चलो, कहीं सैर हो जाए... 8 राज कुमार कांदु द्वारा यात्रा विशेष में हिंदी पीडीएफ

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चलो, कहीं सैर हो जाए... 8



माताजी के दिव्य स्वरुप को देख भैरव बाबा एक क्षण को तो हत्प्रभ रह गए लेकिन वो तो मन ही मन कुछ और ही निश्चय कर चुके थे सो प्रकट में अट्ठाहस करते हुए माताजी की ओर बढे ।

अब एक मायावी शक्ति और माताजी के दिव्य अस्त्रों के बीच जम कर मुकाबला होने लगा । माताजी के अधरों पर सौम्य मधुर मुस्कराहट तैर रही थी । माताजी धीरे धीरे पीछे हटते हुए अब भवन के करीब आ चुकी थीं । भैरव बाबा भी पीछे पीछे भवन तक आ धमके थे । भैरव बाबा जैसे ही भवन के नजदीक आये माताजी के हाथों में एक दिव्यास्त्र चमकने लगा । यह माताजी का त्रिशूल था जिसका उन्होंने अभी तक इस युद्ध में प्रत्यक्ष प्रयोग नहीं किया था ।

उस दिव्य त्रिशूल का प्रयोग करते ही भैरवनाथ का मस्तक कटकर भवन से लगभग दो किलोमीटर दूर ऊपर पहाड़ी पर जा गीरा । एक करूण आर्तनाद के साथ भैरव सिरविहीन धड के साथ माताजी के सामने हाथ जोड़े खड़ा था । उसका मस्तक अभी भी कुछ कहने की चेष्टा कर रहा था । माताजी ने उसे कुछ कहने की शक्ति प्रदान की ।

अब भैरव का धडविहीन सर पलकें झुकाए बड़े ही विनम्र स्वर में बोला ” हे जगतजननी ! मेरा प्रणाम स्वीकार करो । मैं पापी दुष्ट इस जनम मरण के चक्कर से अपने आपको बचाने का अन्य कोई उपाय नहीं ढूंढ पाया । हे माँ ! मेरे गुनाहों को क्षमा कर । ”

माताजी अब तक शांत हो चुकी थीं बोली ” हे भैरवनाथ ! सच्चे ह्रदय से मांगी गयी माफ़ी और पश्चात्ताप के आंसू बड़े से बड़े गुनाहों का भी लोप करके उसे क्षमा का हक़दार बना देते हैं । मैंने तुम्हें माफ़ किया । अब बताओ ! तुम और क्या चाहते हो ? ”

भैरव अश्रुपूरित नेत्रों से माताजी की ओर देखते हुए बोला ” माँ तू बहुत दयालु है । सम्पूर्ण जीवन मैंने तेरा विरोध करके बड़ा ही घृणित कार्य किया है । अब मैं बस इतना ही चाहता हूँ की आगे भविष्य में कोई मुझसे नफ़रत न करे । कुछ ऐसा कर दो माँ की लोग मेरे किये की माफ़ी देकर मेरा भी सम्मान करें ”

दया का सागर और ममता की मूरत माँ तो उसे पहले ही माफ़ कर चुकीं थीं । बोलीं ” वत्स ! जैसा तुम चाहते हो वैसा ही होगा । आज के बाद जो भी भक्त मेरे दर्शन करने आएगा मेरे दर्शन के बाद तुम्हारे दर्शन अवश्य करेगा । तुम्हारे दर्शन किये बिना उस यात्री का मेरा दर्शन करना फलित नहीं होगा । ”

और शायद तभी से यह मान्यता बलवती हो गयी है । लोग माताजी के दर्शन के पश्चात् भवन से लगभग दो किलोमीटर की दुरी पर कड़ी चढ़ाई चढ़ कर भी भैरव बाबा के दर्शन अवश्य करते हैं ।

थकान के मारे हमलोग पस्त हो गए थे । भवन से निकले दो घंटे से अधिक का समय हो गया था और हम लोग मुश्किल से एक किलोमीटर दुरी ही तय कर पाए थे । यह दो किलोमीटर की दुरी हमें बाणगंगा से भवन तक की कुल दुरी से भी अधिक प्रतीत हो रही थी ।

लेकिन चलना तो था ही । हम सभी घोड़े वगैरह की सेवा लेने के खिलाफ थे । एक तो खड़ी चढ़ाई ऊपर से संकरे रास्ते की वजह से घोड़ों के आते ही एक तरफ दुबकना पड़ता था । हमेशा ध्यान रखना पड़ता था की पीछे से कोई घोडा तो नहीं आ रहा है ।

