दैहिक चाहत - 13 Ramnarayan Sungariya द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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दैहिक चाहत - 13

उपन्‍यास भाग—१३

दैहिक चाहत –१३

आर. एन. सुनगरया,

यौवन-जवानी के सुनहरे समय के मध्य शीला पति से वंचित हो गई। नये-नवेले दाम्‍पत्‍य जीवन में अंधियारा छा गया। आसमान टूट पड़ा, समग्र जिम्‍मेदारियों का बोझ नाजुक कन्‍धों पर सवार हो गया। ये दायित्‍व तो किसी तरह परिश्रम पूर्वक पूरे हो जायेंगे,……लेकिन जवान दिल की हसरतें, उमंगें, उबाल, उन्‍हें कैसे संयमित कर पायेगी, शीला। शरीर की ऐठन, कसमसाहट, बदन में उबलते अरमान, भोग विलास की भावनाओं, इच्‍छाओं को काबू करना कठिन कार्य है। पेट की भूख से भी बलशाली तन की भूख पिपासा होती है....।

शीला को इसी अदृश्‍य कुदरती भूख से अपने-आपको सम्‍हालना है। इस पर नियंत्रण करना, हिमालय पर पर्वत आरोहण करने के समान है। पूर्ण सं‍तुलित जीवन चर्या को अपनाना होगा। बात-व्‍यवहार में मित्‍यव्‍यता का विशेष घ्‍यान देना होगा। एकाएक किसी पर भी ऑंखें बन्‍द करके विश्‍वास करना, जरूरत से ज्‍यादा मेल-जोल बढ़ाने में सावधानी आवश्‍यक होगी। रोजमर्रा के सारे क्रिया-कलाप नई योजनाओं, नई धारणाओं, नये चाल-चलन के अनुसार निवाहने होंगे।

शीला ने अपने चारों और अप्रत्‍येक्ष सुरक्षा चक्र निर्मित कर लिया। समाज में सुसभ्य, सुसंस्‍कृत, समझदार, कर्त्तव्‍यनिष्‍ठ, संयमित, आत्‍म नियन्त्रित, पवित्रता की प्रतिमूर्ती की छबि बना ली। सम्‍पूर्ण ध्‍यान एवं समय तनूजा-तनया की शिक्षा-दिक्षा, उज्‍जवल भविष्‍य बनाने तथा सम्‍हालने पर लगा दिया। यह सिलसिला अपनी श्रेष्‍ठ सक्रियता पूर्वक चलते रहने के बावजूद भी शीला का मन भटकने लगता, विचलित होने लगता। स्‍वाभाविक मन का मयूर नृत्‍य करने लगता, हिरन उछालें मारने लगता, गाय रम्‍भाने लगती सूर्यास्‍त की लालिमा स्निग्‍धता में हृदय की कोमल काम भावनाऍं अश्‍व सवार होकर, वायुवेग से दौड़ने लगती अनन्‍त की ऊँचाइयों की ओर.........! सूनापन, एकान्‍त, सन्‍नाटा घेरने लगता, धुंधले वातावरण में............अभिमन्‍यु की अस्‍पष्‍ट परछाइयॉं डोलती हुई प्रतीत होने लगतीं..... शीला उन अनजानी-जानी-पहचानी आकृतियॉं,………ऑंखें बन्‍द करके अंतर्मन एवं आत्‍मा में समाहित करके पुन: सहज लेना चाहती है, तरोताजा करके।

...............दृश्‍य–दर-दृश्‍य स्‍पष्‍ट होने लगे, सारी धुन्‍ध छटने लगी...............ड्रेसिंग टेबल के दर्पण में अपनी कामनीय काया को साक्षात निहारती रही है, जिसे अभिमन्‍यु कंचनी बदन संगमरमरी चिकनी भरी-पूरी मांसलता की मूरत स्‍पर्श मात्र से ही जवॉं हसरतें जाग उठती हैं। उमंगों से भरपूर नाचने लगती हैं। स्‍पर्शियता का दायरा बढ़ने लगता है। दोनों हथेलियों के साथ-साथ शेष अंग-प्रत्‍यंग भी स्‍पर्श आनन्‍द में सराबोर हो जाते हैं। मगर भोगी ज्‍वाला शॉंत होने के वजाय उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है। खुले, बिखरे, आवारा जूड़े में उंगलियॉं सरकती सरसरा रही हैं। कामक्रिड़ा को उत्‍प्रेरित कर रही हैं। जुल्‍फों का मचलना, फिसलना, उलझना, सुलझना लपटना, खुलना तन-बदन स्‍पर्श अनुभूति से खिल उठा, शरीर के सारे सुखों की सम्‍वेदनशीलता,थरथराहट, कम्‍पन्‍न, तपन, रसास्‍वादन क्षण भर में ही समेट लेना चाहती है, शीला ! उफ्फ ! ये चर्मोत्‍कर्ष का वेग..........असहनीय हो रहा है............धड़कनों की स्‍वर लहरी माहौल में स्‍पष्‍ट गूँजते हुये गुंजन अद्भुत आनन्‍द दायक एहसास करा रहा है.............शी...ई...ई...गज़ब की तीव्रता.........शीला धड़धड़ाती, दौड़ती........वाश रूम में जाकर शावर खोल कर, पानी की फुहारों से उबाल को शीतल करते-करते शॉंत सामान्‍य होने लगी.......।

