कन्‍हर पद माल - शास्त्रीय रागों पर आधारित पद - 25 ramgopal bhavuk द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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कन्‍हर पद माल - शास्त्रीय रागों पर आधारित पद - 25

कन्‍हर पद माल- शास्त्रीय रागों पर आधारित पद 25

सन्‍त प्रवर श्री श्री 1008 श्री कन्‍हर दास जी महाराज कृत

(शास्त्रीय रागों पर आधारित पद.)

हस्‍त‍लिखित पाण्‍डुलिपि सन् 1852 ई.

सर्वाधिकार सुरक्षित--

1 परमहंस मस्‍तराम गौरीशंकर सत्‍संग समिति

(डबरा) भवभूति नगर (म.प्र.)

2 श्री श्री 1008 श्री गुरू कन्‍हर दास जी सार्वजनिक

लोकन्‍यास विकास समिति तपोभूमि कालिन्‍द्री, पिछोर।

सम्‍पादक- रामगोपाल ‘भावुक’

सह सम्‍पादक- वेदराम प्रजापति ‘मनमस्‍त’ राधेश्‍याम पटसारिया राजू

परामर्श- राजनारायण बोहरे

संपर्कः -कमलेश्वर कॉलोनी, (डबरा) भवभूति नगर, जिला ग्वालियर (म0प्र0)

पिन- 475110 मो0 9425715707 tiwariramgopal5@gmail.com

प्रकाशन तिथि- 1 चैत्र शुक्‍ल, श्री रामनवमी सम्‍वत् 2045

श्री खेमराज जी रसाल द्वारा‘’कन्‍हर सागर’’ (डबरा) भवभूति नगर (म.प्र.)

2 चैत्र शुक्‍ल, श्री रामनवमी सम्‍वत् 2054

सम्‍पादकीय--

परमहंस मस्‍तराम गौरी शंकर बाबा के सानिध्‍य में बैठने का यह प्रतिफल हमें आनन्‍द विभोर कर रहा है।

पंचमहल की माटी को सुवासित करने जन-जन की बोली पंचमहली को हिन्‍दी साहित्‍य में स्‍थान दिलाने, संस्‍कृत के महाकवि भवभूति की कर्मभूमि पर सन्‍त प्रवर श्री श्री 1008 श्री कन्‍हर दास जी महाराज सम्‍वत् 1831 में ग्‍वालियर जिले की भाण्‍डेर तहसील के सेंथरी ग्राम के मुदगल परिवार में जन्‍मे।

सन्‍त श्री कन्‍हरदास जी के जीवन चरित्र के संबंध में जन-जन से मुखरित तथ्‍यों के आधार पर श्री खेमराज जी रसाल द्वारा ‘’कन्‍हर सागर’’ में पर्याप्‍त स्‍थान दिया गया है। श्री वजेश कुदरिया से प्राप्‍त संत श्री कन्‍हर दास जी के जीवन चरित्र के बारे में उनके शिष्‍य संत श्री मनहर दास जी द्वारा लिखित प्रति सबसे अधिक प्रामाणिक दस्‍तावेज है उसे ही पदमाल से पहले प्रस्‍तुत कर रहे हैं।

कन्‍हर पदमाल के पदों की संख्‍या 1052 दी गई है लेकिन उनके कुल पदों की संख्‍या का प्रमाण--

सवा सहस रच दई पदमाला।

कृपा करी दशरथ के लाला।।

के आधार पर 1250 है। हमें कुल 1052 पद ही प्राप्‍त हो पाये हैं। स्‍व. श्री दयाराम कानूनगो से प्राप्‍त प्रति से 145 पद श्री रसाल जी द्वारा एवं मुक्‍त मनीषा साहित्यिक एवं सांस्‍कृतिक समिति द्वारा श्री नरेन्‍द्र उत्‍सुक के सम्‍पादन में पंच महल की माटी के बारह पदों सहित शास्‍त्रीय संगीत की धरोहर

