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कन्‍हर पद माल - शास्त्रीय रागों पर आधारित पद - 19

कन्‍हर पद माल- शास्त्रीय रागों पर आधारित पद 19

सन्‍त प्रवर श्री श्री 1008 श्री कन्‍हर दास जी महाराज कृत

(शास्त्रीय रागों पर आधारित पद.)

हस्‍त‍लिखित पाण्‍डुलिपि सन् 1852 ई.

सर्वाधिकार सुरक्षित--

1 परमहंस मस्‍तराम गौरीशंकर सत्‍संग समिति

(डबरा) भवभूति नगर (म.प्र.)

2 श्री श्री 1008 श्री गुरू कन्‍हर दास जी सार्वजनिक

लोकन्‍यास विकास समिति तपोभूमि कालिन्‍द्री, पिछोर।

सम्‍पादक- रामगोपाल ‘भावुक’

सह सम्‍पादक- वेदराम प्रजापति ‘मनमस्‍त’ राधेश्‍याम पटसारिया राजू

परामर्श- राजनारायण बोहरे

संपर्कः -कमलेश्वर कॉलोनी, (डबरा) भवभूति नगर, जिला ग्वालियर (म0प्र0)

पिन- 475110 मो0 9425715707 tiwariramgopal5@gmail.com

प्रकाशन तिथि- 1 चैत्र शुक्‍ल, श्री रामनवमी सम्‍वत् 2045

श्री खेमराज जी रसाल द्वारा‘’कन्‍हर सागर’’ (डबरा) भवभूति नगर (म.प्र.)

2 चैत्र शुक्‍ल, श्री रामनवमी सम्‍वत् 2054

सम्‍पादकीय--

परमहंस मस्‍तराम गौरी शंकर बाबा के सानिध्‍य में बैठने का यह प्रतिफल हमें आनन्‍द विभोर कर रहा है।

पंचमहल की माटी को सुवासित करने जन-जन की बोली पंचमहली को हिन्‍दी साहित्‍य में स्‍थान दिलाने, संस्‍कृत के महाकवि भवभूति की कर्मभूमि पर सन्‍त प्रवर श्री श्री 1008 श्री कन्‍हर दास जी महाराज सम्‍वत् 1831 में ग्‍वालियर जिले की भाण्‍डेर तहसील के सेंथरी ग्राम के मुदगल परिवार में जन्‍मे।

सन्‍त श्री कन्‍हरदास जी के जीवन चरित्र के संबंध में जन-जन से मुखरित तथ्‍यों के आधार पर श्री खेमराज जी रसाल द्वारा ‘’कन्‍हर सागर’’ में पर्याप्‍त स्‍थान दिया गया है। श्री वजेश कुदरिया से प्राप्‍त संत श्री कन्‍हर दास जी के जीवन चरित्र के बारे में उनके शिष्‍य संत श्री मनहर दास जी द्वारा लिखित प्रति सबसे अधिक प्रामाणिक दस्‍तावेज है उसे ही पदमाल से पहले प्रस्‍तुत कर रहे हैं।

कन्‍हर पदमाल के पदों की संख्‍या 1052 दी गई है लेकिन उनके कुल पदों की संख्‍या का प्रमाण--

सवा सहस रच दई पदमाला।

कृपा करी दशरथ के लाला।।

के आधार पर 1250 है। हमें कुल 1052 पद ही प्राप्‍त हो पाये हैं। स्‍व. श्री दयाराम कानूनगो से प्राप्‍त प्रति से 145 पद श्री रसाल जी द्वारा एवं मुक्‍त मनीषा साहित्यिक एवं सांस्‍कृतिक समिति द्वारा श्री नरेन्‍द्र उत्‍सुक के सम्‍पादन में पंच महल की माटी के बारह पदों सहित शास्‍त्रीय संगीत की धरोहर

तीस रागनी राग छ:, रवि पदमाला ग्रन्थ।

गुरू कन्‍हर पर निज कृपा, करी जानकी कन्‍थ।।

विज्ञजनों को समर्पित करने एवं मर्यादा पुरूषोत्‍तम श्री राम के जीवन की झांकी की लीला पुरूषोत्‍तम श्री कृष्‍ण का जीवन झांकी से साम्‍य उपस्यित करने में बाबा कन्‍हर दास जी पूरी तरह सफल रहे हैं।

डॉ0 नीलिमा शर्मा जी जीवाजी विश्व विद्यालय ग्वालियर से शास्‍त्रीय संगीत की धरोहर कन्‍हर पदमाल पर शोध कर चुकी हैं।