शीला अत्‍यन्‍त गम्‍भीर मूड में बैठी, विचारमग्‍न थी, कि मोबाइल की वैल बज उठी, झट उठा ऑन किया, ‘’हैल्‍लो.....तनूजा ! बोल......।‘’

‘’मॉम काफी देर से ट्राई कर रही थी।‘’ तनूजा ने झुंझलाते हुये बताया, ‘’होता है, कभी-कभी नेटवर्क का प्रॉबलम भी होता रहता है।‘’

‘’अभी तो कनेक्‍ट हुआ।‘’ शीला ने पूछा, ‘’कैसी हो दोनों बहनें।‘’

‘’ठीक हैं, तुम्‍हारी याद आई, तो बात करने का मन किया।‘’

‘’मैं भी बात करना चाह रही थी।‘’ शीला ने बाताया, ‘’अभिमन्‍यु की याद सता रही थी।‘’

‘’उन्‍हें आदर्श मान कर ही तो चल रहे हैं, हम।‘’ तनूजा ने ढॉंढ़स बंधाने की कोशिश की, ‘’याद करके गमगीन-उदास होने से अच्‍छा है, कहीं अन्‍य दृष्टिकोण पर सोचें, भूलने से अतीत पर काबू किया जा सकता है।‘’

‘’फूल डाली से टूटकर भी अपनी महक चमन में छोड़ जाता है।‘’ शीला ने अपना बचाव किया।

‘’हम तुम्‍हें सुखी, कुहकती कोयल, नाचती मयूर, हंसते-खिलखिलाते ठहाके लगाते देखने के आदी हैं। यही रूप आपका हमारे हृदय ऑंगन में अंकित है। इसके लिये हमें कुछ भी कुर्बान करना पड़े, हंसते-हंसते स्‍वीकार है।‘’ तनूजा ने दिली तमन्‍ना, इच्‍छा मंशा, भावना की प्रस्‍वावना दोहराई।

‘’तुम दोनों को घर-परिवार मिल जाये, अनुकूल......’’ शीला ने अपनी मन-मस्तिष्‍क की इच्‍छा जाहिर की, ‘’यही कामना है।‘’

‘’हमारा प्रयास है, तुम्‍हारा पुनर्विवाह हो जाये, तब हम शादी करें !’’ तनूजा ने दृढ़ता से कहा।

‘’पहले आप, पहले आप।‘’ शीला ने कहावत पूरी की, ‘’……..में ही गाड़ी छूट जायेगी।‘’ हंसी की ध्‍वनी।

मॉम तुम अपने पत्ते नहीं खोल रही हो, दहकते अंगारों पर चलती जा रही हो......।‘’ तनूजा ने प्‍यारी-प्‍यारी प्रताड़ना पूर्वक कहा, ‘’तुम्‍हारी रिसर्च की प्रोग्रेस किस स्‍तर तक पहुँची, कुछ तरक्‍की हुई अथवा.......।‘’

‘’तुम दोनों बहनें भी तो इतनी गोपनीयता वरत्ती हो कि कुछ भी भनक नहीं लगती, अपने कारनामों, कार्य-कलापों, किसके साथ क्‍या गुफ्तगू चल रही है,…….कुछ तो बताया करो। शीला ने डॉंट-फटकार के लहजे में कहा, ‘’नेगेटिव-पोजेटिव.....कब फल पकेगा !’’ घ्‍वनि में प्रेम, प्‍यार, स्‍नेह, लाड़, दुलार का स्‍पष्‍ट आभास।

‘’कॉ-हॉस्‍टल होने के नाते, लड़कों से मिलना-जुलना, हंसी-ठिठोली, डेटिंग.....आगे नोथिंग........।‘’