तीस रागनी राग छ:, रवि पदमाला ग्रन्थ।

गुरू कन्‍हर पर निज कृपा, करी जानकी कन्‍थ।।

विज्ञजनों को समर्पित करने एवं मर्यादा पुरूषोत्‍तम श्री राम के जीवन की झांकी की लीला पुरूषोत्‍तम श्री कृष्‍ण का जीवन झांकी से साम्‍य उपस्यित करने में बाबा कन्‍हर दास जी पूरी तरह सफल रहे हैं।

डॉ0 नीलिमा शर्मा जी जीवाजी विश्व विद्यालय ग्वालियर से शास्‍त्रीय संगीत की धरोहर कन्‍हर पदमाल पर शोध कर चुकी हैं।

सन्‍त प्रवर श्री श्री 1008 श्री कन्‍हर दास जी महाराज का निर्वाण एक सौ आठ वर्ष की वय में चैत्र शुक्‍ल, श्री रामनवमी रविवार सम्‍वत् 1939 को पिछोर में हुआ।

नगर निगम संग्रहालय ग्‍वालियर में श्री कन्‍हर दास पदमाल की पाण्‍डुलिपि सुरक्षित वसीयत स्‍वरूप रखी हुई है। श्री प्रवीण भारद्वाज, पंकज एडवोकेट ग्‍वालियर द्वारा पाण्‍डुलिपि की फोटो प्रति उपलबध कराने में तथा परम सन्‍तों के छाया चित्र उपलबध कराने में श्री महन्‍त चन्‍दन दास छोटी समाधि प्रेमपुरा पिछोर ने जो सहयोग दिया है इसके लिए हम उनका हृदय से आभार मानते हैं।।

पंचमहली बोली का मैं अपने आपको सबसे पहला कवि, कथाकार मानता था लेकिन कन्‍हर साहित्‍य ने मेरा यह मोह भंग कर दिया है।

इस सत् कार्य में मित्रों का भरपूर सहयोग मिला है उनका हम हृदय से आभार मानते हैं। प्रयास के बावजूद प्रकाशन में जो त्रुटियां रह गई हैं उसके लिए हम सुधी पाठकों से क्षमा चाहेंगे।

