कन्‍हर पद माल - शास्त्रीय रागों पर आधारित पद - 23 ramgopal bhavuk द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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कन्‍हर पद माल - शास्त्रीय रागों पर आधारित पद - 23

कन्‍हर पद माल - शास्त्रीय रागों पर आधारित पद. 23

सन्‍त प्रवर श्री श्री 1008 श्री कन्‍हर दास जी महाराज कृत

(शास्त्रीय रागों पर आधारित पद.)

हस्‍त‍लिखित पाण्‍डुलिपि सन् 1852 ई.

सर्वाधिकार सुरक्षित--

1 परमहंस मस्‍तराम गौरीशंकर सत्‍संग समिति

(डबरा) भवभूति नगर (म.प्र.)

2 श्री श्री 1008 श्री गुरू कन्‍हर दास जी सार्वजनिक

लोकन्‍यास विकास समिति तपोभूमि कालिन्‍द्री, पिछोर।

सम्‍पादक- रामगोपाल ‘भावुक’

सह सम्‍पादक- वेदराम प्रजापति ‘मनमस्‍त’ राधेश्‍याम पटसारिया राजू

परामर्श- राजनारायण बोहरे

संपर्कः -कमलेश्वर कॉलोनी, (डबरा) भवभूति नगर, जिला ग्वालियर (म0प्र0)

पिन- 475110 मो0 9425715707 tiwariramgopal5@gmail.com

प्रकाशन तिथि- 1 चैत्र शुक्‍ल, श्री रामनवमी सम्‍वत् 2045

श्री खेमराज जी रसाल द्वारा‘’कन्‍हर सागर’’ (डबरा) भवभूति नगर (म.प्र.)

2 चैत्र शुक्‍ल, श्री रामनवमी सम्‍वत् 2054

सम्‍पादकीय--

परमहंस मस्‍तराम गौरी शंकर बाबा के सानिध्‍य में बैठने का यह प्रतिफल हमें आनन्‍द विभोर कर रहा है।

पंचमहल की माटी को सुवासित करने जन-जन की बोली पंचमहली को हिन्‍दी साहित्‍य में स्‍थान दिलाने, संस्‍कृत के महाकवि भवभूति की कर्मभूमि पर सन्‍त प्रवर श्री श्री 1008 श्री कन्‍हर दास जी महाराज सम्‍वत् 1831 में ग्‍वालियर जिले की भाण्‍डेर तहसील के सेंथरी ग्राम के मुदगल परिवार में जन्‍मे।

सन्‍त श्री कन्‍हरदास जी के जीवन चरित्र के संबंध में जन-जन से मुखरित तथ्‍यों के आधार पर श्री खेमराज जी रसाल द्वारा ‘’कन्‍हर सागर’’ में पर्याप्‍त स्‍थान दिया गया है। श्री वजेश कुदरिया से प्राप्‍त संत श्री कन्‍हर दास जी के जीवन चरित्र के बारे में उनके शिष्‍य संत श्री मनहर दास जी द्वारा लिखित प्रति सबसे अधिक प्रामाणिक दस्‍तावेज है उसे ही पदमाल से पहले प्रस्‍तुत कर रहे हैं।

कन्‍हर पदमाल के पदों की संख्‍या 1052 दी गई है लेकिन उनके कुल पदों की संख्‍या का प्रमाण--

सवा सहस रच दई पदमाला।

कृपा करी दशरथ के लाला।।

के आधार पर 1250 है। हमें कुल 1052 पद ही प्राप्‍त हो पाये हैं। स्‍व. श्री दयाराम कानूनगो से प्राप्‍त प्रति से 145 पद श्री रसाल जी द्वारा एवं मुक्‍त मनीषा साहित्यिक एवं सांस्‍कृतिक समिति द्वारा श्री नरेन्‍द्र उत्‍सुक के सम्‍पादन में पंच महल की माटी के बारह पदों सहित शास्‍त्रीय संगीत की धरोहर

तीस रागनी राग छ:, रवि पदमाला ग्रन्थ।

गुरू कन्‍हर पर निज कृपा, करी जानकी कन्‍थ।।

विज्ञजनों को समर्पित करने एवं मर्यादा पुरूषोत्‍तम श्री राम के जीवन की झांकी की लीला पुरूषोत्‍तम श्री कृष्‍ण का जीवन झांकी से साम्‍य उपस्यित करने में बाबा कन्‍हर दास जी पूरी तरह सफल रहे हैं।

