भारत में रिश्ते चुनने की परम्परा रही है। प्राचीन काल में बहुत ही कम को स्वेच्छा से रिश्ते चुनने की छूट मिली थी। उदाहरण के लिए हम सावित्री, माता सीता, द्रौपदी आदि को रख सकते हैं। इन सब का स्वयंवर हुआ था। उपरोक्त में सावित्री को छोड़कर अन्य दोनों के साथ शर्त लगी थी। माता सीता के स्वयंवर के लिए भगवान शिव के धनुष को उठाना था। द्रौपदी के स्वयंवर के लिए घूमती हुई मछली के आँख में निशाना लगाना था। दोनों शर्त उस वक्त के हिसाब से कठिन थे। लेकिन धरती वीरों से भरी हुई है। राजा जनक और द्रुपद के प्रण की रक्षा के लिए शूरवीर भी आ गए।
आजकल सावधानी हर जगह रखने की जरूरत है। लेकिन ‘चुनने’ में और भी बहुत ही सावधानी बरतने की आवश्यकता है। यदि ‘चुनने’ में सावधानी नहीं रखे तो ‘चूना’ लगना स्वाभाविक है। वर्त्तमान में रिश्ते चुनने में आजादी नहीं है। भाई-बहन आदि रिश्ते ऊपर से तय हो जाते हैं। इनमे मानव का जोर नहीं चलता है। सब पहले से तय है। जो है – सो है। उसी में संतुष्ट होना है। कुछ भी मन का नहीं चलेगा।
केवल एक रिश्ता अपने से ‘चुनने’ की आजादी है। वह भी हमारे समाज में फूफा / मौसा/ जीजा चुनते हैं। वर पक्ष तथा कन्या पक्ष के फूफा / जीजा / मौसा आपस में मिल गए तो रिश्ता पक्का। पूछने की भी आवश्यकता नहीं पड़ती। ऐसा लगता है, मानो वे अपना ‘हिसाब बराबर’ कर रहे हों। एक तरह से उसे ‘बदला’ भी कह सकते हैं। वैसे ‘बदला’ कहना उतना उपयुक्त तो नहीं होगा, थोडा कठिन हो जाता है। अतः हिसाब बराबर करना ही उचित है।
यह तो पक्का है कि यदि सौ शादीशुदा जोड़ों से एकांत में ईमानदारी से पूछा जाए तो एक-दो ही अपनी शादी से संतुष्ट नजर आयेंगे। अधिकांश का उत्तर नकारात्मक ही आएगा। शुरुआत में तो ठीकठाक चलता है, बाद में संबंधों में काफी खिचांव / ठहराव आ जाता है। पहले तो जगह ‘दिल’ में होती है। बाद में जगह ‘सडकों’ पर हो जाती है। पहले वक्त गुलज़ार रहता है। बाद में तकरार होने लगता है। पहले जो तेरा है – वह मेरा है। बाद में यह सब बदल जाता है। कन्या भी मैं ‘नरक’ में क्यों आ गयी – आदि बात बोलती है? मेरे लिए तो आईएस लड़का देखा जा रहा था। बेकार में फूफाजी ने मुझे आपके साथ बाँध दिया। इस जगह फूफाजी को गाली सुननी ही पड़ती है।
हाल के वर्षों में कम से कम दस शादियों को टूटते देखा है। विवाह पूर्व भी फोन आदि के कारण सम्बन्ध टूट जाते हैं। सम्बन्ध ठीक या तय करने का आधार अपने देश में गुणात्मक होने के साथ-साथ भावनात्मक भी होता है। चाल-ढाल, रहन-सहन, खान-पान, लेन-देन, धन- सम्पत्ति आदि देखकर रिश्ते को तय कर दिया जाता है। कन्या पक्ष की तरफ से याचक बनकर वर पक्ष की तरफ दहेज़ की एक मोटी रकम का वादा किया जाता है। दहेज़ भी प्राचीन काल में राजे-महाराजे अपनी हैसियत के हिसाब से अपनी पुत्री के लिए देते थे। कालांतर में इसमें बहुत सी बुराइयां आ गयीं। शादी का यह मुख्य आधार बन गया। शील, स्वाभाव, संस्कार आदि बातें गौण हो गयीं।
बात शादी की करते हैं। शादी में जैसे ही ससुराल पक्ष को भंडार संभालने की जिम्मेदारी दी जाती है – फूफाजी नाराज हो जाते हैं। वैसे प्रायः यह देखा गया है कि ‘साले’ को भंडार संभालने की जिम्मेदारी दी जाती है, क्योंकि उन्हें बहन के साथ रहने का अवसर प्राप्त होगा। ‘कान’ भरने में ‘बहन- भाई’ की भूमिका महत्वपूर्ण रहती है। बाहर का सामान तो अपने भाई से ही मंगवाना उचित रहता है – क्योंकि वह बेचारा कुली की तरह सामान उठाएगा तथा खराब सामान की जिम्मेदारी भी लेगा। शादी के संपन्न होने के बाद उसे वापस करने की जिम्मेदारी भी है, पहले चाचा बाहर से सब सामान लाने की जिम्मेदारी लेते थे। मौसा और फूफा जी मेहमानों का स्वागत का इंतजाम देखते हैं। इस तरह से परिवार के सभी लोगों के सहयोग से विवाह संपन्न होता है। घर में जब नयी बहू या दामाद आते हैं तो सबका परिचय इज्जत के साथ बहू या दामाद से कराया जाता है।
अगर एक ही शहर में रिश्तेदार रहते हैं, तो नयी बहू या दामाद अपने चाचा, मामा ,मौसा और फूफा ससुर के यहाँ मिलने भी जाते खुशी – खुशी जाते हैं।
हम खुद की बात करें तो आज भी मेरे सास- ससुर के शहर में नहीं रहने के बावजूद भी हमारा, बुआ और चाचा ससुर के परिवार वालों से बहुत ही मधुर संबंध हैं। पहले के समय परिवार सिर्फ चार लोगों तक सीमित नहीं था। परिवार का विस्तृत दायरा होता था। हमारे परिवार में प्रारंभ से ही सबके साथ संबंध बना कर रखा गया है, जो आज तक कायम है।
आज की स्थिति में बहुत बदलाव आ गया है। बेटे की शादी हो या बेटी की ; शादी में लोग एक-दो दिनों के लिए आते हैं। शादी का सारा इंतजाम आज पैसे लेकर बाहर वाले करते हैं। खाने की व्यवस्था के लिए पहले से ही ‘केटरर’ कर लिया जाता है। शादियाँ घर के बाहर हॉल या होटल में होती हैं। आज सब लोग शादी नें सम्मिलित होने आते हैं।
शादी समाप्त होते ही या उसके पहले ही भोजन कर सब लोग अपने- अपने घर चले जाते हैं, ऐसे में अपने घर के लोगों के अलावा किसी से न ज्यादा पहचान हो पाती है और न ही मामा, मौसी ,चाची या चाचा के साथ घनिष्ठ रिश्ता बन पाता है।
सौभाग्य से हमारे फूफाजी /मौसाजी / जीजाजी ऐसे नहीं है। वे हमारे अभिभावकों की भूमिका में रहते हैं। और ऐसा भी नहीं है कि दूसरे सभी के फूफाजी / मौसाजी/ जीजाजी ऐसे होते हैं। इन रिश्तों में बहुत सारे अच्छे भी होते हैं। सभी को एक साथ बेकार कहना भी इन रिश्तों की तौहीन है। लेकिन बड़े-बुजुर्ग कहते हैं कि इन लोगों से सावधान रहने की ही आवश्यकता है।