रामगोपाल भावुक

दिनांक 16-4-97 श्री राम नवमी सम्‍पादक

राग – भोपाली

मन कहना हरी – हरी सुभ, निकसी जाति घरी।।

होउ सुचेत हेत करि अपनौ, नातर जाइ बिगरी।।

अब कब सुमिरौ रे मनवा, हित की बात खरी।।

कन्‍हर विनवौ जन रघुवर के, को जग पार परी।।861।।

मन तूं फिरि – फिरि फेरि फिरानौ।।

भ्रमित – भ्रमित मति ज्ञान भुलानौ, काम क्रोध जग तानौ।।

राम सुधा रस बिसरि गयौ सठ, नीच कीच मैं सानौ।।

कन्‍हर हरि पद जपत रहत जो, सोई नर पार परानौ।।862।।

राग – झंझौटी

हमरौ मन मत मानत नाहीं।।

धावत रहत दसौ दिसि बस भ्रम, बंधौ जाय तह ताहीं।।

बिन आदर कादर ज्‍यों डोलत, मूढ़ नहीं सकुचाहीं।।

कन्‍हर बिसरि गयौ नरहरि पद, ताते त्रास त्रसाहीं।।863।।

राग – धनाश्री, ताल – त्रिताल

मन तूं नीच मीच मचि सरनौ।।

सीख सिखावन रहौ अपनी, सज्‍जन संग भुलानौ।

बिसरी सु‍मति कुमति पथ लीनौ, विषय बासना सानौ।।

कन्‍हर वेद रटत जस जाको, सो हरि पद जप जानौं।।864।।

मन अघ जग सौं पार परौ।।

कठिन कराल बहति भव धारा, हरि पद तरनि तरौ।।

सकल अविद्या विद्या डारी, ताते अधिक डरौ।।

कन्‍हर राम नाम रक्षा करता, ताको ध्‍यान धरौ।।865।।

सुनियौ जी राम मन कौं लागत नाहीं रंग।।

भ्रम बस भ्रमत कहौ नहिं मानत, जैसे गगन पतंग।।

थिरता लहत न तूं अपद सेवत, निसि – दिन रहत दुचंग।।

कन्‍हर जतन करत ही हारौ, छिन – छिन उठत उछंग।।866।।

मन तूं मानि जपौ रघुवर कौ।।

बार – बार मैं तोहि समझाऊं, तकौ चरन रज कर कौ।।

हरि बिन और तोर नहिं कोई, नहिं होना घर – घर कौ।।

कन्‍हर राम नाम धन धरि उर, पार करन भव सर कौ।।867।।

मन तूं राम नाम रचना।।

ऐसौ समय बहुरि नहिं पैहे, क्‍यों करि भ्रम वश परना।।

सदा विमुख रहत जे जग में, फिरि – फिरि भव तचना।।

कन्‍हर जीव चराचर जहं लगि, माया कृत सचना।।868।।

राम भजन बिन जीवन नाहीं।।

ऐसी समझ समझ मन मेरे, वृथा दिवस निसि जाहीं।।

तजि हरि जीव बहुत देख पावत, जनम मरन भ्रम माहीं।।

कन्‍हर सीताराम नाम कहि, फिरि नहिं तपनि तपाहीं।।869।।

रा्ग – धनाश्री, ताल – त्रिताल

राम नाम मन मति बिसरावै रे।।

यह वैपार सार या जग महं, चलत राह सुख पावै रे।।

हासिल हास होति नहिं वा दिन, ता दिन काल दबावै रे।।

पूंजी बढ़ावै निसि दिन धावै, तामै पल न घटावै रे।।

ऐसी समुझ करौ कर अपनी, बीच नहीं अटकावै रे।।

कन्‍हर सांच आंच अब नाहीं, जम गन झपट न ल्‍यावै रे।।870।।

हरि सुमरौ नर जनम सम्‍हारौ।।

मुक्ति द्वार तन मन नहिं पाहौ, ताय वृथा मति हारौ।।

ऐसो समय बहुरि नहिं पाहौ, याते कहत सवारौ।।

कन्‍हर राम नाम कह धरि उर, चलत लगत नहिं झारौ।।871।।

हरि सुमिरौ रे मनवा बासर बीतै।।

जग सग झूठौ नातौ हरि सांचौ, सदा अदा सब जीते।।।

मान नीति यह नी‍की, रचे पचे नर कीते।।

कन्‍हर तकौ सरन रघुवर कौ, सो नहिं सांच्‍य सचीते।।872।।