डॉ0 नीलिमा शर्मा जी जीवाजी विश्व विद्यालय ग्वालियर से शास्‍त्रीय संगीत की धरोहर कन्‍हर पदमाल पर शोध कर चुकी हैं।

सन्‍त प्रवर श्री श्री 1008 श्री कन्‍हर दास जी महाराज का निर्वाण एक सौ आठ वर्ष की वय में चैत्र शुक्‍ल, श्री रामनवमी रविवार सम्‍वत् 1939 को पिछोर में हुआ।

नगर निगम संग्रहालय ग्‍वालियर में श्री कन्‍हर दास पदमाल की पाण्‍डुलिपि सुरक्षित वसीयत स्‍वरूप रखी हुई है। श्री प्रवीण भारद्वाज, पंकज एडवोकेट ग्‍वालियर द्वारा पाण्‍डुलिपि की फोटो प्रति उपलबध कराने में तथा परम सन्‍तों के छाया चित्र उपलबध कराने में श्री महन्‍त चन्‍दन दास छोटी समाधि प्रेमपुरा पिछोर ने जो सहयोग दिया है इसके लिए हम उनका हृदय से आभार मानते हैं।।

पंचमहली बोली का मैं अपने आपको सबसे पहला कवि, कथाकार मानता था लेकिन कन्‍हर साहित्‍य ने मेरा यह मोह भंग कर दिया है।

इस सत् कार्य में मित्रों का भरपूर सहयोग मिला है उनका हम हृदय से आभार मानते हैं। प्रयास के बावजूद प्रकाशन में जो त्रुटियां रह गई हैं उसके लिए हम सुधी पाठकों से क्षमा चाहेंगे।

