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कोरोना और पर्यावरण

पश्चिमी दुनिया बहुत क्रूर, निर्मम है। यह मनुष्य को औसत दर्जे का होने के लिए मजबूर करता है। यह हर कदम पर चोट पहुँचा कर दम लेता है। इस जगत में माँ-पिताजी को छोड़कर प्रायः लोग मनाते हैं कि लोग असफल हों। तब दुनिया असफल होने का जश्न मनाती है। दुनिया के खिलाफ जाने के लिए तथा सफल होने के लिए मनुष्य को असाधारण ऊर्जा की जरूरत होती है। यदि हम उर्जा बर्बाद एक सेकंड भी करते हैं तो सफल नहीं हो सकते। पश्चिमी देशों ने अपने नागरिकों के जीवनयापन के लिए असीमित ऊर्जा लगायी। एक क्षण भी बर्बाद नहीं किया। हमारे देश में आध्यात्मिक बातों पर ध्यान दिया गया। समृद्धि हमारी संस्कृति है। जिसमें सबका हित और संरक्षण छुपा है। इसमें सबकी भागीदारी है लेकिन हमने पश्चिम के प्रभाव में आकर इसे भुला दिया और विकास के पीछे भागने लगे जबकि विकास में कुछ लोगों का हित निहित है। यह पूंजीवादी और उपभोक्तावादी संस्कृति को बढ़ाता है। अतः हमें अब पुनः उसी प्रकृति की ओर लौटना होगा, जो समृद्धि की बात करती है। प्रकृति के साथ हमारा मां-बेटे का रिश्ता है। प्रकृति की पूजा करना हमारे संस्कार में रहा लेकिन आज हम उसका शोषण भी कर रहे हैं, जिसके कारण पृथ्वी का जल स्तर गिरा। नदियां प्रदूषित हुईं और हवा सांस लेने लायक नहीं रही। लेकिन इसके उलट पश्चिमी देशों ने भौतिकवादी बातों पर ध्यान दिया। परिणाम यह हुआ कि वे सफल हुए। उनका जनजीवन चिकित्सा व्यवस्था, न्याय प्रक्रिया और बीमा कम्पनियां के सहारे टिका हुआ है। हमारे देश में इन तीनों की हालत एकदम जर्जर है। आज के समय में हम एक निर्धन द्वारा सुलभ चिकित्सा की कल्पना कर सकते हैं? यदि प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों की हालत देखें तो वहां चिकित्सक ही उपलब्ध नहीं है। प्राचीन काल में न्याय-प्रक्रिया के लिए हमारा देश मशहूर था। विक्रमादित्य तथा भोज जैसे राजाओं के न्याय की कहानी प्रसिद्ध है। आज एक गरीब न्याय के लिए न्यायालय का चक्कर लगा कर अपनी इहलीला समाप्त कर लेगा लेकिन न्याय नहीं मिलने वाला है। साथ ही बीमा का हाल भी अपने देश में भगवान भरोसे है। यदि कोई हमारे लिए लड़नेवाला नहीं है तो बीमा राशि मिलनेवाली नहीं है। कोरोना संकट ने हमें सब सिखा दिया। कुछ दिनों के लिए संकट भी जरुरी होता है। अपने-पराए का पता चल जाता है। साधु है या भेड़िया – इसकी पहचान हो जाती है। साधु- भेडिये की पहचान के लिए कोई यंत्र नहीं होने से तकलीफ होती है। हमने यहाँ की जलवायु के अनुकूल आयुर्वेद को छोड़कर पश्चिमी सभ्यता की चिकित्सा प्रणाली, न्याय-व्यवस्था तथा शिक्षा-प्रणाली को ख़ुशी-ख़ुशी अपना लिया। इसकी असलीयत कोरोना ने खोलकर रख दी। शिक्षित व्यक्ति का व्यवहार मन को व्यथित कर देता है। विद्या से विनय आती है – वह देखने को मिलता नहीं है। पश्चिम की एक भी व्यवस्था हमारे देश के अनुकूल नहीं है। अतः अब इससे बाहर निकलने के लिए सबसे पहले हमें खानपान की हमारी संस्कृति को संरक्षित करना होगा। बहुराष्ट्रीय कंपनियां बीजों को कब्ज़े में लेकर एकाधिकार ज़माना चाहती हैं। खान-पान जलवायु के अनुकूल होती है। बहुराष्ट्रीय निगमों के ऊपर हमारे किसानों की निर्भरता बढ़नी नहीं चाहिए। देशी बीज बैंक बनाकर इसे रोकने का प्रयास करना चाहिए। यही हाल भोजनालय का है। भोजन-तालिका में भारतीय व्यंजन का नामोनिशान नहीं रहता है। कोरोना भी प्रकृति का हिस्सा है जो दूत बनकर आया है हमें याद दिलाने कि हम क्या गलती करते आए हैं। अब समय है कि नए सिरे से शुरुआत का। हमें सकल घरेलू उत्पाद नहीं सकल पर्यावरणीय उत्पाद पर ध्यान देने की जरूरत है। अर्थव्यवस्था में प्रकृति संरक्षण के लिए हमने क्या किया – यह महत्वपूर्ण है। हमने कितना पानी बचाया, कितने पेड़ लगाए, जमीन को कैसे बचाया, इसकी गणना करनी है। किसी प्रकार का विकास काम न आया। अर्थव्यवस्था सब कुछ नहीं है। बेहतर अर्थव्यवस्था के लिए बेहतर पर्यावरण की जरूरत है।

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