राग – सोहनी, ताल – त्रिताल

चारि दिना का मन मेला।।

राम नाम कौ सुमिरन करि लै, झूठौ जग कौ भेला।।

अंतकाल सब छोडि़ – छोडि़, करि यौं मध कौ डेला।।

कन्‍हर फिरि कोऊ बात न बूझत, सुनत नहीं हेला।।873।।

कब मानै मन तनक हमारी।।

बासर बहुत कहत मोहि बीते, नैक न मति अनुसारी।।

ऐसी बानि परी पर तोकौं कस, अब टरति न टारी।।

कन्‍हर जपत नाम रघुवर का, आदि अंत हितकारी।।874।।

मानउ मन हरि पद सुमिरि सबेरौ।।

जौ भये चाहै पार वारि भव, तौ मति करहि अबेरौ।।

अब कहत – कहत कब सुधरै, छिन महं होय निबेरौ।।

कन्‍हर फिरि पीछे पछिताहौ, जब होय काल दबेरौ।।875।।

राग – भैरौं

हरि सुमिरन मन डोरी लगै कब तोरी।।

बहुत दिवस बसि – बसि कह कीनौं, कही न मानी मोरी।।

अबहूं समझि – समझि विष सिख तजि, लगि जा प्रभु पद ओरी।।

कन्‍हर छवि अवलोकि दृगन भरि, रघुवर जनक किसोरी।।876।।

राग- हिंडोल

प्रात राग वर भैरव गाई।।

भैरवी विभाकरी गुनकरी गूजरी, विलारी कहनि सुहाई।।

देव गंधार गंधार विलवर, देस विभास निकाई।।

सुघरी सुहावनी सूहौ सूही, बहुली तान सुनाई।।

भेद अनेक कहा लगि बरनौं, बिन हरि कृपा न पाई।।

नृप दसरथ की पुत्र वधू पुनि, कन्‍हर के मन भाई।।877।।

राग – मेघकौ, ताल – चौताला

तू मन राम नाम गुन गासी।।

आसावरी बरारी टोड़ी, सिंधुवी श्री मन भासी।।

पंचम सुध्‍ध सलंक बसंत षट, सुभ धार सुपासी।।

भीम परासी रूप मंजरी, षट मंजरी सुहासी।।

सर सरेवा अरू सुवसंती, ऐसी छवि उर आसी।।

कन्‍हर राम कृपा करि जा पर, ता कह सब नियरासी।।878।।

रघुवीर की छवि छटा निरखि, हर्षि – हर्षि मेघ राग गाइया।।

जै जैवंती गौंड़ गिरी सारंग चौ धूरिया।।

खंभावती निर्षिगती सुंदर सुख पाइया।।879।।

सोभित सावंत नट मोद मल्‍हार गौड़ मध्‍यमा,

धगाइ गाइ आनंद उर ल्‍याइया।।

राग देव गिरी गौंड़ बतीस कवनकु कब जपि करि,

मधु माधवी कन्‍हर हरषाइया।।880।।

राग – दीपक कौ परिवार

गौरी गौरा विहांग विजया अरू पूरिया निलावती,

गती समुझि सुंदर मन भाउ रे।।

गौर राग हैम राग खैम राग कल्‍यान नरचर नाटक,

लटक मधुर – मधुर छाउ रे।।

लछिमावती विहाग अहेरी चौराष्‍ट की,

माझि सिवराष्‍ट्र की, कन्‍हर उर ल्‍याउ रे।।881।।

राग – मालकोस, ताल – त्रिताल

मन मेरे हरिगुन जपिया रे।।

कान्‍हरौ केदारौ मारू लसत अढ़ानौ, सुंदर विहांग वर उर पगिया रे।।

संकरा भरनि संकरा करनि गौरी संकर, अरन जल धर रचिया रे।।

धरि – धरि ध्‍यान राम गुन गावत, तिनके मन की भय भगिया रे।।

कन्‍हर हरि पद रहत पराइन ता कह, जग भ्रम नहिं ठगिया रे।।882।।

अरे मन सुमिरे नहीं रघुवीर।।

निसि वासर विषइनि संग धावत, आवत नाहीं धीर।।

आसा तृस्‍ना त्रसत कारौ मन, स्‍वमत भयौ भव भीर।।

कन्‍हर राम नाम बोहित कहि, लगे बहुत वा तीर।।883।।

त्रिभुअन पति रामचन्‍द्र जपि रे मन प्रानी।।