सन्‍त प्रवर श्री श्री 1008 श्री कन्‍हर दास जी महाराज का निर्वाण एक सौ आठ वर्ष की वय में चैत्र शुक्‍ल, श्री रामनवमी रविवार सम्‍वत् 1939 को पिछोर में हुआ।

नगर निगम संग्रहालय ग्‍वालियर में श्री कन्‍हर दास पदमाल की पाण्‍डुलिपि सुरक्षित वसीयत स्‍वरूप रखी हुई है। श्री प्रवीण भारद्वाज, पंकज एडवोकेट ग्‍वालियर द्वारा पाण्‍डुलिपि की फोटो प्रति उपलबध कराने में तथा परम सन्‍तों के छाया चित्र उपलबध कराने में श्री महन्‍त चन्‍दन दास छोटी समाधि प्रेमपुरा पिछोर ने जो सहयोग दिया है इसके लिए हम उनका हृदय से आभार मानते हैं।।

पंचमहली बोली का मैं अपने आपको सबसे पहला कवि, कथाकार मानता था लेकिन कन्‍हर साहित्‍य ने मेरा यह मोह भंग कर दिया है।

इस सत् कार्य में मित्रों का भरपूर सहयोग मिला है उनका हम हृदय से आभार मानते हैं। प्रयास के बावजूद प्रकाशन में जो त्रुटियां रह गई हैं उसके लिए हम सुधी पाठकों से क्षमा चाहेंगे।

