैम ---“कोई झेंपती सी ,बेचारी सी आवाज़ में बोला |

“मैं सत्तर की ही हूँ ---और जो मेरे साथ दूसरे भाई आ रहे हैं ,वे लगभग अस्सी के हैं ---आपने पहले पता नहीं किया था ?”मैं वहाँ की बातें सुन प रही थी ,फुसफुसाहट में |

“अरे ! नहीं मैम,वो तो -----“ उधर वाली आवाज़ें चुप हो गईं थीं |

अहमदाबाद से कोलकाता हवाई-अड्डे पर ,लगभग पौने तीन घंटे और वहाँ से अगरल्ला लगभग 25/30 मिनट का हवाई सफ़र !

कभी बालपन में पापा के साथ गई थी ,हल्की झाँकी सी दिमाग में थी | उस समय के और अब के हवाई-अड्डे में ज़मीन-आसमान का फ़र्क था | मैं आज के कोलकाता के हवाई-अड्डे को देखकर खूब खुश हुई | लगभग दो घंटे या ऐसे ही कुछ देर बाद दूसरी उड़ान थी |खूब तस्वीरें ली गईं | अगरतल्ला भी से आराम से पहुँच गए | यहाँ से लगभग पाँच लोग ,जयपुर से तीन एक ही साथ थे |

वहाँ जाकर पता चला दिल्ली से भी कुछ कविगण पधारे हैं |

रहने की व्यवस्था भी बहुत अच्छी थी ,खाना-पीना सब सुंदर ,व्यवस्थित !

रात को बड़े से पंडाल में कवि-सम्मेलन हुआ | बहुत सफ़ल रहा वह सम्मेलन | लगभग पाँच/सातसौ के करीब श्रोता रहे होंगे |जिनसे फ़ोन पर मेरी बात हुई थी ,वे बार-बार ‘सॉरी’बोल रहे थे | मैं मुस्कुरा देती | बस,एक प्रश्न मेरे सामने था कि उम्र का इतना बड़ा खौफ ! कितने लोग घेरे खड़े थे ,कितने बच्चे ,बड़े साथ में तस्वीरें लेने की मशक्कत सी कर रहे थे | सबने ,अधिकांश सबके साथ तस्वीरें लीं गईं | फ़ोन नंबर आदान-प्रदान किए गए |

लौटती बार कोलकता से मेरी सीट डॉ . किशोर काबरा के साथ थी |

हम बरसों के पूर्व परिचित ! बातें होने लगीं ,पुरानी बातें ,इधर-उधर की बातें !

न जाने मुझे क्या सूझा ;

“बड़े भैया ! माइडीटेशन करें ?”

“क्या बात काही बहन ---“ उस समय हम न जाने कितनी ऊँचाई पर थे ,बादलों से अठखेलियाँ करता हुआ हमारा जहाज़ आगे बढ़ता जा रहा था |

डॉ . काबरा ने एक बार खिड़की से हवाईजहाज़ को बादलों के बीच क्लाबाज़ियाँ सी खाते हुए देखा ,मुझे भी इशारा किया | मैंने खिड़की में से बादलों की तस्वीरें लीं |

“कृपया ,अपनी सीट-बैल्ट बाँध लीजिए ---मौसम थोड़ा सा खराब है ---घबराने की कोई बात नहीं है –“एयर-होस्ट्स यात्रियों को बड़े प्यार से समझा रही थीं |

हम मंत्र मुग्ध से खिड़की में से जहाज़ के पंखों पर बादलों को जैसे बैठे हुए बहुत देर तक देखते रहे | बादलों का आना –जाना जैसे किसी स्वर्ग की सैर करवा रहा था |आँखों में एक स्वर्ग को महसूस करने की चमक भर गई थी |

कुछ ही देर में सब नॉर्मल हो गया |बैलट्स खोलने का निवेदन हो चुका था | अब आसमान साफ़ था किन्तु वह बादलों को मुट्ठी में भर लेने का स्वर्गिक एहसास मन में कहीं कुनमुना रहा था |

“ॐ ----“ डॉ. काबरा के मुख से निकला ,उनकी आँखें बंद थीं और एक महीन सी मुस्कुराहट उनके होठों पर थी |

मैंने उनका संकेत समझकर अपनी आँखें बंद कर लीं | वे जो कुछ बोलते रहे ,मैं वह अनुभव करती रही |

एक आलौकिक एहसास से जैसे पूरा मन का वातावरण जग्म्गने लगा था |

लगभग 50 मिनट बाद एयर-होस्ट्स ने हमें झिंझोड़ा –

“आप ठीक हैं मैडम---और –सर आप ---?

पता नहीं हम किस मनोदशा में थे , अलौकिक अहसास से भीगे हुए पल हमें आँखें न खोलने पर विवश कर रहे थे लेकिन बेचारी बच्ची ट्रॉली लिए हमसे खाना लेने का आग्रह कर रही थी जो हमारे टिकिट के पैकेज के साथ ही सर्व किया जा रहा था |

हमने अपने खाने के पैकेट्स हाथों में पकड़ लिए किन्तु भीतर की गंभीर शांति से ओतप्रोत हम बहुत देर तक आँखें बंद किए बैठे रहे | हम पहले भी कई बार मैडिटेशन कर चुके थे किन्तु इतनी ऊँचाई पर अनंत शांति ने जैसे स्वर्ग की अनुभूति करवा दी थी |

उसके बाद भी हम अपने ग्रुप के साथ कई बार मौन और साधना में बैठे किन्तु उस दिन जैसा एहसास कभी नहीं कर पाए |

उस यात्रा से जुड़े कई संस्मरण जुड़े हैं | अब अगली बार आती हूँ दूसरे संस्मरण के साथ !

महाकवि नीरज जी की पंक्तियाँ याद आ रही हैं ---

शब्द तो शोर है ,तमाशा है ,

भाव के सिंधु में बताशा है |

मर्म की बात मुख से न कहो ,

मौन ही भावना की भाषा है ||

आपकी मित्र

डॉ. प्रणव भारती