रामगोपाल भावुक

दिनांक 16-4-97 श्री राम नवमी सम्‍पादक

राग – देस, ताल – त्रिताल

रे मन मानि बहुत समुझायौ।।

सब सतसंगी स्‍वारथ ही के, क्‍यों करि भरम गमायौ।।

ग्रसौ मोह मद फिरत भुलानौ, कहा लाभ तूं पायौ।।

कन्‍हर चेति मानि जपि रामै, जग में जन्‍म सिरायौ।।765।।

मन चहूं ओर झकोर तरे।।

मानत नहीं फिरत है धावत, काम क्रोध मद लोभ भरे।।

रसना राम नाम नहिं ध्‍यावत, कस भ्रमना उबरे।।

कन्‍हर राम प्रभू कौ जप ले, भव उदधि मग उतरे।।766।।

हरि जग के भय दूर करौ रे।।

शरणागत हूं त्राहि माम प्रभु, जग के कष्‍ट हरौ रे।।

नर तन ताई जाहि जिनि खोवै, सुमिर लै अबहूं न सरौ रे।।

कन्‍हर समुझि – समुझि तोकौं, मोह फंद तू वृथा परौ रे।।767।।

मन जपि सियाराम हितकारी, दीननि विपति निवारी।।

गीध ब्‍याध सौंरी गज गनिका, मेटे सब दुख भारी।।।

अपनाये सरनागत राखे, कीन्‍हे सबै सुखारी।।

बालि त्रास सुग्रीव विकल भयो, तुम्‍हरी ओर निहारी।।

मेटौ दुख सुख दयौ सखा कहि, करौ अभय भय टारी।।

मिलो विभीषन रावन भय करि, कहि लंकेस सम्‍हारी।।

कन्‍हर सुनि करि विरद रावरौ, आयौ सरन पुकारी।।768।।

हे मन अहंकार नहिं पागौ।।

भूलौ फिरत पतित अभिमानी, निसा घोर नहिं जागौ।।

माया के बस रहत भुलानौं, लोभ मोह नहिं त्‍यागौ।।

कन्‍हर सूझि परी नहिं तोकौं, हरि की ओर न लागौ।।769।।

मन रघुवर छिन मति बिसरावै।।

मनुष देह सुमिरन कौं दीनी, निस दिन गुन गन गावै।।

आदि अंत कोउ काम न आवै, मूढ़ वृथा तूं क्‍यों भटकावै।।

कन्‍हर अंत काल जब आवत, कोऊ नहिं कितहूं दिखावै।।

मन रे राम नाम रट कीजै, प्रभु की ओर लखीजै।।

सर समुद्र सब भरे बहुत है, गंग सुधा रस पीजै।।

सुन्‍दर ध्‍यान लखौ निस वासर, यही मतौ उप लीजै।।

कम्‍हर छिन – छिन होत शरीरा, शरण राम की कीजौ।।770।।

येक दिन चलना है मन रे।।

राम नाम को सुमिरन करि ले, यही करौ मन रे।।

झूठौ है सब ख्‍याल जगत कौ, ज्‍यों सपनौ छिन रे।।

कन्‍हर ओट लेउ सियवर की, हनै न जम गन रे।।771।।

राग – गौंड़

मन मूढ़ भयौ अभिमानी।।

धावत रहत मोह भ्रम भूलौ, नीच विषय मति सानी।।

निगम नीति की मानतु नाहीं, कबहूं न होत‍ गिलानी।।

कन्‍हर हारि परौ नहिं लागत, प्रभु की ओर जुआनी।।772।।

राग – देस, ताल – मल्‍हार

मानत नाहीं मन कौ हो भ्रम पगै री तार।।

मिलि गयौ है कठिन भयौ, उतरत रहतु जा पार।।

राम सिया पद बिन मेरें, मत पड़ नीच कर्म तकरार।।

कन्‍हर अब तू फेरि फिरै तौ, राम भजन जग सार।।773।।

राग – सोरठा, ताल – त्रिताल

अरे मन बावरे तूं मानि लै कही।।

काम क्रोध मद लोभ लहरि मैं, भयौ न थिरक बही।।

ऐसेई भ्रमतु रहतु या जग में, जो झख लहि रही।।

अबहूं नाहिं लखे करूनानिधि, बीता जन्‍म सही।।

कन्‍हर अब तूं बहुत भुलानौ, प्रभु पद क्‍यों न गही।।774।।

बिन हरि भजै लरै जम कूटै।।

हरि के भजन बिना मन हो, भव बन्‍धन नहिं छूटै।।

आना – जाना रहत सदाई, फिरि – फिरि जम लगि लूटै।।

कन्‍हर राम नाम जग सांचा, जग नाते सब झूटै।।775।।

राग – गौरी, ताल – त्रिताल

राम नाम पतवार धरे से, भव तर पार सही।।

मन तू भूल नहीं ऐसो करि व्‍यापार जगत में, तातै मुक्ति गही।।