रास्ते के किनारे कहीं कहीं छोटे पत्थरों के टुकडे अथवा लादी के टुकड़ों से लोग घर बनाते दिखे । कुछ छोटे तो कुछ दो मंजिला तो कुछ बड़े घर । हमें यह अजीब सा लगा । साथ ही चल रहे एक सज्जन से पूछने पर पता चला की ये लोग एक मान्यता की वजह से ऐसा कर रहे थे । मान्यता है की जो जैसा घर का प्रतिक बनाएगा भैरव बाबा और माताजी उन्हें वैसाही घर प्राप्त होने का आशीर्वाद देती हैं । इन सब चीजों का अवलोकन करते हुए हम लोग आगे बढे ।

किसी तरह हम लोग भैरव घाटी पहुंचे । यहाँ बायीं तरफ थोड़ी ऊंचाई पर बाबा भैरव नाथ का एक मंदिर बना हुआ है । मंदिर के ठीक सामने ही एक बड़ा सा छत नुमा स्थान बना हुआ है । यहाँ लोग अपने अपने समूह के लोगों के साथ बैठे आराम फरमा रहे थे ।

मंदिर में दर्शन के लिए कोई बड़ी कतार नहीं थी सो सभी इत्मिनान से बैठे हुए थे । लगभग बारह बज रहे थे । धुप भी खिली हुयी थी ।

इसके बावजूद लोग धुप में ही बैठे काफी दूर नजर आ रहे बर्फीली चोटियों को निहारते हुए कुदरत के अनुपम सौन्दर्य का रसपान कर रहे थे । धुप का तो जैसे बिलकुल अहसास ही नहीं था लोगों को ।

मंदिर से लगे हुए ही बायीं तरफ कतार से कुछ दुकानें थीं जिनमें कुछ दुकानें नाश्ते की भी थीं । इन्हीं दुकानों की कतार के मध्य में ही मंदिर की तरफ से अधिकृत एक सस्ते दर पर पूजा सामग्री उपलब्ध कराने की दुकान भी थी ।

हम सभी ने तय कर लिया था की पहले दर्शन कर लेंगे फिर इत्मिनान से बैठकर नाश्ते के साथ कुदरत के अनुपम नज़ारे का दीदार करते हुए थोडा आराम भी कर लेंगे । यहाँ मंदिर में प्रवेश के लिए लगी कतार के समीप ही बहुत से छोटे छोटे लोकर बनेे हुए थे । इन्हीं में से एक में अपनी सभी थैलियाँ रखकर हम सभी मित्र दर्शन की कतार में खड़े हो गए ।

दस मिनट से भी कम समय में ही हम लोग दर्शन करके मंदिर के बाहर सा चुके थे । एक तरफ कुछ शोर सुनाई पड़ा । पता चला कुछ लोग बंदरों को देखकर शोरगुल कर रहे थे। बंदरों की उपस्थिति को महसूस कर हम लोग भी अपने सामानों के प्रति सजग हो गए थे ।

मंदिर के सामने ही मंदिर प्रशासन द्वारा संचालित भोजनालय भी था जिसमें खासी भीड़ नजर आ रही थी । भोजन का विचार त्याग कर हम लोग जलेबियाँ व कुछ बिस्किट और नमकीन लेकर वहीँ छत नुमा जगह पर एक कोने में बैठ गए ।

सामने ही निचे की तरफ मीलों गहरी खाई सी नजर आ रही थी तो सीधे बहुत दूर कुछ बर्फ से ढकी चोटियाँ भी नजर आ रही थी । बड़ा ही मनभावन दृश्य नजर आ रहा था । दूर हिमाच्छादित पर्वत चोटियों पर पड़नेवाली सूरज की किरणें परावर्तित होकर एक अलग ही चमकदार नज़ारे का निर्माण कर रही थीं । नजदीकी पर्वत श्रंखला के दृश्य भी कम मनभावन नहीं थे ।

यहाँ लगभग आधा घंटा बैठने से हम लोग काफी राहत और तरोताजा महसूस कर रहे थे । लगभग एक बजनेवाले थे । हम लोग भैरव घाटी से आगे की तरफ प्रस्थान किये । आगे भी रास्ता संकरा ही था लेकिन भीडभाड काफी कम लग रही थी और हमारे लिए सबसे बड़ी राहत की खबर ये थी की मंदिर से लगभग सौ मीटर बाद ही अब चढ़ाई के बदले रास्ता ढलान लिए था । ढलान पर कदम स्वतः ही तेज उठने लगते ।

क्रमशः