रामगोपाल भावुक

दिनांक 16-4-97 श्री राम नवमी सम्‍पादक

राग – पर्ज, ताल – त्रिताल

मोसे अधम तनक बटुरिहौ हो हरी।।

भूलौ फिरत पंथ नहिं लागत, छिन – छिन – घरी-घरी।।

काम क्रोध मद लोभ मोह मह, नग – नग करिज करी।।

बीच धार भव भौंर परौ हौं, राखहु कर पकरी।।

अब तो नाथ निबाहै बनेगी, नातर जाई बगरी।।

कन्‍हर प्रनतपाल प्रन रघुवर, सुनि करि हठ झगरी।।611।।

राग – सोहनी

राम जपत सब कारज होना।।

मान पान अपमान बड़ाई, इनि मह समय न खोना।।

वाद – विवाद बढ़ौना वृथाई, नाहीं जग कह रोना धोना।।

कन्‍हर नाम सुधा रस पीउना, स्रवन पुटनि करि दोना।।612।।

राग – अड़ानौं

राम भजन बिन धृग जग जीना।।

और जतन तन अतन पतन के, तिन बसि होत मलीना।।

राम विमुख सो मुख अब नाहीं, समझि लेउ सो कीना।।

कन्‍हर धनि जन रहत पराथन, सियाराम पद लीना।।613।।

कह गति होइगी, विषय बसि – बसि कै।।

मनइं इन अधीन भयौ रे, परौ मूढ़ फंसि – फंसि कै।।

उरझि रहौ तू कोह मोह मद, बंधौ मार कसि – कसि कै।।

कन्‍हर वा दिन कौन बचावै, जम मारिहैं हंसि – हंसि कै।।614।।

राग – झंझौटी

जौ सुख चाहौ राम भजौ रे।।

नीच कीच ते बीच करे मन, दामिन काल सजौ रे।।

नर तन बार – बार नहिं मिलिहैं, सकल विकार तजौ रे।।

कन्‍हर पार होइ सो जग मैं, सो मन समझि लजौ रे।।615।।

स्‍याम न मानै अनेरौ कहौई हमेरौ।।

आवत उठि नित हमरी गलि‍नि में, करत नहीं बहु देरौ।।

धूम मचावत बहुत झिकावत, मोतन हंसि – हंसि हेरौ।।

कन्‍हर ऐसी रीति कहां की, निसि वासर अरसेरौ।।616।।

तोकौं मूढ़ कहा दरकार।।

देखि लिया तू जग का मेला, समुझि राम जपि हो जा पार।।

ना घरि ल्‍यायौ ना घरि जैहैं, पड़े रहैगो सब भ्रम जार।।

कन्‍हर कहत मानि सिख मोरी, मति लादै अघ कौ बहु भार।।617।।

राम दिखे बिन नयन न मानै।।

पल – पल कल मोइ परति नहीं है, करत प्रेम तपानै।।

ऐसी लगनि लगी री आली, अधिक – अधिक उरझानै।।

कन्‍हर के प्रभु विलग होत ही, मन नहिं रहत ठिकानैं।।618।।

मुक्ति रूप जन हरिगुन गायौ।।

काम क्रोध मद लोभ रहित जो, सो भव कूप न आयौ।।

निरभय रहत लहत सुख जग मंह, सुभ मारग मन भायौ।।

कन्‍हर राम कहतं भ्रम भाजत, अघ निर्मूल नसायौ।।619।।

स्‍याम तुम्‍हरी ऐसी कैसी प्रीति।।

जो करनातौ और लगाना, ऐसी बरनी नीति।।

हम जानी कै पार लगैगी, थोरेइ दिन मह बीति।।

को उन करै परतीति प्रीति की, कन्‍हर सुनि जह रीति।।620।।

राग – केदारौ।।

नाथ निगम आगम गति न्‍यारी।।

लखि नहिं परत नाथ अवध, रीझत कापर होत सुखारी।।

जापर कृपा करत रघुनंदन, ताकी विपति निवारी।।

कन्‍हर जतन- जतन करि हारो, कहा तकसीर हमारी।।621।।

जग मह इनि दुख सुख सम जाना, मगन राम गुन गाना।।

आसा वासा पासा छाड़ौ, निरभय भय नहिं आना।।

हरष सोक अपमान मान की, उर मैं तान न ताना।।

कन्‍हर उनके दरस करत ही, छूटत मन भ्रम नाना।।622।।

राम म्‍हानै कैसी कीनी बहुत कसीर।।

हमरी ओर कोर न कृपा की, कस हो गये बेपीर।।

फिरि कब नाथ बनाव बनै, अस मन न धरतु है धीर।।

कन्‍हर चरन सरन रति चाहत, अरज सनौं रघुवीर।।623।।

जग कह जीता है जन जोई, राम नाम उर गोई।।

सोई – सोई पार है अब हारा, जिहै मति नहिं मूढ़ा जोई।।

जग जन्‍मै मुक्ति रूप नहीं, संचौ किसमिस नहिं कोई।।

कन्‍हर हरि हर नाम जपत ही, मन तूं कह अब सोई।।624।।

हरि सुमिरौ रे आहै काल अचानक ।।

जनक तनक तन संग न करिहैं, नहिं करि बीच बचानक।।

मान पान करि हरि पद सेवहु, अरू भ्रम नाच नचानक।।

कन्‍हर राम नाम कह धरि उर, तन गति कांच कचानक।।625।।

काई- कोई जग मैं रहत जतन सौं।।

रहत समीर नीर नहिं लागत, पुरयनि पात पतन सौं।।

मगन रहत हरि के गुन गावत, उरझत नहीं तन सौं।।

कन्‍हर ऐसौ ध्‍यान धरत उर, सो जन सुरझित तन सौं।।626।।

जग मैं जीवन आन संभालत धीर।।

लहत – लहत नहिं कबहूं चंचल, चपल चाल मन पीर।।

कबहूं सीत कहूं धूप जनावत, दृग झर लयावत नीर।।

कन्‍हर स्‍वांस बही हरि प्रेरित, सब घट सब बलवीर।।627।।

जय – जय रघुवर जनक किसोरी।।

किकर जानि कृपा अब कीजै, मैं बहु करत निहोरी।।

नाम गरीब नवाज तुम्‍हारौ, हेरहु अपनी ओरी।।