राम भजन सुभ सौदा करि लै, भय नहिं जम की फांस लही।।

कन्‍हर अंत काल बहु भय लखि, हरि उर चरन दाम यही।।776।।

राग – रागश्री, ताल – त्रिताल

मन मानौ कही हरि सुमिरन की बेर यही।।

बीतौ दिवस रहौ अब थोरौ, राम सुधा रस पीउ सही।।

भूलो कैसो फिरतु बावरे कैसी तू जह गहनि गही।।

कन्‍हर प्रभु के भजन बिना रे, नहिं कोऊ विश्राम लही।।777।।

मनोरथ मन कौ लागौ नीच।।

भव सागर में बहौ जातु हौ, परौ भौंर भर्मनि के बीच।।

अब मोहिइ आर – पार नहिं सूझत, मोह मगर पकरिहैं घींच।।

कन्‍हर राम नाम बोहि उर सजल, जपन हरि जल सींच।।778।।

राग – ईमन

राम सिया मन तूं जपना रे।।

जग में जगय व्रत तप नहिं होई, भूलि वृथा कहु क्‍यों पचना रे।।

षट श्रुति चारि पुरान अठारा, मंत्र जंत्र स‍ब ही रटना रे।।

कन्‍हर प्रभु कौ नाम परायन, ताकौ ध्‍यान सदा धरना रे।।779।।

राग – पूर्वी, ताल – त्रिताल

तन मन सीताराम बसइया।।

ते नर रूप मुक्ति पा जग में, चरन कमल उर लइया।।

निस दिन रहत मगन मन माते, नयन छटा छवि छइया।।

कन्‍हर जे जन धन्‍य जक्‍त में, जिनि प्रभु सरन तकइया।।780।।

प्रभु बिन धृग जीवन है मनवा, तापै क्‍यूं इठलाये रे।।

अशरण शरण गहे बिन जग में, भव से पार न पाये रे।।

कोई सत्‍य कोई झूठ कहत है, सबनै मिलि कै गाये रे।।

कन्‍हर हरि कौ नाम सुधा रस, ताकौ क्‍यों बिसराये रे।।781।।

अरे तू मानत नहीं मन रे।।

क्‍यों तू फिरत नीच नीचनि में, खबरि नहीं तन रे।।

राम सिया कौं मति बिसरावै, तू छिन पलहू मन रे।।

कन्‍हर तो सौं अरज करतु है, कढ़े जात दिन सिगरे।।782।।

राग- झंझौटी, ताल – जतकौ

मन तेरे नहि लागी हरि सुमिरन की चोट।।

जिन्‍है लगी ते ही जन बांधे, प्रभु चरननि की ओट।।

नाम प्रताप कहा लगि बरनौ, सुनि लई अरज कपोत।।

कन्‍हर भव ते पार होइ पर, हरि सनमुख ही होत।।783।।

मन रघुवर कौं क्‍यों न जपै रे।।

तजि हरिचरन आन गति नाहीं, अब तूं मूढ़ वृथा कलपै रे।।

सुभ अरू असुभ करै फल पावति, सब निस दिन संग तपै रे।।

कन्‍हर चरन सरन अब ताकौ सुनि, करि सबरे चोर चपै रे।।784।।

राम सिय के भजन बिना मन जन्‍म गयौ सब बीति।।

कुटम लोग काउ काम न आवै, जिनि करी इनसौं प्रीति।।

धन अरू गेह संग नहिं जैहें, समुझि लेउ अस नीति।।

कन्‍हर प्रभु को लेउ सम्‍हारी, यही निगम की रीति।।789।।

मन मेरे रामै जिनि बिसरै।।

सुत वित नारि काम नहिं आवत, संग न कोई करै।।

ये सब हैं जौलौ के साथी, जब लगि स्‍वांस भरै।।

कन्‍हर राम सुधा रस पी के, भव से पार परै।।790।।

रघुकुल मनिकौ राखि हृदे में, भवन भयौ अब झूना।।

कन्‍हर आनि उपाय नहीं है, हरि सुमिरौ दिन दूना।।

ये मन मूढ़ कहौ नहिं मानत, निस – दिन बहुत सिखायौ।।

माया मद भूलि रहौ, नाम रूप बिसरि गयौ,

बीधौ भव जालन में फंदनि उरझायौ।।

फिरि – फिरि बेहाल भयौ सिर धुनि पछितायौ,

नाहक तैं मूढ़ वृथा जनम गमायौ।।

कन्‍हर सुनि अबहूं मानि अंत काल आयौ,

राम नाम करि उचार क्‍यों करि बौरायौ।।791।।

राम नाम जपि तूं मन मेरे।।

सुंदर ध्‍यान धरत जे निस दिन, जग में रहत अनेरे।।

तुलसी सूर हरिचंद विदुर से, चरन सरन सब हेरे।।

कन्‍हर ताते तको चरन पद, शरन राम उर चेरे।।792।।