‘’अरे तो आगे बढ़ाओ।‘’ शीला ने आदेशात्‍मक प्रोत्‍साहन दिया, ‘’देख-परख, पूछ-परख, खोज-खबर, समुद्र की तलहटी से ढूँढ़कर लाओ मोती अनमोल……..।‘’ शीला की आवाज में संकल्‍प की अनुभूति का अनुमान लगाया जा सकता है।

‘’हल्‍के–फुल्‍के प्रेम, मौहब्‍बत के क्षण तो आते हैं, फार्मली, मगर गम्‍भीर शक्‍ल नहीं ले पाते।‘’ तनूजा ने संकेत दिया।

‘’मैं तुम्‍हारी मॉं हूँ, समझती हूँ तुम्‍हारी फितरत.......।‘’ शीला ने अल्‍टीमेटम दे दिया, ‘’मैं कुछ नहीं सुनूँगी, मुझे इस सिलसिले में प्रोग्रेस से अवगत कराओ। तनया को भी समझा देना।‘’ डॉट पिलाने के बाद, शीला ने कहा, ‘’रखती हूँ मोबाइल !’’ कट्ट !

शीला ना चाहते हुये भी अतीत की गहराइयों में उतरती चली जा रही है......................

..........मौसम परिवर्तन पर स्‍वाभाविक सामान्‍य स्‍वास्‍थ्‍य समस्‍याऍं अस्‍थाई रूप से घेर लेती हैं, मगर अभिमन्‍यु ऐसे अवसरों को इतना तूल देता था कि उसकी सेवा सुश्रूषा से राहत के वजाय परेशानी-असुविधा होने लगती थी, परन्‍तु स्‍वाभाविक अड़चनें भी मुझे अपूर्व सुखद सुख, शुकून देता था। अभिमन्‍यु के अनुसार कम्‍पलीट बेड रेस्‍ट, उसका समूचा सानिघ्‍य बहुत उमंगित और आनन्‍द दायक, खुश गंवार तथा अद्वितिय एहसास कराता। डॉक्‍टर की दवा के वाबजूद, वह अपनी घरेलू देख-रेख के तौर-तरीकों के आजमाये जाने वाले क्रिया-कलाप के मोर्चे पर स्‍वयं तैनात रहता। जैसे खाने-पीने की चीजें सुरूचिकर बनाकर समय पर उपलब्‍ध कराना नहाने हेतु कुनकुना पानी, और-तो-और, अपने हाथों से अथवा अपने मार्ग दर्शन में नेहलाना उसका पसन्‍नददीदा शौक था। कपड़े बदलने में समुचित सहायता करना, उसे बहुत भाता था। शीला के लाख ना-नुकर करना, इन्‍कार करने पर भी, अपने मन-मुताबिक बनावटी श्रृंगार करना, दर्पण दिखाकर शीला से एप्‍रूव्‍ड कराना नहीं भूलता था। ये सब स्‍त्रीयों के नितांत निजि एवं एकांत में सम्‍पन्‍न होने वाले क्रिया-कलाप हैं। सुसभ्‍यता के तहत पर्दादारी आवश्‍यक होती है। इन सब आपत्तियों पर उसका दष्टिकोण था, ‘’बीमारी के दौरान काफी कमजोरी आ जाती है, स्‍वाभाविक रूप से तो वाथरूम टायलेट इत्‍यादि जगहों पर साबुन-पानी तथा काई वगैरह के कारण फिसलने का अंदेशा बना रहता है। सुरक्षा की दृष्टि से निरन्‍तर साथ रहना अनिवार्य होता है।‘’

सोने से पहले शरीर की हल्‍की मालिश, चिकने कुदरती तेल को मलने, चिपड़ने के पश्‍चात हाथ, पैर, सर, पीठ इत्‍यादि-इत्‍यादि मासपेशियों की मसाज पर अभिमन्‍यु का कहना था, ‘’इसके सकारात्‍मक परिणाम स्‍वरूप प्राकृतिक अच्‍छी, गहरी नींद लेकर, जागने पर अतिरिक्‍त तरो-ताजा, रिलेक्‍स, प्‍लीजेन्‍ट फील होता है। सभी मासपेशियॉं, त्‍वचा एवं नसों को कसरत पर्याप्‍त मिल चुकी होती है। साथ-ही-साथ वह मीठी-मीठी हंसी-मजाक-मशखरी, जोक्‍स, रोचक घटनाओं के छोटे-छोटे टुकड़े सुनाता रहता, अनेक किस्‍से, कहानी सदा उसकी जुबान पर रहते। मुस्‍कुराता, हंसता, ठहाके लगाता, पूर्ण मनोरंजन का समुचित घ्‍यान रखता। एक क्षण भी अस्‍वस्‍थ्‍य होने का एहसास तक नहीं हो पाता।