ऐसो जग और कौन दीननि को दीनबन्‍धु मुरारी।।

रूप रिसावर विदित कृपा आनी।।

भटआरी सरसुती मनोहर पृथक – पृथक कहि गानी।।

वैरागी गौ चरन परज सू अहंग विहंग बखानी।।

नागवती अर्धटी सोहनी रामकली वर जानी।।

कन्‍हर ललित मनोहर बरनी सुर गुनि सुर पहिचानी।।884।।

राग – झंझौटी

कब तै कमति तजैगो मन रे।।

मानुष देह नेह बस खोवे, सुत दारा सुख खन रे।।

बहुत जनम बहुतनि जुग, फिरि – फिरि पाइ – पाइ तन तन रे।।

कन्‍हर राम नाम कह सुमिरत, पार होत जग जन रे।।

मन अचेत हरि नामै जपि रे।।

अधम उधार राम शरणागत, सरन ताहि तूं तकि रे।।

चलती बार बहुत पछिताइगौ, बिसै बासना तजि रे।।

कन्‍हर राम नाम पद पंकज, तिन्‍हैं सदा उर रचि रे।।885।।

अरे मन जड़ मति होइ दिमाना।।

चारि दिना कौं जग कौ कारन, देस वहीं फिरि जाना।।

निसि – बासर जोबन के मद में, क्‍यों तूं फिरतु भुलाना।।

कन्‍हर कोई काम न आवै, सदा राम गुन गाना।।886।।

सीताराम कहौ मन भेरे।।

नर तन बार – बार नहिं मिलिहैं, कहौ ताइ मैं टेरे।।

ऐसी और न और जक्‍त में, देखे ख्‍याल घनेरे।।

समझि – समझि तूं समझि सबेरौ, काज होइ सब तेरे।।

जाते अन्‍त दाउ नहिं रैहैं, लगत नहीं भट भेरे।।

कन्‍हर नाम कहत बहुतेरे, बहे जात ते फेरे।।887।।

राग – झंझौटी

कासौं कहौं रीति इ‍ह मन की।।

स्‍वारथ हेत फिरत है धायौ, चाह बड़ी धन की।।

हारि परौ मैं कहौ न मानत, खबरि नहीं तन की।।

कन्‍हर राम नाम के सुमिरत, भय न रहत जम की।।888।।

सुमिरि मन सीता राम हरी।।

अब जिनि देर करौ कह मानौ, निकसी जाति घरी।।

नाम प्रताप प्रगट या जग में, जल पर सिला तरी।।

मीरा हेत कियौ विष अमृत, पीवत हरषि भरी।।

गरूड़ विहाइ पियादै धाये, तारौ ग्राह करी।।

कन्‍हर करि विस्‍वास राम कौ, ताकी सब सुधरी।।889।।

राग – देस, ताल – त्रिताल

निमिष मन राम नाम नहिं लीनौं।।

बीति गयौ सब जन्‍म अकारथ, काज नहीं सुभ कीनौं।।

सुत दारा के घेर फेर में, खोय दिये पन तीनौं।।

कन्‍हर बिना भजन सियावर के, धृग – धृग नर जीनौं।।890।।

मन की जानत सीताराम ।।

सबरी ओर कृपा करि हेरे, तारी कुबजा बाम।।

कौन नेम व्रत कियौ गीध ने, ताइ दियौ निज धाम।।।

अजामेल सौ पार कियौ दुज, सुत हित लीनौ नाम।।

जा विधि लाज रही द्रोपति की, सोई कीनौ काम।।

कन्‍हर अधिक नाम की महिमा, सुमिरि लहत विश्राम।।891।।

कहु मन सीताराम हरी।।

अब तौ देर करै मति येरे, निकसी जाति घरी।।

और उपाइ नहीं अब दीसत, मोकौं समुझि परी।।

भनत पुरान भागवत गीता, तिन्हि – तिन्हि की सुधरी।।

पार भये भव बार न लागी, अर्ध नाम उचरी।।

कन्‍हर नाम प्रभाव प्रगट जस, सुनि जमराज डरी।।892।।

हरि सौं मन करि लै पहिचानी।।

चलती बार अटक ना रैहै, पकरे नहिं कोऊ तानी।।

अभय करत फिरि भय नहिं राखत, ऐसौ और न दानी।।

कन्‍हर समझि कहत मैं तो सौं, हरि जसु हाथ निसानी।।893।।