सियावर की है छवी माधुरी, तापै तू मनहार।।

शरण गहौ रघुवर की शीतल, उनसे कौन उदार।।

बार – बार कहि – कहि सरनागत, करूना वचन उचार।।

कन्‍हर पुनि प्रभु कृपा करैंगे, भव भय भार हरैं ततकार।।793।।

अस कस मन खोटौं मेरौ।।

करमनि के बस रहतु रैनि दिन, फिरतु नहीं फेरौ।।

हारि परौ कहि – कहि करूनानिधि, सुनत नहीं टेरौ।।

कन्‍हर की सुधि लेउ सियावर, दीन जानि हेरौ।।794।।

राग – पीलू

मन रट राम नाम कब लगिहै।।

तब लगि मूढ़ चैन नहिं पैहैं, भौंर भरम के पगिहै।।

कहूं नहीं बिसराम लहैगो, तिहुं ताप मैं तपिहै।।

कन्‍हर बिना कृपा सियावर की, कोउ पार नहिं झपिहै।।795।।

मन तै कब मानौगो मोरी, बलि बलि जाउं मैं तोरी।।

खबरि रहौ बेखबरि होउ मति, मति कीजै बरजोरी।।

जग जीवन मह भ्रम वश डोलै, काल सवांस हन केश मरोरी।।

कन्‍हर जग मग भूल भुलैया, शरण राम कर ओरी।।796।।

जग मग आना – जाना ताना,, ऐहि यंत्र माल से बच रे।।

जीवन उदधि मोह भ्रमनन में, राम सहारा जप रे।।

जग व्‍यौहार रैनि कौ सपनौ, ताहि जानि जिनि सच रे।।

कन्‍हर हरि गुन जपौ मनोहर, झूठौ नाच न नच रे।।797।।

मन तेरौ को करहि सहाई।।

जन्‍म वृथा विषयनि में खोयौ, सुमिरै नहिं रघुराई।।

काल फांसि जम दूत डारिहै, तोकौ कौन छुटाई।।

संपति तैं अपनी करि मानी, सै सब संग न जाई।।

सुत वनिता कोउ काम न आवत, वृथा मूढ़ भरमाई।।

कन्‍हर अंतकाल सुधि आवति, समुझि राम गुन गाई।।798।।

सीख मन नहिं मानी मोरी।।

भूलौ रहौ मोह ममता मैं, क्‍या मति भई तोरी।।

ना हरि भजौ भ्रमौ तें निस दिन, भयौ फिरौ चकोरी।।

कन्‍हर मोह भ्रमन से जागौ, शरण तकौ प्रभु ओरी।।799।।

राग – देस , ताल – त्रिताल

मनवा राम नाम रस पीना।।

त्‍यागि - त्‍यागि अब वारि विषय कह, बस मति होय जौ मीना।।

झूठौ ख्‍याल व्‍याल यौं रजु कौ, जन्‍म मरन जग कीना।।

कन्‍हर समझि जपौ सियावर कौं, छिन मति होय न विहीना।।800।।

रे मन राम ओर कब लगिहै।।

जन्‍म व्‍यतीति गयौ विषयनि संग, सोवत तै कब जगिहै।।

जब लगि ऐन चैन नहिं, पावत, बार – बार जपत गिरिहै।।

कन्‍हर पार होय तब भव ते, सांचौ रंग जब रंगिहै।।801।।

भजौ मन रे जानकी वल्‍लभ राम ।।

क्रीट मुकुट मकराकृत कुंडल नूपुर पगनि ललाम।।

भूषन बसन अंग अंगनि पर, सोभा वर सुख धाम।।

डारौउ वारि माधुरी छवि पर, कोटि – कोटि छवि काम।।

जम के दूत निकट नहिं आवत, सुनि – सुनि ऐसौ नाम।।

कन्‍हर राम लखन वैदेही, अवलोहि वसु जाम।।802।।

राग – सोहनी

मन दृढ़ करना डरना ना जी।।

जो उर धरना सोई करना, या मन की राजी।।

राम नाम कह सुमिरन करि लै, तासौ भ्रम भाजी।।

कन्‍हर दो दिन कह जह मेला, जिनि होय अघसाजी।।803।।

मन तूं समझि समारग अपना रे।।

महा मोह अज्ञान धारता, कह कस झपना रे।।

मानौं कहा कह अब तोसौं, जगम्‍हा नहिं गपना रे।।

कन्‍हर हरि – हरि नाम जपत ही, छूटत भव तपना रे।।804।।

राग – झंझौटी

मन संग कहना वहना राम सरन लहना।।

भ्रम वन फिरना थिरना रहना, चंचल अरू चहना।।

तृष्‍णा लागी मृग यौं धावा, झूठा जग गहना।।

कन्‍हर प्रभु कौ नाम सार कह, अघ मघ नहिं रहना।।805।।

मन बस गयौ राम सलोना।।

हौं तो भई बावरी डोलौं, डारि दियौ पढि़ टोना।।