शीला कहती, ‘’तुमसे सेवा कराना पारिवारिक परम्‍परानुसार तो तनिक भी अच्‍छा नहीं लगता, मगर तुम्‍हारी देख-रेख, संपूर्ण समर्पण के साथ बहुत ही गदगद कर देती है। निरान्‍तर तुम्‍हारा सजीव स्‍पर्श सपनीला सुख जैसा एहसास कराता है।

अभिमन्‍यु प्रसन्‍न अन्‍दाज में कहता, ‘’मुझे भी कंचन काया के ऊपर फिसलती उंगलियॉं-हथेलियॉं द्वारा स्‍पर्श सुख की हृदयस्‍पर्शिय अनुभूति मिलती है। जो शरीर सहित, मन-मस्तिष्‍क आत्‍मा में कोमल भावनाओं को पोषित कर देता है। अद्भुत एहसास की अनुभूति जाग्रत हो जाती है। अ..हा.....हा.....हा आनन्‍द !

कितने दुलार, प्‍यार, मौहब्‍बत से बोला था अभिमन्‍यु, ‘’काफी बनाकर लाता हूँ।‘’ किचिन में गया तुरन्‍त वापस आ गया। कुछ क्षण मुझे बाहों में भरकर अपलक घूरता रहा, मैं भी खामोश मन्‍द मुस्‍कान से उसे एकटक देखती रही। बगैर बोले भी उसकी गहरी-गम्‍भीर ऑंखों ने सब कुछ अनकहा उत्‍सर्जित कर दिया। कितना प्‍यार उमड़ रहा था; मैं उसमें विलीन होती जा रही थी......गहराईओं में........।

चीखा अभिमन्‍यु, ‘’दूध गर्म हो गया होगा।‘’ और भागा किचिन की ओर......मैं भी उसके पीछे-पीछे हो ली.......। उसे हड़बड़ाकर दौड़ते हुये देखकर, पूछा, ‘’क्‍या हुआ।‘’ उसने जवाब दिया, ‘’गैस तो जलाई ही नहीं...........

दोनों इस अन्‍दाज में एक साथ हंस पड़े, जैसे बहुत बड़ी हास्‍य–परिहास्‍य की घटना हो गई हो। ठहाका लगाकर हंसते-हंसते पेट में बल पड़ गये, दोनों इसी मुद्रा में एक-दूसरे से टकराते-टकराते, लिपट ही गये, मगर हंसी नहीं रूकी.........आहिस्‍ता-आहिस्‍ता, टकराहट गुत्‍थमगुत्‍था में परिवर्तित हो गई, ………हंसी तो शॉंत हो गई, कोई ध्‍वनि नहीं........मगर सॉंसों की संयुक्‍त महक से किचिन सुगन्धित हो उठा। सुरीली सॉंसों की तरंगें, खुशबूदार, पवन से मिलकर एक अद्भुत शमा का आभास हो रहा है, दो पंक्षी आसमान में एक-दूसरे के सहारे बहे चले जा रहे हैं। काली घटाओं के झुरमुट में साथ-साथ....................

न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍

क्रमश:---१४

संक्षिप्‍त परिचय

1-नाम:- रामनारयण सुनगरया

2- जन्‍म:– 01/ 08/ 1956.

3-शिक्षा – अभियॉंत्रिकी स्‍नातक

4-साहित्यिक शिक्षा:– 1. लेखक प्रशिक्षण महाविद्यालय सहारनपुर से

साहित्‍यालंकार की उपाधि।

2. कहानी लेखन प्रशिक्षण महाविद्यालय अम्‍बाला छावनी से

5-प्रकाशन:-- 1. अखिल भारतीय पत्र-पत्रिकाओं में कहानी लेख इत्‍यादि समय- समय

पर प्रकाशित एवं चर्चित।

2. साहित्यिक पत्रिका ‘’भिलाई प्रकाशन’’ का पॉंच साल तक सफल

सम्‍पादन एवं प्रकाशन अखिल भारतीय स्‍तर पर सराहना मिली

6- प्रकाशनाधीन:-- विभिन्‍न विषयक कृति ।

7- सम्‍प्रति--- स्‍वनिवृत्त्‍िा के पश्‍चात् ऑफसेट प्रिन्टिंग प्रेस का संचालन एवं स्‍वतंत्र

लेखन।

8- सम्‍पर्क :- 6ए/1/8 भिलाई, जिला-दुर्ग (छ. ग.)

मो./ व्‍हाट्सएप्‍प नं.- 91318-94197

न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