राग – सारंग

सियावर यह गति है मन की।।

भूलौ फिरत पंथ नहिं लागत, खबरि नहीं तन की।।

कछू कहत फिरि कछू करत है, बात नहीं ढंग की।।

कन्‍हर हारि परौ नहिं मानत, सुरति नहीं छिन की।।894।।

न हारौ रे मन करत अनीति।।

काम क्रोध मद लोभ मोह बसि, इन्द्रिन लीनौ जीति।।

भ्रम बस भयौ बावरौ बौरा, सुनी न समझी नीति।।

कन्‍हर राम संजीवन जीवन, झूठी जग की प्रीति।।895।।

राग – भैरौं, ताल – त्रिताल

जपि मन हरि पारषद पियारे।।।

विस्‍वक सैन अरू इजै वर, प्रबल महाबल भारे।।

नदं सुनंद सुभद्र भद्र जग, जन रोगादिक टारे।।

चंड प्रचंड कुमुद कुमदा वर, सुंदर करत सुखारे।।

सील सुसील सुसैन मनोहर, करत अभय भय हारे।।

कन्‍हर राम चरन अवलोकत, छिन पल हूं न बिसारे।।896।।

सदा राम कहु रे मन मेरे।।।

आवागमन व्‍याल जा जग में, ताते कहौ सबेरे।।

नर तन बार – बार न मिलिहै, समझि – समझि तूं ऐरे।।

कन्‍हर राम सियावर सुंदर, नहीं करौ अब देरे।।897।।

कहि मन राम जन्‍म जाइ बीतौ।।

दिवस जात ते आवत नाहीं, नहिं कीजै कर री‍तौ।।

बालापन पन तरून गमायौ, जरा रहौ अब कीतौ।।

कन्‍हर सुमिरि सियावर सुंदर, सो जन जग में जीतौ।।898।।

मन तूं सुमिरै राम कबै।।

फिरि पीछे पछिताउ होइगौ, तातै समझि अबै।।

नीच करम तै बीच करौ, अब त्‍यागौ बिसै सबै।।

कन्‍हर चलती बार बार तोइ, मिलिहैं नहीं जबै।।899।।

सुमिरौ कौसिल्‍या सुत रामै।।

अब तौ देर करै मति येरे, त्‍यागि – त्‍यागि मद कामै।।

इह सिख मानि लेउ मन सुंदर, मति तूं भ्रमै नसामै।।

कन्‍हर निरखि राम पद पंकज, छोडि़ – छोडि़ पथ बामै।।900।।

राग – भैरों

संकर हम पर करहु सहाई।।

तुम सम और नहिं कोऊ, जग महं राम भक्ति सुखदाई।।

गंध धार सुभ लसति जटनि महं, चन्‍द्र भाल दुति छाई।।

अंग विभूति माल मुंडनि की, पाइ पदम झलकाई।।

बाघाम्‍बर आसन पर राजत, ध्‍यान मगन मन ल्‍याई।।

कन्‍हर वेद भेद नहिं पावत, ऐसी प्रभु प्रभुताई।।901।।

जय – जय गिरिजापति कैलासी।।

भस्‍म अंग सिर गंग बिराजत, चन्‍द्र भाल दुति रासी।।

बाघाम्‍बर वर लसत मनोहर, राम नाम गुन गासी।।

भूषन व्‍याल माल मुंडनि की, जटा जूट सिर जासी।।

तन वर लसत भेष जोगी वर, हर विपदा अविनासी।।

कन्‍हर वेद भेद नहिं पावत, गुन गन कहि हरषासी।।902।।

पारवती पति प्‍यारौ वही बैल्‍ वारौ।।

आक धतूरौ बेल की पाती, तापर रहत सुखारौ।।

गौर अंग वर भस्‍म रमाये, चन्‍द्र गंग सिर धारौ।।

व्‍याघ्र चर्म उर सेली श्रृंगी, भूषन व्‍याल सम्‍हारौ।।

कर त्रिसूल छवि छटा जटनि की, जोगी रूप निहारौ।।

कन्‍हर ध्‍यान परायण सुंदर, रघुवर नाम उचारौ।।903।।

जपना रे मन प्रानी बड़े शिव दानी।।

राम नाम उपदेस करत हैं, हृदे बहुत सुख मानी।।

ऐसौ समरथ और न जग में, बरनत वर मुनि ग्‍यानी।।

कन्‍हर वेद भेद नहिं पावत, सारद सेस बखानी।।904।।