लाज काज सब छूट गयो, संग कहौ सखी का होना।।

कन्‍हर विरह परे ता निस दिन, कहौ सखी कयों मोना।।806।।

राग – विभास, ताल – त्रिताल

आली मन मानत नाहीं।।

बिन देखै वह सामली मूरति, मन न लगत घर माई।।

वन प्रमोद की कुंज गलिनि में, मोहन मृदु मुसिक्‍याई।।

कन्‍हर के प्रभु कल न परति है, छवि नैननि उरझाई।।807।।

आली री मन म्‍हारौ स्‍याम कस कीन्‍हा।।

छिन येक रहौ न जात दरस बिनु, नित प्रति प्रीत नवीना।।

रही न लाज कांनि गुरज‍न की, घर वन पर तन चीन्‍हा।।

कन्‍हर के प्रभु कल न परति अब, मीन नीर बिनु दीन्‍हा।।808।।

स्‍याम ने मन बस कीनौं, देखौ आली री।।

चितवन चारू मारू मद हरनी, सुरझत नहिं झाली री।।

छवि वर छटा अटा से निरखी, म्‍हारे हिय महं साली री।।

कन्‍हर लखि कर रूप माधुरी, जनकपुरी बलिहारी री।।809।।

राम कह सुमिरन करि लै, कोई नहिं अपना।।

भ्रम बस भ्रमत जीव दुख पावत, नाहक तन तपना।।

वृथा जगत में इत उत डोलत जग माया सपना।।

कन्‍हर राम सिया पद पंकज, निसि – बासर जपना।।810।।

कहु मन राम कहौं तो सौं।।

बहु जन्‍मनि की बिगरी डगरी, सुधरति संग दो सौं।।

झूठौ जग सग संग न सांचौ, सुन्‍दर नाम भरोसौं।।

कन्‍हर पार होत अवलोकत, कसरि परै कह मोंसौं।।811।।

राग – पूर्वी, ताल – जतकौ

राम कहौ मन मीता, दिवस जाइ सब बीता।।

अस्‍त भयै फिरि वस्‍त न मिलिहैं, कहत भागवत गीता।।

चलती बार बार नहिं मिलिहैं, मायइत जमदीता।।

कन्‍हर सिया राम पद सुमिरत, छूटत भर्म सभीता।।812।।

राग- पीलू, ताल – त्रिताल

राम न जाना मन बहुत भुलाना।।

ता दिन आया कह ठहराया, अब तूं भरम डुलाना।।

करम ग्रसित मति मंद भई, निवसि नहीं अकुलाना।।

कन्‍हर राम नाम नहिं सुमिरत, जग बीते दिन होइ बुलाना।।813।।

हरि मन फिरत निकेत।।

बंधन बंधौ याहि जगत में, कौं कारन कस हेत।।

धिरता- थिरता आवत नाहीं, चलत रहत जौं प्रेत।।

बसीभूत बसि भयौ जक्‍त महं, निसदिन झूठ वदेत।।

मानौ कहौ गहौ सुभ मारग, यामैं कह तूं लेत।।

आयौ बुढ़ापौ तउ अनधापौ, केस भये सब सेत।।

खबरि न रही गए सब सुभ दिन, फिरि – फिरि भ्रम उरझेत।।

कन्‍हर राम सिया पद धरि उर, मति तू होई अचेत।।814।।

राग – पीलू, ताल – त्रिताल

मन हरि नाम कहै हित तेरौ।

ऐसी कैसी भूलनि, भूलौ, काल आइ गयो नेरौ।।

अबलौं भूल परी बहु तेरी, अबहू समझि सबेरौ।।

नाम लेत उरझे सुरझे जग, कियौ नहीं जिनि देरौ।।

पार भयै भव बार न लागी, फेरि – फेरि नहिं फेरौ।।

कन्‍हर जो न जपैगो प्रभु पद, सो करमनि कौ पेरौ।।815।।

कभी न जापै राम नाम का, भ्रमवश फिरै भुलाता।।

राम नाम तजि वृथा जगत में, क्‍यों फिरता इठलाता।।

सुपने कैसी सम्‍पति जग महं, जागे नहीं दिखाता।।

कन्‍हर झूठी भूलनि भूलौ, छिन में होइ निपाता।।816।।

राग – अड़ानौ, ताल – त्रिताल

मन तूं हरि कौं क्‍यों बिसराई।।

आदि अंत महं और न कोई, सो तोहि पार लगाई।।

जम कौं दंड सकल जग ऊपर, ताते लेत बचाई।।

जग करता भरता अरू हरता, ऐसी है प्रभुताई।।

ताकौ ध्‍यान धरौ निसि वासर, जीवन वृथा न जाई।।

मानि – मानि मैं तोहि समझावत, ऐसौ वखत न पाई।।

भूलौ फिरत खबरि नहिं तन की, करिहैं कौन सहाई।।

कन्‍हर कह भजि राम सियावर, जा कारज तूं आई।।817।।