कन्‍हर औगुन चित न धरौ प्रभु, सुरति करौ अब मोरी।।628।।

चलावत अपनी – अपनी घात।।

स्‍वारथ जात बात नहिं पूछत, एसौ जग कौ नात।।

पार होन को पथ न लखावत, सुत दारा अरू तात।।

कन्‍हर राम नाम पद पूरन, सेव‍हु उर जलजात।।629।।

राग – देव

हरि बिन कौन करै हित मेरौ।।

तुम बिन नाथ और नहिं कोई, सरन तकौ अब तेरौ।।

भरमत जन्‍म व्‍यतीत गयौ है, कबहूं न मैं तुम हेरौ।।

कन्‍हर कोई काम नहिं आवत, ताते समुझि सबेरौ।।630।।

सियावर सबके दु:ख हरे।।

धना भगत रैदास नामदेव, नाम लेत सुधरे।।

अजामेल सौंरी गज गनिका, नाम लेत उबरे।।

रंका बंका करत कसाई, खंग से सरन करे।।

कन्‍हर प्रभुवर बार दीन कौ, मोकौ क्‍यों बिसरे।।631।।

रघुवर सरन तके सब रे।।

मीरा पीपा जाति जुलाहौ, भगत सुदामा विपति हरे।।

मोरध्‍वज हरिचंद विदुर से, अंबरीष कौ अभय करे।।

भक्‍त अनेक पार भव हो गये, जिनि उर चरन धरे।।

कन्‍हर बहौ- बहौ भव डोलत, कस मन बानि परे।।632।।

कब ढुरिहौ सियाराम पियारे।।

जो कोऊ दीन भये सरनागत, मैटि दिये तिनके दुख भारे।।

अधम महाखल पावन कीनै, नाम लेत भव ते निरवारे।।

कन्‍हर की सुधि लेउ कृपानिधि, क्‍यों करि विरद बिसारे।।633।।

राखौ हरि सरनागत जानी।।

भयौ विकल भव भौंर परौ मन, ग्रसौ मोह मद आनी।।

काम क्रोध मद लोभ उरझि कर, कठिन मनोरथ ठानी।।

कन्‍हर प्रभु की रीति सुनी यह, विरदि दीन व्‍है दानी।।634।।

राग – देस

कीजै कृपा कृपानिधि सियवर, मन न लगत तुव ओरी।।

काम क्रोध मद लोभ मोह हरि, कठिन करत बरजोरी।।

भयौ रहौ नटवर जौं निस दिन, मानत नाहिं निहोरी।।

कन्‍हर बंधन कठिन बंधौ जग, तुम बिन को अब छोरी।।635।।

सियावर जी मैंने सरन तकौ है।।

ग्‍यान विराग जोग नहिं साधन, ते कछु ध्‍यान धरौ है।।

काम क्रोध मद लोभ लहरि मह, जीवन वृथा करौ है।।

कन्‍हर फिरौ रैनि निस – वासर भूलौ, अब प्रभु चरन परौ है।।636।।

हरि बिन और भरोसौ काकौ।।

भरमत जन्‍म वतीत गयौ है, हारि परौ मन म्‍हाकौ।।

जिमि ने नाम लियौ है तुम्‍हरौ, प्रन राखौ तुम ताकौ।।

कन्‍हर सोच सकोच न ताकौ, चरन ध्‍यान मन जाकौ।।637।।

दीनदयाल नाम सुनि पायौ।।

साधनहीन दीन निज अघबस, भरमत जनम गमायौ।।

राम नाम तजि सलिल सुधारस, फिरत विषय मन ल्‍यायौ।।

कन्‍हर विकल भयौ करूनानिधि, चरन सरन तकि आयौ।।638।।

अब तुम क्‍यौं बिसरे वह बानि।।

जब – जब गाज परी भक्‍तन पै, धरौ रूप तुम आनि।।

दुष्‍टनि मारि अभय सब कीन्‍है, जिन जन मन जानि।।

द्रुपद सुता कौ चीर बढ़ाऔ, दुस्‍सासन बलहानि।।

गज अरू ग्राह लरे जल भीतर, धाये तजि निज मानि।।

कन्‍हर प्रभु प्रहलाद उबारे, राखौ विधि वर दानि।।639।।

तजि हरि चरन वृथा भटकायौ।।

गृह वनिता सुत बंधु भये बहु, स्‍वारथ हित अपनायौ।।

जाते भव बंधन छूटत है, सो पथ तै नहिं पायौ।।

अबहूं समुझि परति न हित कौं, तू बहु नाच नचायौ।।

थिरता लहौ नहीं या जग में, कठिन करालहि तायौ।।

कन्‍हर हरि कौं भजौ तजौ भ्रम, सुभ मारग श्रुति गायौ।।640।।

मानत न‍हीं फिरत पथ वामा।।

करतउ पदह हारि न मानत, मूढ़ पाइ परचामा।।

मृग तृस्‍ना जौ लखि करि डोलत, ग्रसौ मोह मद कामा।।

तुम्‍हरी ओर हिलावत नाहीं, गई भूल मद दामा।।

कठिन डगर मन मूढ़ कहौ न मानत, हारि परौ श्रीरामा।।

भूलौ फिरतु खबरि वा दिन की, बिसरत है तुव नामा।।

वंधौ मोह मद छूटत नाहीं, कठिन गहौ यह ठामा।।

कन्‍हर विकल भयौ रघुनायक, करौ कृपा घनस्‍यामा।।641।।

जानकीरमन सरन सुखरासी।।

तासु प्रताप उमा पति जानत, गरल पियौ हरषासी।।

महिमा अमित आदि कवि बरनत, उलटौ जाप जपासी।।

हनुमत नाम प्रताप राखि उर, भये निकट कै वासी।।

गुन गन रूप भसुंड बखानत, रहत सदा अनिवासी।।

कन्‍हर नारदादि मुनिगन वर, हृदय हरषि गुन गासी।।642।।

राग – पीलू

हौं जग देखौ काल कलेवा।।

हरि कौ नाम भूलि मति भूले, जीवन जगत छलेवा।।

चरन सरन कही मैं पावत, जग मग यह उरझेवा।।

पार करन कौ प्रभु हिय लावे, राम नाम जप लेवा।।

कन्‍हर अन्‍य देव जग नाहीं, मोकौ पार करेवा।।643।।

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